वहीं शिक्षा की बात करें तो इस गांव में इसका प्रतिशत बेहद कम दर्ज किया गया है. यह इस बात से पता चलता है कि गांव में कोई भी पांचवीं से अधिक पढ़ा नहीं है. जागरूकता के अभाव के कारण युवा पीढ़ी भी शिक्षा की महत्ता से अनजान है. गरीबी और जागरूकता की कमी के कारण गांव में कुपोषण ने भी अपने पांव पसार रखे हैं. इस संबंध में गांव की 28 वर्षीय जमुना बावरिया बताती हैं कि गांव के लगभग सभी बच्चे शारीरिक रूप से बेहद कमज़ोर हैं. गरीबी के कारण उन्हें खाने में कभी भी पौष्टिक आहार प्राप्त नहीं हो पाता है. घर में दूध केवल चाय बनाने के लिए आता है. वह बताती हैं कि उनके पति घर में ही कागज़ का पैकेट तैयार करने का काम करते हैं. जिससे बहुत कम आमदनी हो पाती है. ऐसे में वह बच्चों के लिए पौष्टिक आहार का इंतज़ाम कहां से कर सकती हैं? वह बताती हैं कि गांव के अधिकतर बच्चे जन्म से ही कुपोषण का शिकार होते हैं क्योंकि घर की आमदनी कम होने के कारण महिलाओं को गर्भावस्था में संपूर्ण पोषण उपलब्ध नहीं हो पाता है. जिसका असर जन्म के बाद बच्चों में भी नज़र आता है. वह स्वयं एनीमिया की शिकार हैं. वहीं 35 वर्षीय अनिल गमेती बताते हैं कि वह गांव के बाहर चूना भट्टा पर दैनिक मज़दूर के रूप में काम करते हैं. जहां उनके साथ उनकी पत्नी भी काम करती है. लेकिन गर्भावस्था के कारण अब वह काम पर नहीं जाती है क्योंकि उसे हर समय चक्कर आते हैं. डॉक्टर ने शरीर में पोषण और खून की कमी बताया है. अनिल कहते हैं कि पहले मैं और मेरी पत्नी मिलकर काम करते थे तो घर की आमदनी अच्छी चलती थी. लेकिन गर्भ और शारीरिक कमज़ोरी के कारण अब वह काम पर नहीं जा पा रही है. ऐसे में घर की आमदनी भी कम हो गई है. अब उन्हें चिंता है कि वह पत्नी को कैसे पौष्टिक भोजन खिला सकते हैं? अनिल कहते हैं कि डॉक्टर ने दवाईयों के साथ साथ विटामिन और आयरन की टैबलेट भी लिख दी थी जो अस्पताल में मुफ्त उपलब्ध भी हो गई, लेकिन साथ ही डॉक्टर ने पत्नी को प्रतिदिन पौष्टिक भोजन भी खिलाने को कहा है जो उन जैसे गरीबों के लिए उपलब्ध करना बहुत मुश्किल है. वह कहते हैं कि इसके अच्छे खाने की व्यवस्था करने के लिए मुझे साहूकारों से क़र्ज़ लेना पड़ सकता है. जिसे चुकाने के लिए पीढ़ियां गुज़र जाती हैं.
गांव की 38 वर्षीय कंचन देवी के पति राजमिस्त्री का काम करते हैं. वह बताती हैं कि उनके तीन बच्चे हैं. दो लड़कियां हैं जो प्राथमिक विद्यालय में पढ़ती हैं जबकि बेटा गांव के आंगनबाड़ी में जाता है. देखने में उनका बेटा काफी कमज़ोर लग रहा था. वह बताती हैं कि पति की आमदनी बहुत कम है. ऐसे में बच्चों के लिए पौष्टिक खाने की व्यवस्था करना मुमकिन नहीं है. वह आंगनबाड़ी जाता है जहां खाने के अच्छे और पौष्टिक आहार उपलब्ध होते हैं जिसके कारण उसके अंदर इतनी ताकत भी है. कंचन कहती हैं कि गांव में गरीबी के कारण लगभग सभी बच्चे ऐसे ही कमज़ोर नज़र आते हैं. घर की आमदनी अच्छी नहीं होने के कारण परिवार न तो बच्चों का और न ही गर्भवती महिलाओं को पौष्टिक भोजन उपलब्ध करा पाता है. एक अन्य महिला संगीता देवी कहती हैं कि आंगनबाड़ी केंद्र के कारण गांव के बच्चों और गर्भवती महिलाओं को कुछ हद तक पौष्टिक भोजन उपलब्ध हो जाता है. सरकार ने आंगनबाड़ी केंद्र संचालित कर गांव के बच्चों को कमज़ोर होने से बचा लिया है. वास्तव में देश के ग्रामीण क्षेत्रों में कुपोषण की यह स्थिति भयावह है. जिसे दूर करने के लिए एक ऐसी योजना चलाने की ज़रूरत है जिससे गर्भवती महिलाएं और बच्चों को सीधा लाभ पहुंचे. इस कड़ी में आंगनबाड़ी केंद्र की कार्यकर्त्ता और सहायिका सराहनीय भूमिका अवश्य निभा रही हैं. लेकिन इस बात पर भी गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है कि ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों को भूख और कुपोषण से मुक्त बनाने के लिए 1975 में शुरू किया गया आंगनबाड़ी अपनी स्थापना के लगभग पांच दशक बाद भी अब तक शत प्रतिशत अपने लक्ष्य को प्राप्त क्यों नहीं कर सका है?
प्रिया कुमारी
अजमेर, राजस्थान
(चरखा फीचर)
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