लगभग 500 से अधिक लोगों की आबादी वाले इस बस्ती में लोहार, मिरासी, कचरा बीनने वाले, फ़कीर, शादी ब्याह में ढोल बजाने वाले, बांस से सामान बनाने वाले और दिहाड़ी मज़दूरी का काम करने वालों की संख्या अधिक है. इस बस्ती में साक्षरता विशेषकर महिलाओं में साक्षरता की दर काफी कम है. माता-पिता लड़कियों को सातवीं से आगे नहीं पढ़ाते हैं. इसके बाद उन्हें कचरा चुनने के काम में लगा दिया जाता है. इस बस्ती में महिलाओं के साथ लैंगिक हिंसा और भेदभाव आम बात हो गई है. इस संबंध में बस्ती की 38 वर्षीय मीना देवी (बदला हुआ नाम) बताती हैं कि "मैं कचरा बीनती हूं और मेरा पति बेलदारी का काम करता है. मेरे 6 बच्चे हैं, जिनमें 4 लड़कियां हैं. घर की हालत ऐसी है कि किसी प्रकार गुजारा चल रहा है. पति को कभी कभी काम नहीं मिलता है. इसलिए घर की आमदनी के लिए मैं और मेरी दो बेटियां प्रतिदिन कचरा बीनने का काम करती हैं. इस काम में हाथ बंटाने के लिए उनका स्कूल जाना भी छुड़ा दिया है." वह बताती हैं कि "मेरा पति नशा कर मेरे साथ मारपीट करता था. जिसका दुष्प्रभाव बेटियों पर भी पड़ रहा था. एक दिन हिम्मत करके मैंने पुलिस को बुला लिया, जिसके बाद अब वह काफी कम मारपीट करता है.
मीना बताती हैं कि महिलाओं का पति द्वारा हिंसा का शिकार होना इतना आम है कि इससे बस्ती में किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है. बस्ती के अधिकतर पुरुष नशा कर पत्नी के साथ अत्याचार करते हैं. हालांकि इस सिलसिले में यहां कई स्वयंसेवी संस्थाएं काम कर रही हैं. जो महिलाओं को इस हिंसा के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए जागरूक कर रही हैं. लेकिन अभी भी यह पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ है. वहीं नाम नहीं बताने की शर्त पर एक अन्य महिला बताती है कि 'वह 8 वर्ष पूर्व पति और बच्चों के साथ कोटा से जयपुर के इस बस्ती में आई थी. उसका पति कबाड़ी का काम करता है जबकि वह घर के कामकाज में व्यस्त रहती है.' वह बताती है कि उसका पति रोज नशा करके उसके साथ हिंसा करता है. उसे बस्ती में काम करने वाली संस्थाओं की कार्यकर्ताओं से मिलने भी नहीं देता है. उस महिला के हाथ कई जगह से जले हुए थे. जो उसके साथ होने वाली शारीरिक हिंसा को बयां कर रही थी वह बताती है कि अक्सर बस्ती की महिलाएं उसे पति की हिंसा से बचाती हैं. कई बार उसे पुलिस की मदद लेने की सलाह भी दी जाती है, लेकिन वह ऐसा नहीं करना चाहती है.
इस संबंध में समाजसेवी अखिलेश मिश्रा बताते हैं कि "कई महिलाओं के लिए अपने पति के खिलाफ कदम उठाना बड़ी ही कठिनाई भरा काम होता है. दरअसल शिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण इस बस्ती की महिलाएं अपने अधिकारों से परिचित नहीं हो पाती हैं. जबकि सरकार द्वारा महिलाओं को लैंगिक हिंसा से बचाने के लिए कई कानून बनाए गए हैं. आईपीसी की धारा के तहत वह अपने साथ होने वाली हिंसा के खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकती हैं. इस दिशा में कई स्वयंसेवी संस्थाएं भी यहां काम कर रही हैं और महिलाओं को लैंगिक भेदभाव या हिंसा के विरुद्ध जागरूक कर रही हैं. जिसका असर भी नजर आने लगा है. अब बस्ती की कुछ महिलाएं अपने साथ होने वाली हिंसा के विरुद्ध आवाज उठाती हैं और इसके लिए पुलिस का सहारा भी लेती हैं. लेकिन अभी भी यह जागरूकता बड़े पैमाने पर फैलाने की जरूरत है." वह बताते हैं कि इस बस्ती में बालिका शिक्षा का स्तर बहुत कम है. परिवार में लड़कियों को पढ़ाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई जाती है. शिक्षा से यही दूरी उन्हें अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता से भी दूर कर देता है. वास्तव में, लिंगाधारित भेदभाव हमारे समाज के लिए एक महामारी है. जिसका सामना करने और इसे समाप्त करने के लिए सामाजिक स्तर पर सहयोग की आवश्यकता है. केवल महिलाओं के लिए जागरूकता की बात करके समाज अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं हो सकता है बल्कि उनके साथ होने वाले भेदभाव को समाप्त करने के लिए सभी को मिलकर काम करने की ज़रूरत है, ताकि एक समर्थ, समान और लिंगाधारित हिंसा तथा भेदभाव रहित समाज का निर्माण हो सके.
कविता धमेजा
जयपुर, राजस्थान
(चरखा फीचर)
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