अमरनाथ यात्रा 29 जून से शुरू होने जा रही है. अमरनाथ यात्रा करीब 2 महीने यानी 62 दिन तक चलेगी. आषाढ़ पूर्णिमा से शुरू होने वाली बाबा अमरनाथ की यात्रा श्रावण पूर्णिमा तक चलती है. इस दौरान लाखों शिवभक्त बाबा के दरबार में पहुचते हैं और बाबा के चमत्कार के साक्षी बनते हैं. देखा जाएं तो देशभर में शिवजी के कई तीर्थ स्थान हैं। उनमें से सर्वाधिक महत्वपूर्ण तीर्थ है अमरनाथ गुफा। इसे तीर्थो का तीर्थस्थल कहा जाता है, क्योंकि यहीं पर भगवान शिव ने माता पार्वती को अमरत्व के रहस्य की जानकारी दी थी। इस गुफा में बर्फ के रुप में प्रकट होने वाले भगवान भोलेनाथ के दर्शन के लिए विभिन्न भागों से पहुंचने वाले श्रद्धालुओं को समुद्र तल से साढ़े तेरह हजार फुट की ऊंचाई पर कठिन पहाड़ी रास्तों से गुजरना पड़ता है। यहां तक कि बर्फ से ढकी पहाडियों के बीच कई स्थानों पर सांस लेने के लिए पर्याप्त आक्सीज तक नहीं मिलती, लेकिन महादेव के दर्शनों की अभिलाषा, आस्था और एक विशेष शक्ति लोगों के कदमों को गति देती है और वे हर-हर महादेव के जयघोषों के बीच बर्फीले रास्तों को पार कर अमरनाथ गुफा तक पहुंचते हैं। वहां भगवान शिव के दर्शन कर असीम सुख और कृपा का अहसास करते हैं। कहते है बाबा अमरनाथ दर्शन काशी में लिंग दर्शन और पूजन से दस गुना, प्रयाग से सौ गुना और नैमिषारण्य से हजार गुना पुण्य देने वाले है
अमरनाथ की अमरकथा
इस कथा का नाम अमरकथा इसलिए है क्योंकि इसको सुनने से शिवधाम की प्राप्ति होती है। कहते है शुकदेव जब नैमिषारण्य गए तो वहां ऋषियों ने उनका बड़ा आदर सत्कार किया और उनसे अमरकथा सुनाने का आग्रह किया। शुक ने अपनी तारीफ से खुश होकर अमर कथा सुनानी आरंभ कर दी। कहा जाता है कि जैसे ही कथा आरंभ हुई तो कैलाश पर्वत, क्षीर सागर और ब्रह्मलोक भी हिलने लगे। ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा समस्त देवता उस स्थल पर पहुंचे जहां पर अमर कथा चल रही थी। तब भगवान शंकर को स्मरण हुआ कि यदि इस कथा को सुनने वाले अमर हो गए तो पृथ्वी का संचालन बंद हो जाएगा और फिर देवताओं की प्रतिष्ठा में अंतर आ जाएगा। इसीलिए भगवान शंकर क्रोध में आ गए और उन्होंने श्राप दिया कि जो इस कथा को सुनेगा वह अमर नहीं होगा परंतु वह शिव लोक अवश्य प्राप्त करेगा।
पहलगाम
प्रकृति की गोद में बसे पहलगाम से अमरनाथ यात्रा की शुरुआत होती है। कहा जाता है कि पहलगाम से पवित्र गुफा तक का मार्ग संसार की सुंदरतम पर्वत मालाओं का मार्ग है जो अक्षरशः सत्य है। इसमें हिमानी घाटियां, ऊंचाई से गिरते जलप्रपात, बर्फ से ढके सरोवर, उनसे निकलती सरिताएं, फिर उन्हें पार करने के लिए प्रकृति द्वारा निर्मित बर्फ के पुल। यात्री इन सब को मंत्रमुगध होकर देखते हैं और वातावरण में अजीब सी शांति महसूस करते हैं। अठखेलियां करती लिद्दर नदी के किनारे बसा एक छोटा सा कस्बा पहलगाम के नाम से जाना जाता है। यहीं से यात्रा के लिए आवश्यक उचित सामान मूल्य या किराए पर मिल जाता है। टैंटों, खच्चर, पालकी तथा पिट्ठू का इंतजाम भी यहीं से हो जाता है जिनका सरकारी तौर पर दाम होता है। वैसे तो रास्ते में स्वयंसेवी संगठनों द्वारा लंगर लगाए गए होते हैं, फिर भी यात्रियों को अपने साथ कुछ जलपान का सामान ले जाना चाहिए।
चंदनबाड़ी
पहलगाम से श्रावण पूर्णिमा से तीन दिन पहले, शिव की प्रतीक पवित्र छड़ी के नेतृत्व में ढोल-ढमाकों, दुदुंभियों और ‘हर-हर महादेव’ के जयघोष के बीच साधु-संतों की टोलियों के साथ यात्री अगले पड़ाव चंदनवाड़ी की ओर बढ़ते हैं। यह पहलगाम से 16 किमी दूर है। चंदनवाड़ी 9500 फुट की ऊंचाई पर पहाड़ी नदियों के संगम पर एक सुरम्य घाटी है और लिद्दर नदी पर बना बर्फ का पुल आकर्षण का मुख्य केंद्र होता था लेकिन अब अधिक तापमान के कारण उसके दर्शन दुर्लभ हो गए हैं। यहीं पर जलपान करके तथा थोड़ा विश्राम करके आगे की कठिन चढ़ाई ‘पिस्सू घाटी’ की ओर बढ़ा जाता है। पहलगाम से चंदनवाड़ी कार या टैक्सी में एक घंटे के भीतर पहुंचा जा सकता है।
शेषनाग
चंदनवाड़ी से 13 किमी दूर है शेषनाग। पिस्सू टाप की कठिन चढ़ाई पार कर जोजापाल नामक चरागाह से गुजरते हुए लिद्दर के किनारे चलते हुए शेषनाग पहुंचा जा सकता है। यहां पर झील का सौंदर्य अद्भुत है। 12200 फुट की ऊंचाई पर हिमशिखरों के बीच घिरी यह हिम से आच्छादित झील, लिद्दर नदी का उद्गम स्थल है। यहां रात्रि को लोग विश्राम करके आगे की यात्रा आरंभ करते हैं।
पंजतरणी
13 किमी दूर पंजतरणी की ओर से यात्रा का दूसरा व दुर्गम चरण आंरभ होता है। फिर से शुरू होती है एक और कठिन चढ़ाई महागुनस शिखर की जो 14800 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। इस शिखर पर आक्सीजन की कमी है क्योंकि अमरनाथ यात्रा के दौरान यही शिखर सबसे ऊंचा है। आक्सीजन की कमी के कारण सांस फूलता है। हालांकि स्थान-स्थान पर चिकित्सा सहायता भी उपलब्ध रहती है। शिखर पर चढने के उपरांत पोशपथरी को पार करके 12500 फुट की ऊंचाई पर भैरव पर्वत के दामन में है पांच नदियां अर्थात पंजतरणी। यहां पर यात्री रात को विश्राम करते हैं और प्रातःकाल गुफा की ओर बढ़ते हैं जो पंजतरणी से मात्र 6 किमी की दूरी पर है। पंजतरणी से गुफा तक के मार्ग में पुनरू दुर्गम चढ़ाई का सामना करना पड़ता है। रास्ता भयानक भी है और सुंदर भी। पगडंडी से नीचे नजर जाते ही खाइयों में बहती हिम नदी को देख कर डर लगता है। फिर एक मोड़ पर गुफा का दूर से दर्शन होने पर लोग उत्साहित हो जय-जयकार करते बर्फ के पुल को पार करके पहुंचते हैं पवित्र गुफा के नीचे बहती अमर गंगा के तट पर। यहीं से स्नान करके लोग उस पवित्र गुफा में जाते हैं। लगभग 100 फुट चौड़ी तथा 150 फुट लंबी गुफा में प्राकृतिक पीठ पर हिम निर्मित शिवलिंग के दर्शन पाकर लोग अपने आप को धन्य समझते हैं। इस तरह भाग्यशाली तीर्थयात्री भगवान अमरनाथ के पावन दर्शन कर अलौकिक आनंद का अनुभव कर अपने को धन्य समझते हैं। लौटते समय यात्रीगण गुफा में से पवित्र सफेद भस्म अपने शरीर पर मलकर हर-हर-महादेव उच्चारते हुए पुनः अपने-अपने स्थान पर लौटने लगते हैं। यात्रा समाप्ति से पूर्व गुफा में रहने वाले कबूतरों को देख यात्री ‘जय’ शब्द अवश्य उच्चारित करते हैं, जो शिव स्वरूप हो जाते हैं। ये शिवगण कबूतर यात्रियों के ‘विघ्रहरण’ माने जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि अगर गुफा स्थित होकर इन कबूतरों को बिना देखे जो नीचे उतरता है, उन्हें ‘तीर्थद्रोह’ का पाप लगता है व उनकी यात्रा अधूरी समझी जाती है।
छड़ी मुबारक
अमरनाथ यात्रा ‘छड़ी मुबारक’ के साथ चलती है, जिसमें यात्री एक बहुत बड़े जुलूस के रूप में अपनी यात्रा आरंभ करते हैं। इसमें अनगिनत साधु भी होते हैं, जो अपने हाथों में त्रिशूल और डमरू उठाए, ’बम-बम भोले तथा जयकारा वीर बजरंगी-हर हर महादेव’ के नारे लगाते हुए बड़ी श्रद्धा तथा भक्ति के साथ आगे-आगे चलते हैं। ‘छड़ी मुबारक’ हमेशा श्रीनगर के दशनामी अखाड़ा से कई सौ साधुओं के एक जुलूस के रूप में 140 किमी की विपथ यात्रा पर रवाना होती थी, जिसका प्रथम पड़ाव पम्पोर में, दूसरा पड़ाव बिजबिहारा में और अनंतनाग में दिन को विश्राम करने के बाद सायं को मटन की ओर रवाना होकर रात का विश्राम करके दूसरे दिन प्रातः एशमुकाम की ओर चल पड़ती थी। जब से आतंकवाद की छाया कश्मीर पर पड़ी है तभी से ‘छड़ी मुबारक’ की शुरुआत जम्मू से की जाती रही है और दशनामी अखाड़ा तथा अन्य पड़ावों पर इसके विश्राम मात्र औपचारिकता बन गए थे लेकिन गत वर्ष से यह पुनः अपनी पुरानी परंपरा के मुताबिक चल रही है। पहले यह छड़ी पहलगाम पहुंच कर दो दिन विश्राम करती थी, जहां से हजारों की संख्या में यात्री इसके साथ गुफा की यात्रा के लिए आगे बढ़ते थे लेकिन अब यह पहलगाम में इतनी देर नहीं रुकती। बल्कि आज जब तक कि यह छड़ी गुफा तक पहुंचती है, यात्री छड़ी से पहले ही अपनी यात्रा आरंभ करके वापस भी लौट आते हैं।
पौराणिक मान्यताएं
कहते है कि इस गुफा में भगवान शंकर ने माता पार्वती को अमरत्व और सृष्टि के सृजन या यूं कहे जीवन और मृत्यु के रहस्य के बारे में बताया था। दरअसल, पार्वती लगातार अपने पति से अमरत्व और सृष्टि के निर्माण का राज जानना चाहती थीं। वह जानना चाहती थी कि संसार के हर प्राणी तथा पार्वती स्वयं भी जन्म मृत्यु से बंधे हैं तो भगवान शंकर क्यों नहीं। उन्होंने देवाधिदेव माहदेव से प्रश्न किया की ऐसा क्यूं होता है की आप अजर अमर है और मुझे हर जन्म के बाद नए स्वरुप में आकर फिर से वर्षो की कठोर तपस्या के बाद आपको प्राप्त करना होता है। जब मुझे आपको ही प्राप्त करना है तो फिर मेरी यह तपस्या क्यूं? मेरी इतनी कठोर परीक्षा क्यूं? और आपके कंठ में पड़ी यह नरमुण्ड माला तथा आपके अमर होने का कारण व रहस्य क्या है? महाकाल ने पहले तो माता को यह गूढ़ रहस्य बताना उचित नहीं समझा परन्तु माता की स्त्री हठ के आगे उनकी एक न चली। अन्त्ततोगत्वा महादेव शिव को मां पार्वती को अपनी साधना की अमर कथा जिसे हम अमरत्व की कथा के रूप में जानते है, सुनाने के लिए हामी करनी पड़ी। फिर पार्वती के साथ तांडव नृत्य कर इस गुफा में मृगछाल बिछाकर बैठ गए। कथा सुनाने से पूर्व उन्होंने कालाग्नि को आदेशित किया कि वह गुफा के आसपास समस्त प्राणियों को भस्म कर दे जिससे कोई भी अमरकथा सुनकर अमर न हो जाय। भगवान ने कहा कि यह सब अमरकथा के कारण है। पार्वती ने इस अमरकथा को सुनने की जिज्ञासा प्रकट की। लेकिन भगवान शंकर उस स्थान की तलाश में थे, जहां कोई तीसरा व्यक्ति सुन न सके। इसलिए उन्होंने इस गुफा को चुना। इसके बाद मां पार्वती संग एक गुप्त गुफा में प्रवेश कर गये। कोई व्यक्ति, पशु या पक्षी गुफा के अंदर प्रवेश कर अमर कथा को न सुन सके इसलिए शिव जी ने अपने चमत्कार से गुफा के चारों ओर आग प्रज्जवलित कर दी। फिर शिव जी ने जीवन की अमर कथा मां पार्वती को सुनाना शुरू किया। कथा सुनते-सुनते मां पार्वती को नींद आ गई और वह सो गईं जिसका शिवजी को पता नहीं चला। भगवन शिव अमर होने की कथा सुनाते रहे। इस समय दो सफेद कबूतर श्री शिव जी से कथा सुन रहे थे और बीच-बीच में गूं-गूं की आवाज निकाल रहे थे। शिव जी को लग रहा था कि मां पार्वती कथा सुन रही हैं और बीच-बीच में हुंकार भर रहीं हैं। इस तरह दोनों कबूतरों ने अमर होने की पूरी कथा सुन ली। कथा समाप्त होने पर शिव का ध्यान पार्वती की ओर गया, जो सो रही थी। शिव जी ने सोचा कि पार्वती सो रही हैं तब इसे सुन कौन रहा था। तब महादेव की दृष्टि कबूतरों पर पड़ी, महादेव शिव कबूतरों पर क्रोधित हुए और उन्हें मारने के लिए तत्पर हुए। इस पर कबूतरों ने शिव जी से कहा कि हे प्रभु हमने आपसे अमर होने की कथा सुनी है यदि आप हमें मार देंगे तो अमर होने की यह कथा झूठी हो जाएगी। इस पर शिव जी ने कबूतरों को जीवित छोड़ दिया और उन्हें आशीर्वाद दिया कि तुम सदैव इस स्थान पर शिव पार्वती के प्रतीक चिन्ह के रूप निवास करोगो। यह शुक बाद में सद्योजात शुक-शिशु शुकदेव ऋषि के रूप में अमर हो गए। गुफा में आज भी कई श्रद्धालुओं को कबूतरों का एक जोड़ा दिखाई देता है, जिन्हें श्रद्धालु अमर पक्षी बताते हैं। कहते है जिन श्रद्धालुओं को कबूतरों को जोड़ा दिखाई देता है, उन्हें शिव पार्वती अपने प्रत्यक्ष दर्शनों से निहाल करके उस प्राणी को मुक्ति प्रदान करते हैं। माना जाता है कि भगवान शिव ने अर्द्धागिनी पार्वती को इस गुफा में एक ऐसी कथा सुनाई थी, जिसमें अमरनाथ की यात्रा और उसके मार्ग में आने वाले अनेक स्थलों का वर्णन था। यह कथा कालांतर में अमरकथा नाम से विख्यात हुई। कहा जाता है भगवान शिव जब पार्वती को अमर कथा सुनाने ले जा रहे थे, तो उन्होंने अपना नंदी बैल को पहलगाम (बैलग्राम) में, चंदनवाड़ी में चांद, शेषनाग में गले का सर्प, महागुनाश में अपने बेटे गणेश को और पंचतत्व (पृथ्वी, आकाश, पानी, हवा और अग्नी) जिससे मानव बना है को पंचतरणी में छोड़ा और पवित्र गुफा में विराजकर कालाग्नी के द्वारा सभी जीवित जीव को नष्ट कर मां पार्वती को अमरकथा सुनायी जो सौभाग्य से अंडे से बना कबूतर ने सुना और अमर हो गया। ये सभी स्थान अभी भी अमरनाथ यात्रा के दौरान रास्ते में दिखाई देते हैं। संगम में अमरावती एवं पंचतरणी नदी का संगम है, पंचतरणी में भैरव पहाड़ी के तलहटी में पांच नदियां बहती हैं जो भगवान शिव के जटाओं से निकलती है, ऐसी मान्यता है। इस प्रकार महादेव ने अपने पीछे जीवनदायिनी पांचों तत्वों को भी अपने से अलग कर दिया।
5000 साल पुराना है अमरनाथ यात्रा
अमरनाथ गुफा का सबसे पहले पता 5000 साल पहले यानी सोलहवीं शताब्दी के पूर्वाध में एक मुसलमान गडरिए बूटा मलिक को चला था। आज भी चौथाई चढ़ावा उस मुसलमान गडरिए के वंशजों को मिलता है। कहते है इस गड़रिए को कोई संत दिखाई दिए थे। संत ने गड़रिए को कोयले से भरी हुई एक पोटली दी थी। जब गड़रिया अपने घर पहुंचा तब पोटली के अंदर का कोयला सोना बन गया था। यह चमत्कार देखकर गडेरिया आश्चर्यचकित हो गया और संत को खोजने के लिए पुनः उसी स्थान पर पहुंच गया। संत को खोजते-खोजते उस गड़ेरिए को अमरनाथ की गुफा दिखाई दी। जब वहां के लोगों ने इस चमत्कार के विषय में सुना तो अमरनाथ गुफा को दैवीय स्थान मानाजाने लगा और यहां पूजन शुरू हो गया। हालांकि एक अन्य किंवदंती के अनुसार भृगु ऋषि ने सबसे पहले वहां शिवलिंगम के दर्शन किए थे। आश्चर्य की बात यह है कि अमरनाथ गुफा एक नहीं है। अमरावती नदी के पथ पर आगे बढ़ते समय और भी कई छोटी-बड़ी गुफाएं दिखती हैं। वे सभी बर्फ से ढकी हैं। बृंगेश सहिंता, नीलमत पुराण, कल्हण की राजतरंगिनी आदि में इस का बराबर उल्लेख मिलता है। बृंगेश संहिता में कुछ महत्वपूर्ण स्थानों का उल्लेख है जहां तीर्थयात्रियों को श्री अमरनाथ गुफा की ओर जाते समय धार्मिक अनुष्ठान करने पड़ते थे। उनमें अनन्तनया (अनन्तनाग), माच भवन (मट्टन), गणेशबल (गणेशपुर), मामलेश्वर (मामल), चंदनवाड़ी (2,811 मीटर), सुशरामनगर (शेषनाग) 3454 मीटर, पंचतरंगिनी (पंचतरणी) 3845 मीटर और अमरावती शामिल हैं। कल्हण की राजतरंगिनी तरंग द्वितीय में कश्मीर के शासक सामदीमत (34 ईपू-17वीं ईस्वी) का एक आख्यान है। वह शिव का एक बड़ा भक्त था जो वनों में बर्फ के शिवलिंग की पूजा किया करता था। बर्फ का शिवलिंग कश्मीर को छोड़कर विश्व में कहीं भी नहीं मिलता। कल्हन ने यह भी उल्लेख किया है कि अरेश्वरा (अमरनाथ) आने वाले तीर्थयात्रियों को सुषराम नाग (शेषनाग) आज तक दिखाई देता है। नीलमत पुराण में अमरेश्वरा के बारे में दिए गए उल्लेख से पता चलता है कि इस तीर्थ के बारे में छठी-सातवीं शताब्दी में भी जानकारी थी। कश्मीर के महान शासकों में से एक था जैनुलबुद्दीन (1420-70 ईस्वी) जिसे कश्मीरी लोग प्यार से बादशाह कहते थे। उसने अमरनाथ गुफा की यात्रा की थी। इस बारे में उसके इतिहासकर जोनरजा ने उल्लेख किया है। अकबर के इतिहासकर अबुल पएजल (16वीं शताब्दी) ने आइन-ए-अकबरी में उल्लेख किया है कि अमरनाथ एक पवित्र तीर्थस्थल है। गुफा में बर्फ का एक बुलबुला बनता है। जो थोड़ा-थोड़ा कर के 15 दिन तक रोजाना बढता रहता है और दो गज से अधिक ऊंचा हो जाता है। चन्द्रमा के घटने के साथ-साथ वह भी घटना शुरू कर देता है और जब चांद लुप्त हो जाता है तो शिवलिंग भी विलुप्त हो जाता है। स्वामी विवेकानन्द ने 1898 में 8 अगस्त को अमरनाथ गुफा की यात्रा की थी और बाद में उन्होंने उल्लेख किया कि मैंने सोचा कि बर्फ का लिंग स्वयं शिव हैं। मैंने ऐसी सुन्दर, इतनी प्रेरणादायक कोई चीज नहीं देखी और न ही किसी धार्मिक स्थल का इतना आनन्द लिया है। अमरनाथ तीर्थयात्रियों की ऐतिहासिकता का समर्थन करने वाले इतिहासकारों का कहना है कि कश्मीर घाटी पर विदेशी आक्रमणों और हिन्दुओं के वहां से चले जाने से उत्पन्न अशांति के कारण 14वीं शताब्दी के मध्य से लगभग तीन सौ वर्ष की अवधि के लिए यात्रा बाधित रही। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि 1869 के ग्रीष्म काल में गुफा की फिर से खोज की गई और पवित्र गुफा की पहली औपचारिक तीर्थ यात्रा तीन साल बाद 1872 में आयोजित की गई थी। इस तीर्थयात्रा में मलिक भी साथ थे। कश्मीर घाटी में पिछले दो दशकों के दौरान आतंकवाद के बावजूद अमरनाथ यात्रा निर्बाध जारी है।
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी
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