आलेख : इच्छ्वाकु वंश के महान राजा सगर - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 26 जून 2024

आलेख : इच्छ्वाकु वंश के महान राजा सगर

च्वयन आश्रम पर सगर का जन्म :-    

Raja-sagar
अयोध्या के राजा बाहु का राज्य पूर्व में शकों के साथ आए हैहयों और तालजंघों ने छीन लिया था। यवन, पारद, कम्बोज, पहलव (और शक), इन पांच कुलों (राजाओं के) ने हैहयों के लिए और उनकी ओर से हमला किया। शत्रुओं ने बाहु से राज्य छीन लिया। उसने अपना निवास त्याग दिया और जंगल में चला गया। अपनी पत्नी के साथ,  राजा ने तपस्या की। उसकी पत्नी, जो यदु के परिवार की सदस्य थी , गर्भवती थी और वह उसके पीछे चली गयी थी। उसकी सहपत्नी ने गर्भ में पल रहे बच्चे को मारने की इच्छा से उसे जहर दे दिया था। एक बार वह राजा विकलांग होते हुए भी पानी लाने गया। वृद्धावस्था एवं कमजोरी के कारण बीच में ही उनका निधन हो गया। उसने अपने पति की चिता को अग्नि दी और उस पर चढ़ गयी। भार्गव वंश के ऋषि और्व को दया आ गई उसने  रानी को सती होने से रोक दिया। वह रानी को अपने आश्रम पर ले आये । परन्तु गर्भ पर उस विष का कोई प्रभाव नहीं पड़ा; बल्कि उस विष को लिये हुए ही एक बालक का जन्म हुआ, जो 'गर' ( = विष)के साथ पैदा होने के कारण ‘सगर’ कहलाया। बालक का जन्म उसके शरीर में जहर के साथ हुआ था। उसके साथ ही उसकी माँ को दिया गया विष भी बाहर निकाल दिया गया। 


संस्कार और शिक्षा:- 

वैदिक शास्त्रों के अनुसार, पिछले युग में, सत्य युग में अवध के राजा सगर नाम के एक राजा थे, जो भगवान रामचंद्र के 13वें पूर्वज थे। और्वा ने  राजकुमार के जातकर्मण और प्रसवोत्तर अन्य पवित्र संस्कार किये। ऋषि और्व ने उसके जात - कर्म आदि संस्कार कर उसका नाम 'सगर' रखा तथा उसका उपनयन संस्कार कराया। उस पवित्र ऋषि ने अपने वर्ग की रीति के साथ उसका अभिषेक कराया। भृगु (अर्थात और्व) के पोते से आग्नेय अस्त्र (एक मिसाइल जिसके देवता अग्नि-देव हैं) प्राप्त करने के बाद राजा सगर ने पूरी पृथ्वी पर जाकर तालजंघों और हैहयों को मार डाला। निष्कलंक राजा ने शकों और पहलवों के धर्म (आचार संहिता आदि) को अस्वीकार कर दिया। और्व ने ही उसे वेद, शस्त्रों का उपयोग सिखाया एवं उसे विशेष रूप से भार्गव नामक आग्नेय शस्त्रों को प्रदान किया।उन्होंने उसे वेद और पवित्र ग्रंथ सिखाये । इसके बाद, उन्होंने उसे मिसाइलों और चमत्कारी हथियारों को छोड़ना सिखाया।


वंश परंपरा की जानकारी:- 

एक बार यादवी ( नंदनी) को यह सुनकर रोना आ गया कि लड़का ऋषि को 'पिता' कह रहा है और जब उसने उससे उसके दुख के बारे में पूछा तो उसने उसे उसके असली पिता और विरासत के बारे में बताया। बुद्धि का विकास होने पर उस बालक ने अपनी मातां से कहा - 

" माँ ! यह तो बता, इस तपो वन में हम क्यों रहते हैं और हमारे पिता कहाँ हैं ? ' इसी प्रकार के और भी प्रश्न पूछने पर माता ने उससे सम्पूर्ण वृतान्त कह दिया । सगर ने अपना जन्मसिद्ध अधिकार वापस पाने की कोशिश की। उसके बाद राजा ने शक, यवन, काम्बोज, पारद और पहलवों को नष्ट करने का निश्चय किया। 


जनता के दबाव में अपना राज्य वापस लिया:- 

अयोध्या के लोग , जो तालजंघा से भयभीत रहते थे, वशिष्ठ की सलाह पर चले गए , जिन्होंने उन्हें सलाह दी कि वे सगर को वापस लाकर राज्य पर कब्ज़ा कर लें। लोगों ने अपनी दलील सगर तक पहुँचाने के लिए पाँच दिनों तक और्व के आश्रम के बाहर प्रतीक्षा की। ऋषि के आशीर्वाद से और लोगों के साथ, सगर ने तालजंघा से युद्ध किया, उसका राज्य पुनः जीता और खुद को राजा घोषित किया। तब तो पिताके राज्य का अपहरण को सहन न कर सकने के कारण उसने हैहय और तालजंघ आदि क्षत्रियों को मार डालने की प्रतिज्ञा की और प्रायः सभी हैहय एवं तालजंघ वंशीय राजाओं को नष्ट कर दिया। यह बड़ा प्रतापी राजा था। उसने पहले तो हैहयों और तालजंघों को मार भगाया फिर शकों, यवनो, पारदों और पह्नवों को परास्त किया। उसके पश्चात शक, यवन, काम्बोज, पारद और पह्लवगण भी हताहत होकर सगर के कुलगुरु वसिष्ठजीकी शरणमें गये। वसिष्ठ ने इनको जीवनमृतप्राय कर दिया और सगर से कहा कि इनका पीछा करना निष्फल है। सगर के पिता बाहु को जिन दुश्मनों ने राज्य छीन लिया था, उन तालजंघा  यवन , शक , हैहय और बर्बरों के जीवन लेने से कुमार सगर को रोका। अपनी ही प्रतिज्ञा को स्मरण करके, और उसके उपदेशात्मक वचनों को सुनकर; उनके गुरु, सगर ने जाति और अन्य विशेषताओं के उनके पारंपरिक पालन को खत्म कर दिया, और उन्हें अपना भेष और परिधान बदलने के लिए मजबूर किया। उन्होंने शकों के आधे सिर मुंडवाकर उन्हें छुट्टी दे दी। उन्होंने यवनों और कम्बोजों के सिर पूरी तरह से मुंडवा दिये। पारदों को अपने बाल बिखरे हुए रखने के लिए मजबूर किया गया और पहलवों को अपनी मूंछें और दाढ़ी बढ़ाने के लिए मजबूर किया गया। राजा सगर ने कुलगुरु की आज्ञा से इनके भिन्न वेष कर दिये, यवनों के मुंडित शिर शकों को श्रद्ध मुण्डित पारदों को प्रलम्बमान - केश युक्त और पह्नवों को श्मश्रुधारी बना दिया। यह लोग म्लेच्छ हो गये। उन सभी को उस महान आत्मा वाले राजा द्वारा वेदों के अध्ययन और वशंकार मंत्रों के उच्चारण से वंचित कर दिया गया था।


सगर की दो पत्नियाँ :- 

सगर की दो पत्नियाँ थीं जिन्होंने अपनी तपस्या से उनके पापों को दूर कर दिया था। दोनों में से बड़ी विदर्भ राज्य की राजकुमारी थी । सगर ने विदर्भ पर भी आक्रमण किया, परन्तु विदर्भराज ने अपनी बेटी केशिनी उसे देकर सन्धि कर ली। बड़ी रानी सुमति रिषि कश्यप की कन्या थी । उनकी छोटी पत्नी द्रविड़ अर्थात असुर अरिष्टनेमि की केशिनी नामक कन्या थी । वह अत्यंत गुणी थी और सौंदर्य में सारे संसार में अद्वितीय थी। चूँकि उन्हें लंबे समय तक कोई संतान नहीं हुई, इसलिए सगर अपनी दोनों पत्नियों के साथ हिमालय चले गए और भृगुप्रस्रवण पर्वत पर तपस्या करने लगे। प्रसन्न होकर भृगु मुनि ने उन्हें वरदान दिया कि एक रानी को वंश चलाने वाले एक पुत्र की प्राप्ति होगी और दूसरी के साठ हज़ार वीर उत्साही पुत्र होंगे। बड़ी रानी के एक पुत्र और छोटी ने साठ हज़ार पुत्रों की कामना की थी। सुमति के पुत्रों के चरित्र के बारे में भविष्यवाणी की गई है कि वे अधर्मी होंगे, जबकि केशिनी का पुत्र धर्मी होगा। राजा और उनकी रानियाँ अयोध्या लौट आईं और समय के साथ केशिनी ने असमंजस नामक एक पुत्र को जन्म दिया। असमंजस बहुत दुष्ट प्रकृति का था। अयोध्या के बच्चों को सताकर प्रसन्न होता था। सगर ने उसे अपने देश से निकाल दिया। कालांतर में उसका पुत्र हुआ, जिसका नाम अंशुमान था। वह वीर, मधुरभाषी और पराक्रमी था। सुमति ने एक मांस के पिंड जैसा एक तूंबी को जन्म दिया। राजा उसे फेंक देना चाहते थे किंतु तभीआकाश वाणी हुई कि इस तूंबी में साठ हज़ार बीज हैं। घी से भरे एक-एक मटके में एक-एक बीज सुरक्षित रखने पर कालांतर में साठ हज़ार पुत्र प्राप्त होंगे। इसे महादेव का विधान मानकर सगर ने उन्हें वैसे ही सुरिक्षत रखा तथा उन्हें साठ हज़ार उद्धत पुत्रों की प्राप्ति हुई। वे क्रूरकर्मी बालक आकाश में भी विचर सकते थे तथा सब को बहुत तंग करते थे।


अश्वमेध यज्ञ के दौरान सगर पुत्रों की मृत्यु:- 

राजा सगर ने विंध्य और हिमालय के मध्य यज्ञ किया। धार्मिक विजय के माध्यम से पूरी पृथ्वी पर विजय प्राप्त करने के बाद, राजा ने अश्व यज्ञ की दीक्षा ली और यज्ञ के घोड़े से विश्व की परिक्रमा करायी। सगर के पौत्र अंशुमान यज्ञ के घोड़े की रक्षा कर रहे थे। विष्णु पुराण के अनुसार , राजा सगर ने पृथ्वी पर अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिए अश्वमेध यज्ञ किया था।देवताओं के राजा इंद्र यज्ञ के परिणामों से भयभीत हो गए और इसलिए उन्होंने एक पहाड़ के पास बलि का घोड़ा चुराने का फैसला किया। वह राक्षस का रूप धारण कर घोड़ा चुरा लिया। उन्होंने घोड़े को पाताल में ऋषि कपिल के पास छोड़ दिया , जो गहन ध्यान में लीन थे। इधर सगर ने अपने साठ हज़ार पुत्रों को आज्ञा दी कि वे पृथ्वी खोद-खोदकर घोड़े को ढूंढ़ लायें। जब तक वे नहीं लौटेंगे, सगर और अंशुमान दीक्षा लिये यज्ञशाला में ही रहेंगे। सगर-पुत्रों ने पृथ्वी को बुरी तरह खोद डाला तथा जंतुओं का भी नाश किया। देवतागण ब्रह्मा के पास पहुंचे और बताया कि पृथ्वी और जीव-जंतु दर्द के मारे कैसे चिल्ला रहे हैं। ब्रह्मा ने कहा कि पृथ्वी विष्णु भगवान की स्त्री हैं वे ही कपिल मुनि का रूप धारण कर पृथ्वी की रक्षा करेंगे। सगर-पुत्र निराश होकर पिता के पास पहुंचे। पिता ने रुष्ट होकर उन्हें फिर से अश्व खोजने के लिए भेजा। हज़ार योजन खोदकर उन्होंने पृथ्वी धारण करने वाले विरूपाक्ष नामक दिग्गज को देखा। उसका सम्मान कर फिर वे आगे बढ़े। दक्षिण में महापद्म, उत्तर में श्वेतवर्ण भद्र दिग्गज तथा पश्चिम में सोमनस नामक दिग्गज को देखा। तदुपरांत उन्होंने कपिल मुनि को देखा तथा थोड़ी दूरी पर अश्व को चरते हुए पाया। उन्होंने कपिल मुनि का निरादर किया, फलस्वरूप मुनि के शाप से वे सब भस्म हो गये। बहुत दिनों तक पुत्रों को लौटता न देख राजा सगर ने अंशुमान को अश्व ढूंढ़ने के लिए भेजा। वे ढूंढ़ने- ढूंढ़ते अश्व के पास पहुंचे जहां सब चाचाओं की भस्म का स्तूप पड़ा था। जलदान के लिए आसपास कोई जलाशय भी नहीं मिला। तभी पक्षीराज गरुड़ उड़ते हुए वहां पहुंचे और कहा, “ये सब कपिल मुनि के शाप से हुआ है, अत: साधारण जलदान से कुछ न होगा। गंगा का तर्पण करना होगा। इस समय तुम अश्व लेकर जाओ और पिता का यज्ञ पूर्ण करो।” उन्होंने ऐसा ही किया।


सगर द्वारा अश्व खोजने का आदेश :- 

राजा सगर के 60,000 पुत्रों और उनके पुत्र असमंजस , जिन्हें सामूहिक रूप से सगरपुत्र (सगर के पुत्र) के रूप में जाना जाता है, को घोड़े को खोजने का आदेश दिया गया था। जब 60,000 पुत्रों ने अष्टदिग्गजों की परिक्रमा की और घोड़े को ऋषि के पासचरते हुए पाया, तो उन्होंने बहुत शोर मचाया। जैसे ही सगर पुत्रों ने अश्व घुमाया, दक्षिण- पूर्वी महासागर के तट के पास से घोड़ा चोरी हो गया और पृथ्वी के नीचे समा गया। राजा ने अपने पुत्रों से उस स्थान को पूरी तरह से खुदवा दिया। विशाल महासागर के तल को खोदते हुए, वे आदिम प्राणी, भगवान विष्णु से मिले। कपिल के रूप में, भगवान हरि के दर्शन हुए। उसके दर्शन के मार्ग में आकर और उसके तेज से पीड़ित होकर वे सब राजकुमारभगवान कपिल के क्रोध से उनके साठ हजार पुत्र भस्म हो गये। हमने सुना है कि पुण्यात्मा साठ हजार पुत्रों ने नारायण के तेजोमय तेज में प्रवेश किया। उन सब में केवल चार बेटे जीवित बचे। वे बर्हिकेतु ,सुकेतु ,धर्मरथ और वीर पंचजन थे । उन्होंने प्रभु की परंपरा को कायम रखा। हरि, नारायण ने उन्हें वरदान दिया जैसे - उनकी जाति के लिए चिरस्थायी दर्जा, सौ अश्व यज्ञ करने की क्षमता, पुत्र के रूप में सर्वव्यापी सागर और स्वर्ग में शाश्वत निवास होगा। घोड़े को अपने साथ ले जाकर नदियों के स्वामी समुद्र ने उसे प्रणाम किया। उनके इसी कार्य से उनका नाम सागर पड़ा । समुद्र से यज्ञ का घोड़ा वापस लाने के बाद, राजा ने बार-बार कुल मिलाकर एक सौ अश्व-यज्ञ किये।


भगीरथ द्वारा बाद में गंगावतरण:- 

सगर ने यह समाचार सुनकर अपने पोते अंशुमान को घोड़ा छुड़ाने के लिये भेजा। अंशुमान उसी राह से चलकर जो उसके चाचाओं ने बनाई थी, कपिल के पास गया। उसके स्तव से प्रसन्न होकर कपिल मुनि ने कहा कि “लो यह घोड़ा और अपने पितामह को दो;" और यह बर दिया कि "तुम्हारा पोता स्वर्ग से गंगा लायेगा। उस गंगा-जल के तुम्हारे चचा की हड्डियों में लगते ही सब तर जायेंगे ।" घोड़ा पाकर सगर ने अपना यज्ञ पूरा किया और जो गड्ढा उसके बेटों ने खोदा था उसका नाम सागर रख दिया । हम इससे यह अनुमान करते हैं कि सगर के बेटे सब से पहले बंगाल की खाड़ी तक पहुंचे थे और समुद्र को देखा था। कई पीढ़ियों बाद, सगर के वंशजों में से एक, भगीरथ ने पाताल से अपने पूर्वजों की आत्माओं को मुक्त करने का कार्य किया। उन्होंने देवी गंगा की तपस्या करके इस कार्य को आगे बढ़ाया और उन्हें स्वर्ग से गंगा नदी के रूप में धरती पर उतारने में सफल रहे और पाताल में 60,000 मृत पुत्रों का अंतिम संस्कार किया।


सगर द्वारा अयोध्या का त्याग:- 

अपने बेटों की मृत्यु के बाद, सगर ने अयोध्या की गद्दी त्याग दी और असमंजस के पुत्र अंशुमान को अपना उत्तराधिकारी बनाया। वह और्व के आश्रम में चले गए और अपने बेटे की राख पर गंगा को उतारने के लिए तपस्या करने  लगे।


  




आचार्य डॉ. राधे श्याम द्विवेदी 

लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, आगरा मंडल ,आगरा में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए समसामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं।) 

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