संस्मरण : यातनाओं की मूक गवाह है सेल्युलर जेल की दीवारें और एक-एक ईंट! - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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मंगलवार, 23 जुलाई 2024

संस्मरण : यातनाओं की मूक गवाह है सेल्युलर जेल की दीवारें और एक-एक ईंट!

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अंडमान निकोबार द्वीप की राजधानी पोर्ट-ब्लेयर की यात्रा के दौरान यहाँ की सेल्युलर जेल का उल्लेख करना परम आवश्यक है।यह जेल अंग्रेजों द्वारा भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के सेनानियों को कैद में रखने और उन पर ज़ुल्म ढाने के लिए बनाई गई थी। यह जेल ‘काला पानी’ के नाम से भी कुख्यात है।अंग्रेजी सरकार द्वारा भारत के स्वतंत्रता-सैनानियों पर किए गए अत्याचारों,ज़ुल्म-सितम और यातनाओं की मूक गवाह है इस जेल की दीवारें और इन दीवारों की एक-एक ईंट! अंग्रेजी सरकार का विरोध करने वाले भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों अथवा बागियों को उम्रभर के लिए ‘काले-पानी’ अथवा सेल्युलर जेल भेजने की सजा दे दी जाती थी ताकि आगे कोई भी व्यक्ति सरकार का विरोध करने की कोशिश न करे।फौजी डॉक्टर और आगरा जेल के वार्डन जे. पी. वॉकर और जेलर डेविड बेरी की निगरानी में 'बागियों' को लेकर पहला जत्था 10 मार्च सन 1858 को एक छोटे युद्धपोत में यहाँ पहुंचा था।


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सेल्यूलर जेल की नींव 1897 ईस्वी में रखी गई थी और 1906 में यह बनकर तैयार हो गई। इस जेल में कुल 698 कोठरियां बनी थीं और प्रत्येक कोठरी 15×8 फीट की थी। इन कोठरियों में तीन मीटर की ऊंचाई पर रोशनदान बनाए गए थे ताकि कोई भी कैदी दूसरे कैदी से बात न कर सके।आक्टोपस की तरह सात शाखाओं में फैले इस विशाल कारागार के अब केवल तीन अंश बचे हैं। कारागार की दीवारों पर वीर शहीदों के नाम लिखे हैं। यहां एक संग्रहालय भी है जहां उन शस्त्रों को देखा जा सकता है जिनसे स्वतंत्रता सेनानियों पर अत्याचार किए जाते थे।इस जेल की निर्माण-लागत लगभग ₹517000 बताई जाती है। बताया जाता है कि जेल के लिए निर्माण-सामग्री बर्मा से मंगवाई गयी थी।जेल के निर्माण-कार्य में सज़ा काट रहे कैदियों से बंधक मजदूरों की तरह दिन-रात काम लिया जाता था। इतिहासकार और शोधकर्ता वसीम अहमद सईद ने अपने शोध ग्रन्थ 'काला पानीः 1857 के गुमनाम स्वतंत्रता सेनानी' में लिखा है कि ‘काला पानी’ यानी सेल्युलर जेल  एक ऐसा कैदखाना था जिसके दर-ओ-दीवार का कोई वजूद नहीं था। अगर चारदीवारी या चौहद्दी की बात की जाए तो समुद्र एक किनारा था और परिसर की बात की जाए तो उफान मारता हुआ अदम्य समुद्र दूसरा किनारा था। कैदी कैद होने के बावजूद आजाद थे लेकिन फरार होने के सारे रास्ते बंद थे और हवाएं जहरीली थीं।‘ जब कैदियों का पहला जत्था यहाँ पहुंचा तो स्वागत के लिए सिर्फ पथरीली और बेजान जमीन, घने और लम्बे पेड़ों वाले ऐसे जंगल थे जिनसे सूरज की किरणें छन कर भी धरती के गले नहीं लग सकती थीं। खुला नीला आसमन, प्रतिकूल और विषैली जलवायु, गंभीर जल-संकट और शत्रुतापूर्ण जनजातियां-ऐसा यहाँ का माहौल था।


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यहं पर यह उल्लेखनीय है कि भारत के प्रसिद्ध क्रांतिकारी, स्वतंत्रता सेनानी, समाजसुधारक, इतिहासकार, राजनेता तथा विचारक विनायक दामोदर सावरकर को 7 अप्रैल, 1911 को काला पानी की सजा देकर सेल्युलर जेल भेजा गया था । उन पर विभिन्न अधिकारियों की हत्याओं का आरोप लगाकर भारत में ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंकने की साजिश में भाग लेने का इलज़ाम लगाया गया था। सावरकर के अनुसार इस जेल में स्वतंत्रता सेनानियों को कड़ा परिश्रम करना पड़ता था। कैदियों को यहां कोल्हू में बैल की तरह जुत कर सरसों व नारियल आदि का तेल निकालना होता था। इसके अलावा उन्हें जेल के साथ लगे व बाहर के जंगलों को साफ कर दलदली भूमि व पहाड़ी क्षेत्र को समतल भी करना होता था। रुकने पर उनको कड़ी सजा व बेंत व कोड़ों से पिटाई भी की जाती थी। इतने पर भी उन्हें भरपेट खाना नहीं दिया जाता था।सावरकर 4 जुलाई, 1911 से 21 मई, 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे। उनके समर्थक उन्हें वीर सावरकर के नाम से सम्बोधित करते हैं।इनके नाम को भास्वरित करता एक सुंदर पार्क जेल-परिसर के बाहर बना हुआ है। जैसा कि कहा गया है कि में इस जेल में रहने की सज़ा को कालापानी की सज़ा भी कहा जाता था। ‘कालापानी’ शब्द की व्युत्पति संस्कृत के शब्द 'काल' से मानी जाती है, जिसका अर्थ समय या मृत्यु होता है। यानी काला पानी शब्द का अर्थ मृत्यु के उस स्थान से है, जहां से कोई भी जिंदा वापस नहीं आता था।एक मान्यता यह भी है: ‘काला पानी हिंदू धर्म में समुद्र पार करने के निषेध को दर्शाता है। इस निषेध के अनुसार, समुद्र पार करके विदेशी भूमि पर जाने से व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा खत्म हो जाती है, साथ ही उसके सांस्कृतिक चरित्र और भावी पीढ़ी का भी पतन होता है।‘


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पोर्ट ब्लेयर की इस जेल का एक आकर्षण ‘ध्वनि और प्रकाश शो’ है जो शाम को जेल-परिसर में होता है। सेल्युलर जेल के इतिहास की कहानी जानने के लिए यह शो सूचनाओं और मनोरंजन का एक अद्भुत मिश्रण है। भारत के स्वतंत्रता-संग्राम में अपनी आहुति देने वाले माँ-भारती के वीर सपूतों के बारे में रुचि रखने वालों के लिए ध्वनि और प्रकाश का यह शो निश्चित रूप से देखने योग्य है। इस शो द्वारा जेल के कैदियों की उत्पीड़न-गाथा परिसर की दीवारों पर ध्वनि और प्रकाश के अद्भुत कला-कौशल से जीवंत हो उठती है।लगभग 45 मिनट तक चलने वाला यह शो अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं में प्रदर्शित होता है। परिसर में बचे एक प्राचीन पीपल के पेड़ की आवाज़ द्वारा जेल की कहानी सुनाए जाने का विचार दर्शकों को भावुक कर उन्हें अतीत की यादों में डुबो देता है और वे अपने वीर शहीदों के उत्सर्ग और बलिदान की रोमांचक दास्ताँ सुनकर अभिभूत हो उठते हैं। जेल परिसर के अंदर कुछ जगहें हैं जिन्हें सुरक्षित रखा गया है।जैसे: वह स्थान जहाँ कैदी को सूली पर चढ़ाये जाने से पहले उसके मजहब के अनुसार रस्म आदि निभाई जाती थी,कैदी को कोड़े लगाने की जगह, कैदी द्वारा कोल्हू में जुतकर तेल निकालने की जगह आदि-आदि। भारत-माता के उन वीर सपूतों को शत-शत नमन जिन्होंने सेल्युलर जेल की काल कोठरियों में अपने जीवन के बहुमूल्य वर्ष प्राणों की आहुति देकर बिताये और हमें आज़ादी दिलाई।





 (डॉ० लेल कृष्ण रैणा)

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