महात्मा बुद्ध की प्रथम उपदेश स्थली सारनाथ एक पूरा अतीत समेटे है। इसकी ऐतिहासिकता-विलक्षणता के साथ रोचक व कला कौशल संबंधी वस्तुओं को संग्रह किया गया है सारनाथ पुरातात्विक संग्रहालय में। इसमें प्रवेश करने के साथ ही मन गौरव के अहसास से बाग बाग कर जाएगा तो हजारों साल पहले का पूरा दृश्य मानों आंखों के सामने से गुजर जाएगा। गैलरी संख्या एक में रखी गुप्तकालीन अद्वितीय यह मूर्ति भारतीय मूर्तिकला की अनुपम धरोहर है। जिसे भारत के कला इतिहासकारों ने सारनाथ कला शैली में निर्मित इस मूर्ति को श्रेष्ठतम माना है। इस मूर्ति के आसन के मध्य में चित्रित चक्र भगवान बुद्ध द्वारा सारनाथ में दिए गए पहले उपदेश का प्रतीक है। वहीं पांच पुरुषों का चित्रण उन पांच बौद्ध भिक्षुओं के सूचक हैं जिन्हें भगवान बुद्ध ने पहला उपदेश दिया था। महिला रूप में संभवतः इस मूर्ति की निर्मात्री का चित्रण किया गया है। भगवान बुद्ध की इस मूर्ति को तराशने में मूर्तिकार ने उन्हें सभी महापुरुषों के लक्षणों से युक्त किया है। उनके केश, लंबे कान, गले की धारियां, अर्ध उन्मीलित नेत्र, प्रभा मंडल और पारदर्शी चीवर का अंकन बड़ी कुशलता से किया गया है। पांचवीं-छठीं शताब्दी में निर्मित इस पुरावशेष में भगवान बुद्ध के जीवन की सभी आठ महत्वपूर्ण घटनाओं को बड़ी ही सुंदरता से प्रदर्शित किया गया है। इसमें भगवान बुद्ध के जन्म, वैशाली में वानरराज द्वारा मधु का दान, संकीशा में त्रयस्त्रिंश स्वर्ग अरोहण, धर्म चक्र प्रवर्तन, बोधगया में ज्ञान प्राप्ति, राजगृह का नीलगिरी दमन, श्रवस्ती का चमत्कार एवं कुशीनगर में भगवान बुद्ध का महापरिनिर्वाण एक ही पत्थर खंड पर प्रदर्शित है
उनके आदर्शो पर चलने से दुनिया में आयेगी शांति
महात्मा बुद्ध का एक मूल सवाल है। जीवन का सत्य क्या है? भविष्य को हम जानते नहीं है। अतीत पर या तो हम गर्व करते हैं या उसे याद करके पछताते हैं। भविष्य की चिंता में डूबे रहते हैं। दोनों दुखदायी हैं। बुद्ध के जीवन में दो स्त्रियां बहुत अहम स्थान रखती हैं। एक तो उनकी मौसी महापजापति गौतमी और दूसरी सुजाता जो उनके आत्मिक जन्म का निमित्त बनी। बुद्ध की जन्मदात्री मां उनके जन्म के बाद मर गईं लेकिन उनकी मौसी ने अपना दूध पिलाकर उनका पोषण किया। उसके लिए गौतमी ने अपने नवजात पुत्र को किसी और दाई को सौंपा और वह खुद बालक सिद्धार्थ का पालन करने लगी। गौतमी ने आगे चलकर बुद्ध से दीक्षा लेने की जिद की, उसके कारण संघ में स्त्री का प्रवेश हुआ, और वह बुद्धत्व को उपलब्ध हुई। दूसरी घटना है कि बुद्ध दिन रात बिना रुके ध्यान करते थे, इस वजह से उनका शरीर उपवास और तपस्या से क्षीण, अस्थिपंजर हो गया था। लेकिन एक पूर्णिमा के दिन उन्होंने सारे नियम तोड़ने का निश्चय किया और सहज स्वीकार भाव में बैठ गए। भोर के समय सुजाता नाम की स्त्री अपनी मन्नत पूरी करने के लिए खीर बनाकर ले आई। बुद्ध को देख कर उसे लगा, वृक्ष देवता प्रगट हुए हैं। उसने उन्हीं को भोग लगाया और खीर खाने की बिनती करने लगी। बुद्ध ने उसकी बिनती स्वीकार की और सुजाता के हाथ की खीर खाई। उसी दिन उन्हें बुद्धत्व की उपलब्धि हुई। उस दिन सुजाता उन्हें खीर नहीं खिलाती तो उनका शरीर नष्ट हो सकता था। बुद्ध की मां उनके जन्म के बाद नहीं रहीं थीं लेकिन उनकी मौसी ने अपना दूध पिलाकर उनका पोषण किया।
गौतम बुद्ध के कुछ प्रमुख मंत्र
गौतम बुद्ध प्रज्ञा पुरुष थे। उन्होंने धर्म को पारंपरिक स्वरूप से मुक्त कराकर उसे ज्ञान की तलाश से जोड़ा। उन्होंने विवेक को धर्म के मूल में रखा और तमाम रुढ़ियों को खारिज किया। उन्होंने ज्ञान को सर्वोच्च महत्व दिया और उनके इन विचारों की प्रासंगिकता आज भी है। पुष्प की सुगंध वायु के विपरीत कभी नहीं जाती लेकिन मानव के सदगुण की महक सब ओर फैलती है। तीन चीजों को लम्बी अवधि तक छुपाया नहीं जा सकता, सूर्य, चन्द्रमा और सत्य। हजार योद्धाओं पर विजय पाना आसान है, लेकिन जो अपने ऊपर विजय पाता है वही सच्चा विजयी है। हमारा कर्तव्य है कि हम अपने शरीर को स्वस्थ रखें, अन्यथा हम अपने मन को सक्षम और शुद्ध नहीं रख पाएंगे। हम आपने विचारों से ही अच्छी तरह ढलते हैं, हम वही बनते हैं जो हम सोचते हैं। जब मन पवित्र होता है तो खुशी परछाई की तरह हमेशा हमारे साथ चलती है। हजारों दीपों को एक ही दिए से, बिना उसके प्रकाश को कम किए जलाया जा सकता है। खुशी बांटने से कभी कम नहीं होती। अप्रिय शब्द पशुओं को भी नहीं सुहाते हैं। अराजकता सभी जटिल बातों में निहित है। परिश्रम के साथ प्रयास करते रहो। आप को जो भी मिला है उसका अधिक मूल्यांकन न करें और न ही दूसरों से ईर्ष्या करें। वे लोग जो दूसरों से ईर्ष्या करते हैं, उन्हें मन को शांति कभी प्राप्त नहीं होती। अतीत पर ध्यान केंद्रित मत करो, भविष्य का सपना भी मत देखो, वर्तमान क्षण पर ध्यान केंद्रित करो। आप चाहे कितने भी पवित्र शब्दों को पढ़ लें या बोल लें, लेकिन जब तक उन पर अमल नहीं करते उसका कोई फायदा नहीं है। इच्छा ही सब दुःखों का मूल है। जिस तरह उबलते हुए पानी में हम अपना, प्रतिबिम्ब नहीं देख सकते उसी तरह क्रोध की अवस्था में यह नहीं समझ पाते कि हमारी भलाई किस बात में है। चतुराई से जीने वाले लोगों को मौत से भी डरने की जरुरत नहीं है। वह व्यक्ति जो 50 लोगों को प्यार करता है, 50 दुखों से घिरा होता है, जो किसी से भी प्यार नहीं करता है उसे कोई संकट नहीं है।
बुद्ध के ’पंचशील सिद्धांत’ ही ’सुखमय जीवन’ के मंत्र
जनविश्वास है कि सारनाथ प्रवास के समय भगवान बुद्ध इस मंदिर के मुख्य कक्ष में निवास करते रहे। उनके तन की सुवास चारों ओर फैलती रहती थी, इसीलिए इसका नाम मूलगंध कुटी पड़ा। यहीं पास में अशोक द्वारा लगवाए गए प्रस्तर स्तंभ के टुकड़े रखे हैं जिसका चार सिंहों वाला शीर्ष संग्रहालय में प्रदर्शित है। यहीं अनेक विहार हैं जिनमें विभिन्न कालों में भिक्षुओं का निवास था। अनेक छोटे-बड़े मनौती स्तूप भी हैं जिन्हें भिन्न-भिन्न समय में श्रद्धालुओं ने बनवाए। इससे स्पष्ट होता है कि सारनाथ ही बौद्ध श्रद्धालुओं की आस्था और श्रद्धा का केंद्र रहा है। महात्मा बुद्ध के जीवन की एक कथा है। गंधकुटी के चारों ओर जूही के फूल खिले थे। शास्ता ने भिक्षुओं से उन फूलों को दिखाकर कहा- इन फूलों को देखते हो। इन सुंदर, खिले और सुवासित फूलों को ध्यान से देखो। इनमें कई राज छिपे हैं। ऐसे फूल तुम भी हो सकते हो। दूसरे फूल सुबह खिलते हैं, सांझ को मुरझा जाते हैं। ऐसा ही मनुष्य का जीवन है। यह आया है और चला जायेगा। इसी प्रकार हमारे जीवन का दुख क्या है? हमारे जीवन का मौलिक दुख यही है कि जो रुकेगा नहीं, उसे हम रोकना चाहते हैं। जो अस्थायी धन है, उसे हम स्थायी मान बैठे हैं। यह मौलिक दुख है कि जो हो नहीं सकता, उसको सदा-सर्वदा के लिए अपनाना चाहते हैं। दरअसल, जीवन एक व्यवस्था है। ऐसी व्यवस्था, जो चेतन और गतिमान है। इसमें लगातार बदलाव होता रहता है। यही जिंदगी का दर्शन भी है। सनातन सत्य के आर्य सूत्र हमें यही बताते और दिखाते हैं कि जीवन की अर्थ किन बातों में सिमटा है। यह क्षणभंगुर को पकड़ने में नहीं, बल्कि सत्य को जानने में है। सार यह है कि जब सब चला जाना है, तो इतनी योजनाएं बनाने का अर्थ क्या है? अतीत चला गया, भविष्य भी चला आयेगा। वर्तमान सामने है। बस उसका उत्सव मनाया जाये। इस सत्य के लिए ही एक राजकुमार गौतम ने संसार के समस्त ऐश्वर्य और सुख-सुविधाओं को छोड़ दिया। राजपाट, पत्नी और पुत्र, यहां तक कि इस शरीर का मोह भी। समस्त को छोड़कर सालों सत्य की खोज में वह भटकता रहा। एक गुरु से दूसरे गुरु और अंततः खुद में समाहित होकर। एक दिन पीपल के पेड़ के नीचे उसे ज्ञान प्राप्त हुआ और वह गौतम से महात्मा बुद्ध बन गया। बुद्ध के अंतिम दिनों में आनंद ने जिज्ञासा प्रकट की कि भंते अब सत्य के बारे में हमलोगों को कुछ बताएं। बुद्ध ने सामने पतझड़ में बिखरी पत्तियों की ओर इशारा करते हुए बताया- आनंद, मैंने मुट्ठीभर सत्य तुम्हें दिये हैं, पर इन पत्तियों की तरह असंख्य सत्य बिखरे पड़े हैं। क्या यह सही नहीं कि इसी सत्य की रक्षा के लिए सुकरात विषपान कर गये, लेकिन सत्य पर अडिग रहे। लेकिन आज जब यह कहा जाता है कि हमारा सत्य तुम्हारे सत्य से बड़ा है।
सत्य की यह मृगमरीचिका ही है कि इस दौर में एक बार फिर से लोगों में संन्यास और अध्यात्म की बातें होने लगी हैं। यह कितना स्वतःस्फूर्त है और कितना दिखावा, कहना कठिन है। लेकिन बुद्ध के जीवन की एक कहानी है। भारत में बौद्ध तीर्थस्थलों बोधगया, सारनाथ, कुशीनगर, सांची के संरक्षण युगो-युगों तक हमें प्रेरणा देते रहेंगे। बुद्ध पूर्णिमा के दिन यदि हम अपने जीवन में उनके संदेशों को उतारेंगे तो निश्चित ही जानिये बेहतर देश, बेहतरीन दुनिया के साथ सबसे परिष्कृत मानव और मानवीय मूल्यों के सृजन करने में सक्षम होंगे. बुद्ध पूर्णिमा उनके संदेश-शिक्षा के स्मरण का समय है. उनका आदर्श जीवन, उनकी शिक्षा हमें वो मार्ग दिखा सकती हैं जिन पर चलकर विपत्ति काल से बाहर निकला जा सकता है. मुश्किलों से संघर्ष किया जा सकता है. दीन-दुखियों से लेकर पशु-पक्षियों तक के प्रति हमारे भीतर करुणा और द्रवित हो जाने का जो भाव उत्पन्न होता है, मानवता के प्रति करुणा, लाचारों के प्रति नेह प्रकट होता है, इन बातों को मन-मस्तिष्क में स्थापित करने में बुद्ध के वचनों का बहुत बड़ा योगदान है. ‘हर दुख के मूल में तृष्णा’ इस बेहद सहज से लगने वाले वाक्य के माध्यम से बुद्ध ने हमारे जीवन की सबसे महान व्यथा को पकड़ा है. हमारे जीवन की सबसे बड़ी पीड़ा को अनावृत किया है. यदि हम जीवन के हर कष्ट-पीड़ा-दुखों पर नजर डालें, तो मूल में एक ही बात मिलेगी-‘तृष्णा या लालच.’ गौतम बुद्ध बचपन से ही ऐसे प्रश्नों के उत्तर की तलाश में खोये रहते थे, जिनका जवाब संत और महात्माओं के पास भी नहीं था. उनका स्पष्ट मत था कि सहेजने में नहीं, बांटने में ही असली खुशियां छिपी हुई हैं. त्याग के साथ ही व्यक्ति का खुशियों की दिशा में सफर शुरू होता है. वे खुद संसार को दुखमय देखकर राजपाट छोड़कर संन्यास के लिए जंगल निकल पड़े थे. परिवार का त्याग, वैभव छोड़ना बहुत मुश्किल काम है. फिर राजसी वैभव की तो बात ही क्या है! लेकिन उन्होंने किया और इसी का संदेश भी दिया. सत्य की तलाश में आयी सैकड़ों अड़चनों के सामने वे इसी तरह से अविचल रहे. उनका संदेश ‘आत्मदीपो भवः’ यानी खुद को प्रकाशित करना या जीतना ही सबसे बड़ी जीत है. यही अमृत वाक्य आज नफरत के बीच आपको सच्ची शांति दे सकता है. वैशाख पूर्णिमा को ‘सत्य विनायक पूर्णिमा‘ के तौर पर भी मनाया जाता है। इस दिन को दैवीयता का दिन भी माना जाता है। इस दिन ब्रह्म देव ने काले और सफेद तिलों का निर्माण भी किया था। अतः इस दिन तिलों का प्रयोग जरूर करना चाहिए। बुद्ध पूर्णिमा पर बौद्ध मतावलंबी बौद्ध विहारों और मठों में इकट्ठा होकर एक साथ उपासना करते हैं। दीप जलाते हैं। रंगीन पताकाओं से सजावट की जाती है और बुद्ध की शिक्षाओं का अनुसरण करने का संकल्प लेते हैं। इस दिन भक्त भगवान महावीर पर फूल चढ़ाते हैं, अगरबत्ती और मोमबत्तियां जलाते हैं तथा भगवान बुद्ध के पैर छूकर शांति के लिए प्रार्थना करते हैं।
महामानव के रुप है भगवान बुद्ध
महामानव वो होते हैं, जिन्होंने अपनी जिंदगी में ताउम्र कुछ ऐसी मिसाल कायम की, जिसके कारण उनको भगवान का दर्जा दिया गया। और वह अंत में देवत्व को प्राप्त होकर लोगों के पूज्य हो जाते हैं। उनके नाम पर एक विशेष धर्म जन्म लेता है। जो उस व्यक्ति के विचारों को आगे ले जाने के लिए अपने अनुयायियों को बढ़ाते हुए लोगों के अंदर नई शक्ति और नई चेतना का संचार करता है। इन्हीं में से एक थे भगवान बुद्ध, जिन्हें बौद्ध धर्म का निर्माता भी कहा जाता है। भगवान बुद्ध समय की महत्ता को बेहद अच्छी तरह से जानते थे। वह अपना हर क्षण कभी भी व्यर्थ नहीं जाने देते थे। एक बार उनके पास एक व्यक्ति आया और बोला, तथागत आप हर बार विमुक्ति की बात करते हैं। आखिर यह दुःख होता किसे है? और दुःख को कैसे दूर किया जा सकता है? प्रश्नकर्ता का प्रश्न निरर्थक था। तथागत बेतुकी चर्चा में नहीं उलझना चाहते थे। उन्होंने कहा, ‘अरे भाई! तुम्हें प्रश्न करना ही नहीं आया। प्रश्न यह नहीं था कि दुःख किसे होता है बल्कि यह कि दुख क्यों होता है?‘ और इसका उत्तर है कि आप निरर्थक चर्चाओं में समय न गवाएं ऐसा करने पर आपको दुःख नहीं आएगा। यह बात ठीक उसी तरह है कि किसी विष बुझे तीर से किसी को घायल कर देना और फिर बाद में उससे पूछना कि यह तीर किसने बनाया है? भाई उस तीर से लगने पर उसका उपचार जरूरी है न की निरर्थक की बातों में समय गंवाना। कई लोग, कई तरह की बेतुकी बातों में समय को पानी की तरह बहा देते हैं बहते पानी को तो फिर भी सुरक्षित किया जा सकता है लेकिन एक बार जो समय चला गया उसे वापिस कभी नहीं लाया जा सकता। इसलिए समय को सोच समझ कर खर्च करें। यह प्रकृति की दी हुई आपके पास अनमोल धरोहर है।
बुरे समय को टालने के लिए उपदेश
शाम का समय था। महात्मा बुद्ध एक शिला पर बैठे हुए थे। वह डूबते सूर्य को एकटक देख रहे थे। तभी उनका शिष्य आया और आया और गुस्से में बोला, गुरुजी ‘रामजी‘ नाम के जमींदार ने मेरा अपमान किया है। आप तुरंत चलें, उसे उसकी मूर्खता का सबक सिखाना होगा। महात्मा बुद्ध मुस्कुराकर बोले, ‘प्रिय तुम बौद्ध हो, सच्चे बौद्ध का अपमान करने की शक्ति किसी में नहीं होती। तुम इस प्रसंग को भुलाने की कोशिश करो। जब प्रसंग को भुला दोगे, तो अपमान कहां बचेगा?‘। लेकिन तथागत, उस धूर्त ने आपके प्रति भी अपशब्दों का प्रयोग किया है। आपको चलना ही होगा। आपको देखते ही वह अवश्य शर्मिंदा हो जाएगा और अपने किए की क्षमा मांगेगा। बस, मैं संतुष्ट हो जाउंगा। महात्मा बुद्ध समझ गए कि शिष्य में प्रतिकार की भावना प्रबल हो उठी है। इस पर सदुपदेश का प्रभाव नहीं पड़ेगा। कुछ विचार करते हुए वह बोले, अच्छा वत्स! यदि ऐसी बात है तो मैं अवश्य ही रामजी के पास चलूंगा, और उसे समझाने की पूरी कोशिश करूंगा। बुद्ध ने कहा, हम सुबह चलेंगे। सुबह हुई, बात आई-गई हो गई। शिष्य अपने काम में लग गया और महात्मा बुद्ध अपनी साधना में। दूसरे दिन जब दोपहर होने पर भी शिष्य ने बुद्ध से कुछ न कहा तो बुद्ध ने स्वयं ही शिष्य से पूछा- प्रियवर! आज रामजी के पास चलोगे न?‘ नहीं गुरुवर! मैंने जब घटना पर फिर से विचार किया तो मुझे इस बात का आभास हुआ कि भूल मेरी ही थी। मुझे अपने कृत्य पर भारी पश्चाताप है। अब रामजी के पास चलने की कोई जरूरत नहीं। तथागत ने हंसते हुए कहा, ‘यदि ऐसी बात है तो अब अवश्य ही हमें रामजी महोदय के पास चलना होगा। अपनी भूल की क्षमा याचना नहीं करोगे।‘
जब बुद्ध को मिला ज्ञान
बोधगया से करीब 10 किमी की दूरी पर स्थित ढूंगेश्वरी पहाड़ी में प्रागबोधि गुफा है. यहां राजकुमार सिद्धार्थ ने ज्ञान की खोज में छह वर्षों तक तपस्या हिंदू साधना की पराकाष्ठा हठयोग के तहत की थी. बताया जाता है कि अपने कुछ शिष्यों के साथ उन्होंने यहां छह वर्षों तक घोर साधना की और तब उन्होंने खाना-पीना भी छोड़ दिया था. भोजन न मिलने के कारण उनका शरीर कंकाल का रूप धारण कर लिया था और आज भी यहां कंकाल बुद्धा के रूप में बुद्ध की मूर्ति स्थापित है. बौद्ध श्रद्धालु यहां आकर कंकाल बुद्धा का दर्शन करना नहीं भूलते. चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी प्रागबोधि गुफा का वर्णन किया है. कहा जाता है कि ढूंगेश्वरी पहाड़ी से साधना के बाद संतुष्ट नहीं होने पर सिद्धार्थ ने पहाड़ की तलहटी से होते हुए मुहाने नदी पार की और तब नदी के कछार पर स्थित सेनानी ग्राम में एक बरगद के पेड़ के नीचे विश्राम किया. उनके साथ उनके शिष्य भी थे. इसी दरम्यान सेनानी ग्राम की युवती सुजाता ने उन्हें खीर खिलायी. कहा जाता है कि इसके बाद ही उन्हें मध्यम मार्ग का ज्ञान हुआ और उन्होंने कहा कि शरीर भी जरूरी है. कहा जाता है कि तब उनके विचार में एक भाव आया, जिसमें कहा गया कि वीणा के तार को इतना मत ढीला छोड़ो कि संगीत ही न निकले और इतना भी न कसो कि वह टूट जाये. इस कारण मध्यम मार्ग अपनाना ही उचित होगा. बाद में यहां एक विशाल स्तूप का निर्माण किया गया, जिसे दो-तीन दशक पहले खुदाई के बाद जीर्णोद्धार कर वर्तमान स्थिति में संरक्षित किया गया है. बौद्ध श्रद्धालु इस विशाल बौद्ध स्तूप को देखना नहीं भूलते.
सुजाता ने जगाई अलख
ध्यान मुद्रा में पीपल के पेड़ के नीचे बैठे भगवान बुद्ध के चरणों के पास बैठी महिला वही सुजाता है जिसने भगवान बुद्ध को वैशाख पूर्णिमा के दिन खीर खिलाई थी। इसी दिन उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई, जिसकी तलाश में वह वर्षों से भटक रहे थे, शरीर को यातनाएं दे रहे थे, उपवास रख रहे थे। सुजाता को हम केवल उस महिला के रूप में जानते हैं, जिसने बुद्ध को खीर खिलाई थी। हालांकि, उनका योगदान बस इतना भर ही नहीं है। सुजाता की खीर ने भगवान बुद्ध के जीवन को नई दिशा दी। अनुत्तरित प्रश्नों का उत्तर तलाशने के लिए पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल को छोड़ राजकुमार सिद्धार्थ से बुद्ध एक भिक्षु बन गए थे। कठोर तप और हठयोग के कारण शरीर से दुर्बल हो चुके बुद्ध को उस खीर से जीवन के प्रति संतुलित नजरिया मिला। तभी तो उन्होंने मध्यम मार्ग चुना यानी जीवनमयी संगीत के लिए वीणा के तारों को इतना भी न कसो कि वे टूट जाएं और इतना भी ढीला न छोड़ो कि उनसे कोई स्वर न निकले। बौद्ध ग्रंथों से लेकर सांची और भरहुत स्तूप के तोरण और दीवारों पर उकेरी गई बुद्ध की जातक कथाओं में स्थान पाने वाली सुजाता को बस हम इतना ही जानते हैं कि उसने जिस दिन भगवान बुद्ध को खीर खिलाई थी उसी वैशाख पूर्णिमा की रात उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। बौद्ध कथाओं और ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार सुजाता बोधगया के पास सेनानी गांव के ग्राम प्रधान अनाथपिंडिका की पुत्र वधू थी। स्वभाव से उद्दंड, चंचल और अहंकारी स्वभाव वाली सुजाता ने मनौती मांग रखी थी कि पुत्र होने पर वह गांव के वृक्ष देवता को खीर चढ़ाएगी। पुत्र प्राप्ति के बाद उसने अपनी दासी पूर्णा को उस पीपल वृक्ष और उसके आसपास सफाई के लिए भेजा जिसके नीचे बुद्ध ध्यान मुद्रा में बैठे थे। पूर्णा बुद्ध को वृक्ष देवता समझ बैठी और दौड़ती हुई अपनी स्वामिनी को बुलाने गई। सुजाता ने वहां आकर बुद्ध को सोने के कटोरे में खीर अर्पण कर कहा, ‘‘जैसे मेरी पूरी हुई, आपकी भी मनोकामना पूर्ण हो।’’ हठयोग पर बैठे बुद्ध ने उरुवेला नदी में स्नान के बाद खीर ग्रहण कर 49 दिन बाद अपना उपवास तोड़ा। उसी दिन बुद्ध को लगा कि अति किसी भी वस्तु की ठीक नहीं। बौद्ध साहित्य के अनुसार ज्ञान प्राप्ति के बाद भगवान बुद्ध एक दिन सुजाता के घर गए। वहां झगड़ा हो रहा था। सुजाता के ससुर ने बताया कि उनकी बहू झगड़ालू और अहंकारी है। वह किसी का कहा नहीं मानती। बुद्ध ने सुजाता को बुलाकर उसे सात प्रकार की पत्नियों के किस्से बताकर भूल का बोध कराया। बोध होते ही सुजाता ने सबसे क्षमा मांगी। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार वह भगवान बुद्ध और उनके उपदेशों से इतना प्रभावित हुई कि अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में बौद्ध भिक्षुणी बन गई। ऐतिहासिक साक्ष्यों और बौद्ध साहित्यों के अनुसार भिक्षुणी बनी सुजाता ने भगवान बुद्ध की मौजूदगी में वैशाली के निकट एक बौद्ध विहार में अपने जीवन की अंतिम सांस ली। बौद्ध ग्रन्थ ‘थेरीगाथा’ में बौद्ध-भिक्षुणियों के साथ भिक्षुणी सुजाता का भी उल्लेख आता है।
खुद ही मनुष्य अपना स्वामी है
श्रावस्ती का एक निर्धन पुरुष हल चलाकर किसी भांति जीवन यापन करता था। वह अत्यंत दुखी था, जैसे सभी प्राणी दुखी हैं। बुद्ध की दृष्टि पड़ी, वह संन्यासी बन गया, लेकिन अतीत से उसका संबंध टूटता नहीं है। संन्यास लेने के बाद भी वह उदास रहता था। इस घटना के बाद अपनी देशना में महात्मा बुद्ध ने कहा कि मनुष्य अपना स्वामी आप है। आप ही अपनी गति है। यह सच है कि गरीब दुखी हैं अपनी गरीबी को लेकर और अमीर दुखी हैं अपनी अमीरी में। जिंदगी कब बीत गयी, पता ही नहीं चला। जब मां का देहांत हुआ, तो पता चला कि जीवन दो सांसों के बीच है। बस, मॉनिटर पर मां के दिल की धड़कन, उसकी नब्ज, उसकी सांसें सब सपाट थीं, सीधी। यानी जीवन तभी है, जब उसमें उन्नति हो, अवनति हो। अंतिम समय यही संदेश दे रहा था- बेटा, जीवन आड़ा-तिरछा हो, वह अच्छा. घबराना क्या? सेकेंड के भावों ने मुझे फ्लैशबैक में कर दिया, जहां जीवन कभी भी सीधा और सपाट नहीं रहा। कदाचित इस कारण ही जीवन के कई झंझावतों को झेल गया। बुद्ध के जीवन का सत्य था करुणा। हमारे जीवन का सत्य क्या है, कभी हमने यह सोचने का प्रयास किया है? तथागत जीवनभर यह कहते रहे कि जो मेरे पास है, ठीक उतना ही तुम भी लेकर पैदा हुए हो। हमारी बुद्धि, हमारी वाणी और चिंतन में कोई फासला नहीं है। अंतर है कि बुद्ध ने अपने जीवन के तारों को कसा, ताकि संगीत पैदा हो सके। इस संगीत को जीवन में उतारने के लिए हमें अपना सत्य खुद खोजना होगा, जैसे राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, ईसा और नानक ने खोजा था। जीवन में सत्य बहुत मिलेंगे, लेकिन वह अपना सत्य नहीं होगा। अपना सत्य खुद खोजना होगा। वह स्वयं के अनुभव से निकलेंगे। एक सत्य की खोज हो। एक ज्ञान की बात हो। वह हमारे हजारों अनुभवों का निचोड़ होंगे। आधुनिक भारत में लोग अभी तक यह समझ नहीं पाये कि उधार के ज्ञान से सत्य की खोज नहीं की जा सकेगी।
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें