क़िस्सा पत्रिका की प्रबंध संपादक मीनाक्षी सिंघानिया ने क़िस्सा पत्रिका की शुरुआती योजना और शिव कुमार शिव की इसके पीछे लगन ,निष्ठा व समर्पण की यात्रा का वर्णन किया ।उन्होंने बताया कि क़िस्सा पत्रिका का उद्देश्य नए और अनुभवी लेखकों को एक मंच प्रदान करना है जहाँ वे अपनी साहित्यिक रचनाओं को प्रस्तुत कर सकते हैं। इसके साथ ही, यह पत्रिका साहित्यिक आलोचना और समीक्षा के लिए भी जानी जाती है, जहाँ समकालीन साहित्य और सांस्कृतिक मुद्दों पर गंभीर चर्चा की जाती है। वरिष्ठ कवि कृष्ण कल्पित ने क़िस्सा के संस्थापक संपादक और साहित्यकार शिव कुमार शिव की आत्मकथा को निर्ममता से लिखी गई सच्चाई बताया। उनका कहना था कि आत्मकथा लिखना सर्वाधिक मुश्किल विधा है। क्योंकि इसमें सबसे ज़्यादा झूठ ही लिखा जाता है लेकिन शिव कुमार शिव ने अपनी आत्मकथा में साहस के साथ अपनी आत्मस्वीकृतियों को लिखा है। एक सच्चा लेखक ही यह कर सकता है। कल्पित ने कहा कि शिव कुमार शिव मूलतः क़िस्साग़ो थे । शायद इसीलिए उन्होंने अपनी पत्रिका का नाम भी क़िस्सा रखा। उनकी कहानियों के सभी पात्र दबे, कुचले समाज से आते हैं। उनके लेखन में मध्यवर्गीय मारवाड़ी जीवन का गहरा चित्रण है। वे आंचलिक कथाकार हैं । उनके यहाँ महाभारतकालीन प्राचीन भागलपुर का इतिहास , संस्कृति व समाज बसा हुआ है। वरिष्ठ साहित्यकार डॉ हेतु भारद्वाज ने कहा कि शिव कुमार शिव की आत्मकथा एक मध्यम वर्गीय व्यापारी के अपनी ज़िद्द और जुनून के सहारे शिखर पर पहुँचने की दास्तान है। कुछ पाने के लिए जिद्द भी ज़रूरी है तभी उपलब्धियाँ पाई जा सकती है उन्होंने कहा कि शिव कुमार शिव ने आत्मसम्मान से कभी समझौता नहीं किया। उनके साहित्य में राजस्थानी जीवन मुखरता से प्रकट हुआ है। उनकी भाषा बेहद सशक्त है। शिव कुमार शिव के पास भाषाओं के अंतर्संबंधों को समझने की सांस्कृतिक दृष्टि है। भाषा के सौंदर्य के लिए उनकी आत्मकथा को पढ़ा जाना चाहिए। क़िस्सा के राजस्थान केंद्रित अंक पर रजनी मोरवाल, रत्न कुमार साँभरिया व वरिष्ठ लेखक फ़ारूक़ अफ़रीदी ने अपनी बात रखी। फ़ारूक़ आफ़रीदी ने कहा कि पत्रिका यह अंक बेहद समृद्ध है और इसमें राजस्थान के लोक साहित्य पर राजाराम भादू का आलेख इस अंक को महत्वपूर्ण बनाता है।
साहित्यकार नंद भारद्वाज ने कहा कि लघु पत्रिकाएँ साहित्यिक और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का एक महत्वपूर्ण माध्यम रही हैं, विशेषकर उन विचारों और लेखन को प्रस्तुत करने के लिए जो मुख्यधारा के मीडिया में जगह नहीं पाते। लघु पत्रिकाओं का इतिहास और वर्तमान संदर्भ में यह समझना आवश्यक है कि कैसे ये पत्रिकाएँ समाज, साहित्य और संस्कृति पर प्रभाव डालती रही हैं। पहले संस्थागत प्रयासों से पत्रिकाएँ निकलती थी लेकिन अब व्यक्तिगत प्रयासों से साहित्य की रचनाशीलता को दृष्टिगत रखकर लघु पत्रिकाएँ निकल रही है। वरिष्ठ समीक्षक डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने कहा कि क़िस्सा पत्रिका के राजस्थान अंक में राजस्थान की बात कहते हुए राजस्थान के लेखक की बात कही गई है। इस अंक की बारह कहानियों में से नौ कहानियाँ स्त्री रचनाकारों की होना राजस्थान में स्त्री की हैसियत की बात करती है। राजस्थान में स्त्रियों की नकारात्मक छवियाँ बहुत गड़ी गई है लेकिन यह अंक इस भ्रम को तोड़ता है। यह कहानियाँ स्त्री की नियति को उजागर करती है और यहाँ हर स्थिति में स्त्री लड़ती हुई नज़र आती है। इन कहानियों में स्त्री अपनी बेड़ियों को तोड़ती दिखाई देती हैं। उन्होंने कहा कि यह बारह कहानियाँ राजस्थान के बारह शेड्स प्रस्तुत करती हैं।सबके शिल्प , परिवेश और प्रस्तुतीकरण अलग है। प्रलेस के अध्यक्ष गोविंद माथुर ने कहा कि आज भी, लघु पत्रिकाएँ साहित्यिक और सांस्कृतिक संवाद का एक महत्वपूर्ण मंच बनी हुई हैं। वे समकालीन मुद्दों, नई लेखन प्रतिभाओं और विचारधाराओं को सामने लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। लघु पत्रिकाएँ आज भी साहित्यकारों के लिए एक प्रयोगधर्मी और स्वतंत्र मंच प्रदान करती हैं, जहाँ वे अपने विचार और लेखन को बिना किसी व्यावसायिक दबाव के प्रस्तुत कर सकते हैं। कार्यक्रम का संयोजन डॉ अजय अनुरागी ने किया ।
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