लोकसभा चुनाव के परिणाम जिस तरह सामने आएं हैं, उससे सभी तरह के पूर्वानुमान धरे रह गएं। सबसे चौकाने वाला परिणाम यूपी का रहा, जिसकी कानून व्यवस्था में सुधार के यूपी मॉडल का प्रचार पूरे देश में चर्चा है। अब तो कई भाजपा शाशित राज्य लॉ एंड आर्डर मेंटेन करने के लिए योगी बाबा के बुलडोजर संस्कृति को समय-समय पर लागू किए जाने की दुहाई भी देते है। वहां के मुख्यमंत्री खुद योगी के राह पर चलने की वचनवद्धता भी दोहराते रहते है। लेकिन उसी यूपी में भाजपा दो शहजादों की जोड़ी के सामने चारों खाने चित हो गयी, तो सवाल तो पूछे ही जायेंगे? हालांकि हार के कई कारण होते है लेकिन प्रथम दृष्टया हार की वजह भाजपा का अति आत्मविश्वास उसे ले डूबा। खासकर टिकट वितरण में लेटलतीफी, स्थानीय संगठन व नेताओं की इच्छा या मशविरा को दरकिनार प्रत्याशी थोपा जाना तो एक वजह है ही, सबसे बड़ा कारण उस संगठनात्मक ढ़ाचे की रही, जिसका लोहा विपक्ष भी मानता है। उसके संघ प्रचारकों से लेकर स्वयंसेवकों का चुनावी पिच पर कहीं दिखाई न देना। बहरहाल चुनावी बेला में विपक्ष आम जनमानस को यह समझाने में सफल रहा कि अगर भाजपा 400 पार आयी, तो एससीएसटी आरक्षण समाप्त कर देगी। जहां तक देश की सबसे हॉट सीट प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संसदीय सीट वाराणसी से जीत की मार्जिन घटने का सवाल है तो उसका बड़ा कारण शीर्ष नेतृत्व ने जिस व्यक्ति को चुनाव संचालन की जिम्मेदारी सौंपी, वह जिम्मेदारी निवर्हन के बजाय चेहरा दिखाने आएं गुजरात सहित अन्य नेताओं के सेवा सत्कार में ही अपनी पूरी ऊर्जा खपा दी सिर्फ इसलिए कि उसे व उसके चहेतों को कोई बड़ी जिम्मेदारी या ठेका मिल जायेगा। जबकि इससे उलट क्षेत्रीय मतदाताओं का कहना है बनारस के व्यापारियों के सारे कारोबार, विभागीय ठेका या अन्य कामकाज ऊर्जावान कार्यकर्ताओं की अनदेखी करते हुए गुजरातियों के हाथों सौंप दिया गया है और वे उसी काम देते है जो उन्हें अच्छी-खासी कमीशन देते है
नाम न छपने की शर्त पर भाजपा के एक कद्दावर नेता का कहना है कि पीएम मोदी के जीत की मार्जिन घटने का सबसे बड़ा कारण ढिलमुल चुनाव संचालन रहा। गुजरात, राजस्थान सहित देश के कोने कोने से आने वाले दिग्गज नेताओं की आवाभगत तो खूब हुई, लेकिन वे धरातल पर कुछ कर नहीं सके। ठेका से लेकर हर गतिविधि में कुछ लोगों के वर्चस्व से नाराज कारोबारियों, पार्टी पदाधिकारियों व कार्यकर्ताओं को संतुष्ट नहीं कर पाएं। उसका असर आम मतदातों पर भी देखने को मिला। पार्टी के जातिय नेता व ठेकदार अपनी जाति के वोट को भी नहीं दिलवा पाएं। खासकर भूमिहार, यादव व कुर्मी विरादरी तो इस बार मोदी के पक्ष में मतदान से दूरी बनाएं रही, जिसका असर जीत की मार्जिन पर पड़ा। इसके अलावा मतदाता जागरुकता के नाम पर दुसरे प्रांतो से आएं विधायकों के अलावा क्षेत्रीय सामाजिक संगठने भी सिर्फ समाचार पत्रों की सुर्खियां तो बने, लेकिन असल मतदाताओं तक नहीं पहुंच सके। एक वायरल वीडियों में तो भाजपा कार्यकर्ता बिना लाग लपेट कहता है जो लोग हार का ठिकरा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर मढना चाहते है वे पहले बताएं कि टिकट वितरण व ओमप्रकाश राजभर को एनडीए का हिस्सा बनाने से पहले उनकी राय ली गयी थी क्या? पूरे वाराणसी में जगह-जगह गुजरातियों का कब्जा है। विकास कार्यो का ठेका गुजरातियों के पास है। वे मनमाना बजट तो खर्च कर ही रहे है, उन्हीं स्थानीय लोगों को अपने से जोड़ते है, जो अच्छी-खासी रकम उन्हें कमीशन के रुप में देते है। इसके अलावा रियल स्टेट से लेकर होटल व स्थानीय कारोबार में भी उनका दबदबा बढ़ता जा रहा है, बावजूद इसके व्यापारी या कारोबारी व उद्यमी मोदी के पक्ष में मतदान किए, लेकिन जाति ठेकदारों ने शीर्ष नेतृत्व को चेहरा दिखाकर सिर्फ अपनी डगमगाती कुर्सी को सेफ किया।
सिर्फ कागजों पर रही पन्ना प्रमुखों और बूथ कमेटियों का गठन किया गया। हालांकि योगी-मोदी ने मिलकर पूरी ताकत लगाई। मोदी ने 32 और योगी ने 169 जनसभाएं कीं, फिर भी हार रोक नहीं पाएं। देखा जाएं तो जनता में पीएम मोदी के प्रति ग़ुस्सा नहीं है, बल्कि उदासीनता है। उन्हें राशन का श्रेय मिलता है लेकिन इस बार उनके नाम पर वोट पड़ता नजर नहीं आया है। यहां मोदी की तुलना में योगी ज़्यादा लोकप्रिय नजर आए हैं। उन्हें गुंडागर्दी ख़त्म करने का श्रेय मिलता है। वोटर के मन में महंगाई और बेरोज़गारी को लेकर हताशा है। तैयारी कर रहे युवाओं में भी बेचैनी है। गांवों में छुट्टे जानवर भी सबसे बड़ा मुद्दा हैं। बीजेपी के वोटर में एक चौथाई कहते नजर आएं कि उनकी उपेक्षा हो रही है।ै दुसरों दलों से आएं प्रत्याशियों को तरजीह दिया ही गया, जो लोग पार्टी से नहीं जुड़े रहे लेकिन शीर्ष नेतृत्व की खातिरदारी की उसे या तो एमएलसी बना िउया गया मेयर से लेकर सांसद विधायक बना दिया गया। जहां तक भाजपा को फर्श से अर्श पर पहुंचाने वाली उसके आनुशांगिक संगठन आरएसएस का सवाल है तो बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा द्वारा यह कहा जाना कि भाजपा आरएसएस के रहमोकरम पर नहीं है तो वो भी चुपचाप घर में बैठ गया।
इन्हीं कलहों की वजह से यूपी में बीजेपी को करारा झटका लगा है। यहां की 80 सीटों में सपा को 37, बीजेपी को 33, कांग्रेस को 6, आरएलडी को 2, आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) को एक और अपना दल (सोनेलाल) को एक सीट मिली है। सबसे चौकाने वाला नतीजा का रहा। अयोध्या के जिस राम मंदिर को भाजपा ने पूरे देश में मुद्दा बनाया था, वहां 10 साल बाद बीजेपी के लल्लू सिंह 55 हजार वोटों से सपा प्रत्याशी अवधेश प्रसाद से हार गए। जनता के बीच भी ये चर्चा जोरों पर है कि जिस अयोध्या में बीजेपी ने राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम का इतना बड़ा आयोजन किया और इस इवेंट को दुनियाभर में हाईलाइट किया, वहां से वह हार गई। इसकी बड़ी वजह जातिगत समीकरण है। अयोध्या में पासी बिरादरी बड़ी संख्या में है। ऐसे में सपा ने पासी चेहरे अवधेश प्रसाद को अयोध्या में अपना उम्मीदवार बनाया। यूपी की सियासत में अवधेश प्रसाद दलितों का एक बड़ा चेहरा हैं और उनकी छवि एक जमीनी नेता की है। सपा को अयोध्या में दलितों का खूब वोट मिला। जबकि बीजेपी उम्मीदवार लल्लू सिंह का संविधान को लेकर दिया गया उनका बयान भारी पड़ गया। लल्लू सिंह वही नेता हैं, जिन्होंने कहा था कि मोदी सरकार को 400 सीट इसलिए चाहिए क्योंकि संविधान बदलना है। इस बयान का ही परिणाम रहा कि विपक्ष ने पूरे चुनाव भर इसे मुद्दा बना दिया। हालांकि मोदी से लेकर शाह योगी तक ने समझाने का प्रयास किया ऐसी कोई बात नहीं है। संविधान का बदला जाना संभव ही नहीं है। लेकिन जनता के बीच ये मैसेज गया कि बीजेपी आरक्षण को खत्म कर देगी।
संविधान को बदल देगी। ऐसे में वोटरों का एक बड़ा तबका सपा की ओर चला गया। कहा तो यहां तक जा रहा है किक यदि मोदी योगी ब्रांड नहीं चला होता तो शायद भाजपा 240 के आसपास भी नहीं पहुंच पाती। प्रत्याशियों को लेकर उपजी नाराजगी को भी भाजपा ने बहुत हल्के में लिया। परिणाम यह हुआ कि अमेठी में केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी, सुल्तान से आठ बार सांसद बनी मेनका गांधी सहित अनेक दिग्गज धराशाई हो गए। मतलब साफ है दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी सबसे बड़े राज्य के मतदाताओं के मिजाज को समझ नहीं पाई। भाजपा अगर अगर भाजपा 405 के अपने दावों से पीछे छूट गई तो शायद उसका एक बड़ा कारण उसका आत्मविश्वास भी है। कुछ राज्यों में बड़े नेताओं को दरकिनार करना भी महंगा जरूर पड़ा होगा। सियासी दृष्टिकोण से देखें कांग्रेस और दूसरे दल जो इंडिया में शामिल हुए उन्होंने सत्ता में आने के अपने संकल्प के अनुरूप एकजुटता नहीं दिखाई। भाजपा के नेतृत्व के लिए यह सचमुच चिंता का विषय होगा कि विधानसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन देने वाली पार्टी की राजस्थान जैसे बड़े प्रदेश में आखिर लोकसभा चुनाव में क्या हो गया? जबकि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में शानदार प्रदर्शन किया कानून व्यवस्था में सुधार के लिए यूपी मॉडल का प्रचार करने वाले उत्तर प्रदेश में मतदाता क्यों उनसे इस तरह से चिक गया जबकि मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में अच्छा प्रदर्शन किया। बीजेपी को लेकर युवा वर्ग में एक गुस्सा दिखाई दिया। युवा अग्निवीर स्कीम को लेकर सरकार से सहमत नहीं दिखे। वहीं बेरोजगारी और पेपर लीक भी युवाओं के गुस्से की अहम वजह रही। इस वजह से युवाओं का वोट भी अयोध्या में बीजेपी के खिलाफ गया। हनुमान गढ़ी के महंत राजूदास ने एक्स हैंडल पर पोस्ट किया, ’अच्छा हुआ रामायण में रामजी रावण से युद्ध करने के लिए बंदरों और भालुओं को ही ले गए थे! अगर अयोध्या वालों को ले जाते तो सोने की लंका में सोने के चक्कर में रावण से भी समझौता कर लेते।’
ईडब्लूएस का मामला भी चर्चा में रहा। ईडब्लूएस में सबको 10 परसेंट आरक्षण देकर सभी लोगों को बताया गया कि हमने राजपूतों को 10 परसेंट आरक्षण दे दिया. स्वर्ण समाज को. लेकिन आप उसकी दूसरी बनागी अगर लगगावें तो उन्होंने 10 परसेंट आरक्षण देने के बाद उसमें इतनी बाउंडेशन लगा दी कि उसका एक भी व्यक्ति को आज तक लाभ नहीं मिल पाया. तो वो बड़ा आक्रोष है. क्षत्रिय युवक संघ के द्वारा उसका विरोध किया गया. राजस्थान में बार-बार हमने कहा. केंद्र सरकार से हमने कहा कि आप इसमें सरलीकरण करो. जैसे अन्य आरक्षण में बंदिशें नहीं होनी चाहिए.’ अखिलेश यादव ने चुनाव प्रचार में यूपी में पेपर लीक को मुद्दा बनाया. परीक्षाओं में हो रही देरी को भी जोर-शोर से उठाया. राज्य में पेपर लीक और बेरोजगारी के चलते युवा वोटर नाराज था. अखिलेश ने उनकी नाराजगी को आवाज दी. इतना ही नहीं, अखिलेश ने अग्निवीर योजना को कैंसिल कराने का वादा किया. सपा की जीत में यह भी बड़ा फैक्टर माना जा रहा है. अखिलेश यादव ने स्वामी प्रसाद मौर्य के विवादित बयानों खुद को और अपनी पार्टी दूर रखा. बहुत ही सधे अंदाज में सॉफ्ट हिंदुत्व की छवि बनाए रखी. अखिलेश ने राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा पर सीधे कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. इटावा में शिव मंदिर की नींव रख दी. सवर्णों वोटरर्स को साधने के लिए चंदौली से राजपूत और भदोही से ब्राह्मण प्रत्याशी उतारे.
चुनाव परिणाम ने जहां भाजपा कार्यकर्ताओं में अंदर ही अंदर उपजे असंतोष को उजागर किया है, वहीं संगठन की कमियों का भी पर्दाफाश हुआ है। इस बार न तो भाजपा संगठन की तैयारी कारगर रही और न ही मतदाताओं पर सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का ही असर हुआ। इस चुनाव से यह भी साफ हो गया है कि कार्यकर्ताओं में छाई मायूसी व असंतोष के साथ ही चुनाव प्रबंधन की कमियों ने भाजपा के 80 सीटें जीतने के लक्ष्य में सबसे बड़ी बाधा पैदा की। माना जा रहा है कि यूपी में भाजपा की बिगड़ी चाल के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार पार्टी के ही बड़े नेताओं का अति आत्मविश्वास है। जिस तरह से स्थानीय और पार्टी के काडर कार्यकर्ताओं की अनदेखी करते हुए टिकट का बंटवारा किया गया उससे भाजपा को बड़ा नुकसान हुआ। नतीजा यह हुआ कि भाजपा ने जिन 17 सांसदों का टिकट काटकर उनके स्थान पर नए चेहरे उतारे थे, उनमें से पांच उम्मीदवार हार गए। भाजपा के लिए 26 मौजूदा सांसदों की हार को भी भाजपा के लिए बड़ा संदेश माना जा रहा है। चुनाव परिणाम के मुताबिक पार्टी के बड़े नेताओं के घरों में भी भाजपा पस्त हुई है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह जैसे बड़े नेताओं के जीत की मार्जिन में भारी कमी आई है। वहीं, चुनाव लड़ने वाले सात केंद्रीय मंत्री और प्रदेश सरकार के चार में से दो मंत्री भी चुनाव हार गए। कई सीटों पर भाजपा प्रत्याशियों को कड़ा संघर्ष का भी सामना पड़ा है। देखा जाएं तो प्रदेश की 80 सीटों को जीतने के लिए भाजपा ने कई नए प्रयोग किए थे, लेकिन चुनाव परिणाम बता रहे हैं कि उनके सभी प्रयोग फेल साबित हुए हैं। सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थियों से संपर्क अभियान भी बेअसर रहा। टिफिन बैठक, विकसित भारत संकल्प यात्रा, मोदी का पत्र वितरण जैसे कई प्रमुख अभियान और सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के लाभार्थियों को साधने की कोशिश भी नाकाम साबित हुई है। पिछले चुनाव की तुलना में इस बार भाजपा की सीटें ही कम नहीं हुई हैं, बल्कि वोट प्रतिशत में भारी कमी आई है। 2019 के चुनाव में 62 सीटें जीतने वाली भाजपा को 49.97 फीसदी वोट मिले थे, लेकिन इस बार यह आंकड़ा 41.37 के करीब पहुंच गया है।
चुनाव की शुरुआत के साथ लग रहा था कि भाजपा ने प्रत्याशयिं के चयन में काफी गलतयिं की. स्थानीय लोगों के गुस्से को दरकनिर करते हुए ऐसे लोगों को टिकट दिए गए, जो मतदाताओं को शायद पसंद नहीं आए. इसलिए बहुत सारे मतदाता जो भाजपा को वोट देते आ रहे थे, उन्होंने घर से निकलना ठीक नहीं समझा. गलत कैंडडिट सलेक्शन कार्यकर्ताओं को भी पसंद नहीं आया और उन्होंने मनमुताबिक काम नहीं किया. नतीजा भाजपा को मिलने वाले मत प्रतशित में भारी गरिवट दर्ज की गई. 2019 में जहां भाजपा को तकरीबन 50 फीसदी मत मिले थे. वहीं इस बार 42 फीसदी वोट मिलता नजर आ रहा है. यानी कि मत प्रतिशत में लगभग 8 फीसदी की गरिवट आई है. चंदौली से हारे महेंद्र नाथ पांडेय भारी उद्योग मंत्री होने के बाद भी क्षेत्र में कोई बड़ा प्रोजेक्ट लाने में सफल नहीं हो सके। पांडेय से मतदाताओं की ही नहीं भाजपा के विधायकों की भी अंदरखाने नाराजगी थी। भाजपा विधायक उन्हें टिकट देने का विरोध भी किया। इसी तरह, अजय मिश्रा टेनी को लेकर भी खीरी लोस क्षेत्र में विधायकों व मतदाताओं में नाराजगी थी। इसके बाद भी पार्टी ने खीरी से चुनावी मैदान में उतार दिया था।
यही हाल अमेठी की सीट का भी था। स्मृति इरानी को लेकर भी मतदाताओं में नाराजगी थी। बस्ती से हरीश द्विवेदी को फिर टिकट देने का भी वहीं के विधायक विरोध कर रहे थे। हालांकि भाजपा का सात सीटों पर टिकट बदलने का प्रयोग सफल रहा है। इनमें बहराइच, बरेली, देवरिया, कैसरगंज, मेरठ, फूलपुर व पीलीभीत की सीटें शामिल हैं। बहराइच से आनंद कुमार गौड़, बरेली से छत्रपाल सिंह गंगवार, देवरिया से शशांक मणि, कैसरगंज, से करण भूषण सिंह, मेरठ से अरुण गोविल, फूलपुर से प्रवीण पटेल व पीलीभीत से जितिन प्रसाद ने जीत दर्ज की है। भाजपा के अधिकतर सांसद पिछले चुनावों की तरह ही इस बार भी मोदी के नाम पर चुनाव जीतने का सपना देख रहे थे। पांच वर्षों में जनता के बीच में रहने की बजाय सांसदों ने उनसे दूरी बनाए रखी। इसके चलते 26 सांसदों को हार का मुंह देखना पड़ा। सपा ने अपने मुस्लिम और यादव कोर वोट बैंक की जगह भाजपा समर्थक मानी जानी वाली पिछड़ी व दलित जातियों को टिकट में प्राथमिकता दी। सपा ने सामान्य सीटों पर दलित प्रत्याशी भी उतारा। इससे सपा का कोर वोटर तो साथ रहा ही, टिकट पाने वाले प्रत्याशियों की जातियों ने भी जुटकर साथ दिया। सपा व कांग्रेस ने आम लोगों को सीधे प्रभावित करने वाले मुद्दों में बेरोजगारी व महंगाई के साथ संविधान व आरक्षण को प्रमुखता से उठाया। इससे पार्टी को पिछड़ों व दलितों में सेंध लगाने में सफलता मिली। पेपर लीक की समस्या से युवा और छुट्टा जानवरों की समस्याओं से किसान सीधे प्रभावित थे। गठबंधन ने इन मुद्दों को उठाकर काफी हद तक समर्थन हासिल करने में सफलता हासिल की।
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी
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