हिंदीतर-भाषाभाषी नव-लेखकों को,जो पहले से ही अपनी-अपनी भाषाओँ में लिख रहे होते हैं, हिंदी में लिखने ओर प्रेरित करने के उद्देश्य से भारत सरकार के केन्द्रीय हिंदी निदेशालय ने अपने ‘विस्तार विभाग’ के अंतर्गत कुछेक योजनायें पिछले अनेक वर्षों से चला रखी हैंI इन में से एक योजना के अनुसार ऐसे नवलेखकों का शिविर किसी अहिन्दी-भाषी प्रदेश में लगता है जिसमें हिंदीतर प्रदेशों से लगभग पच्चीस नव-लेखक/लेखिकाओं का चयन किया जाता है और उन्हें हिंदी के विद्वान लेखकों/मार्गदर्शकों द्वारा प्रशिक्षण दिया जाता हैI सात-आठ दिनों तक चलने वाले ऐसे शिविरों में नव-लेखकों की उनकी हिंदी-लेखन से जुडी उन तमाम समस्याओं का निराकरण करने का प्रयास किया जाता है जिनसे प्रायः एक अहिन्दी-भाषी नवलेखक का वास्ता पड़ता हैI मुझे ऐसे कई शिविरों में मार्गदर्शक के रूप में सम्मिलित होने का सुअवसर मिला हैIमैं ने पाया है कि ज़यादातर इन नवलेखकों के भाव अथवा विचार या यों कहिये वर्ण्य-विषय सुंदर तो होते हैं, मगर ‘अभिव्यक्ति-पक्ष’ कमजोर होता हैI हिंदी से जुड़ी व्याकरण,उच्चारण,वर्तनी आदि की अशुद्धियाँ इन नव-लेखकों में यथेष्ट मात्रा में देखने को मिलती हैं, जो स्वाभाविक हैI हिंदी इनकी स्वभाषा नहीं है,अतः सोचते ये अपनी भाषा में हैं और सृजन हिंदी में करते हैंI इस प्रक्रिया में इनकी अपनी भाषा का व्याकरण और व्याकरणिक विधान यथा लिंग,वचन,क्रिया आदि इनके जेहन पर हावी रहते हैं और फिर लिखते भी उसी के अनुसार हैंIकहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी भाषा में लिखने लायक पारंगतता उस भाषा के माहौल में रहने,रचने-पचने या फिर उस भाषाक्षेत्र में लसने-बसने से ही होती है I मेरे ऐसे कई राजस्थानी मित्र हैं जो असरदार गुजराती,बंगाली या फिर मराठी बोलते-लिखते हैं क्योंकि वे वर्षों से इन भाषा-क्षेत्रों में रहे हैं और इन्हीं क्षेत्रों में पले-बड़े हुए हैंIकुछ अपवादों को छोड़ दें तो ज्ञात होगा कि हिंदी के ख्यातनामा लेखक कभी-न-कभी,थोड़े-बहुत समय के लिए ही सही, हिंदी अंचलों में रहे हैं या फिर इन अंचलों से उनका अच्छा-ख़ासा जुड़ाव रहा हैI
यों,प्रशिक्षण द्वारा शिविरार्थियों को लाभ अवश्य होता है क्योंकि उन्हें साहित्यशास्त्र सम्बन्धी ध्यातव्य बातों के अलावा हिंदी व्याकरण, हिंदी साहित्य की परम्परा, विकास आदि की जानकारी से अवगत कराने के साथ-साथ उनकी स्वरचित रचनाओं पर चर्चा और उनका परिशोधन भी किया जाता हैIएक शिविर की बात आज तक याद हैI हमारे एक मार्गदर्शक बन्धु प्रशिक्षणर्थियों को हिंदी में लिंग-निर्धारण के नियमों को समझा रहे थेI बातचीत/चर्चा के दौरान जब उन्होंने यह समझाया कि प्रायः हिंदी के ‘ईकारांत’ शब्द स्त्रीलिंगी होते हैं तो एक शिविरार्थी, जो संभवतः दक्षिण भारत में किसी स्कूल में हिंदी के अध्यापक थे, ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया:”सर,इस नियम में एक अपवाद भी हैI पूरे हिंदी शब्दकोश में पांच शब्द: मोती,घी,पानी,हाथी और दही ऐसे शब्द हैं जो ईकारांत होते हुए भी पुलिंगी हैंI.” अध्यापकजी की बात में दम थाI सभी शिविरार्थियों के साथ-साथ हम मार्गदर्शकों के ज्ञान में भी थोड़ी-बहुत बढ़ोतरी हुयीI हिंदीतर भाषी होते हुए भी किसी-किसी शिविर में तो प्रशिक्षणर्थी पूरी तैयारी के साथ आते हैंI
एक ऐसा ही नव-लेखक शिविर बहुत पहले मणिपुर की राजधानी इम्फाल में हुआ. वहां का एक रोचक प्रसंग याद आ रहा है।आज से लगभग चार दशक पूर्व केंद्रीय हिंदी निदेशालय के पूर्व निदेशक डाक्टर रणवीर रांग्रा के साथ ऐसे ही एक शिविर में इम्फाल (मणिपुर) जाने का सुयोग बना। दिल्ली के प्रसिद्ध नाटककार प्रताप सहगल भी हमारे साथ थे. वहां हम तीनों ने कई साहित्यिक आयोजनों में भाग लिया और कई जगहों पर घूमें भी। गत वर्ष अपने दिल्ली प्रवास के दौरान मालूम पड़ा कि रांग्राजी अब इस संसार में नहीं रहे। बडे ही खुश मिज़ाज और हेल्पफुल नेचर के व्यक्ति थे।उनके साथ ली गयी एक तस्वीर को साझा कर रहा हूँ। यह तस्वीर इम्फाल (मणिपुर) में किसी स्थान पर ली गयी है।डॉ० रणवीर रांग्रा की महत्वपूर्ण पुस्तक “भारत के प्रमुख साहित्यकारों से अन्तरंग बातचीत” हिन्दी साहित्य में काफी चर्चित रही है। मणिपुर में उस समय हिंदी को समर्पित एक साहित्यिक संस्था हुआ करती थी जिसके सचिव गोपीनाथ शर्माजी होते थे। मालूम नहीं अब वे हैं कि नहीं। इसी संस्था के सौजन्य से हमारे सारे कार्यक्रम आयोजित हुए। आयोजन के वे एक तरह से निदेशक,प्रबंधक आदि सब-कुछ थे। हमारे भोजन, आवास,कार्यक्रमों के संयोजन आदि का सारा प्रबंध गोपीनाथजी के ज़िम्मे था।स्थितियां तब भी वहां पर तनावपूर्ण थीं। हमें ताकीद की गयी थी शाम ढलने के बाद हम होटल से बाहर न निकलें।जगह-जगह सुरक्षाकर्मी तैनात थे।
मुझे याद है इम्फाल के ‘पाउना बाजार’ में स्थित किसी होटल में हमारे ठहरने का प्रबंध किया गया था।हमारी किसी भी तरह की समस्या का निराकरण गोपीनाथजी अपनी टूटी-फूटी हिंदी में इस तरह से करते: "ओच्छा ओच्छा" यानी हाँ हाँ!! हमारी प्रायः हर बात और सवाल का उत्तर होता था :“ओच्छा ओच्छा”।खाना कब मिलेगा? जवाब : "ओच्छा, ओच्छा ! आज का कार्यक्रम क्या है? उत्तर “ओच्छा ओच्छा”। उनके इस ‘ओच्छा ओच्छा’ को हम सात दिनों तक मुग्धभाव से सुनते रहे और आनंद लेते रहे। दरअसल, गोपीनाथजी अधेड आयु के क्षीणकाय व्यक्ति थे, हिंदी उनकी मातृ-भाषा नहीं थी,टूटी फूटी हिंदी बोलते थे मगर हिंदी के प्रति उनका समर्पण का भाव खूब था। मणिपुर में हिंदी-प्रचार की कोई संस्था चलाते थे और शायद स्थानीय स्तर पर उनके कुछ प्रसतिस्पर्धा रखने वाले दूसरे हिंदी प्रचारक भी थे जिसकी वजह से वे परेशान-से रहते थे।कभी इधर कभी उधर हमेशा चलायमान रहते थे। करना और कहना तो वे बहुत कुछ चाहते थे मगर ज़्यादा बोल नहीं पाते थे।शायद इसीलिए "ओच्छा ओच्छा" कहकर बात को विराम लगा देते थे या बात आगे बढ़ा देते थे।वैसे यह बात उनके पक्ष में जाती है कि विषम और विपरीत परिस्थितियों के बावजूद मणिपुर जैसे अहिन्दी प्रांत में हिंदी की मशाल को ये हिंदी-प्रेमी निष्ठावान सज्ज्न ज़ोर से थामे हुए थे। मणिपुर में हम मोइरांग भी गए।मोइरांग में नेताजी सुभाषचंद्र बोस की कांस्य प्रतिमा स्थापित है और यहीं पर भारतीय राष्ट्रीय सेना संग्रहालय भी है। इस संग्रहालय में नेताजी से और उनके आंदोलन से संबंधित पत्र, चित्र, रैंक के बैज और अन्य लेख प्रदर्शित हैं।नेताजी की अगुवाई में बनी आजाद हिंद सरकार ने पूर्वी भारत को भारत की आजादी का प्रवेश-द्वार बनाया था।कहते हैं १४ अप्रैल 1944 को कर्नल शौकत अली मलिक की अगुवाई में मणिपुर के मोइरांग में आजाद हिंद फौज ने तिरंगा फहराया था।
डा० शिबन कृष्ण रैण
(पूर्व-अध्येता भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान,राष्ट्रपति-निवास,शिमला
पूर्व-सीनियर फेलो,संस्कृति मंत्रालय,भारत-सरकार)
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