अगर मैं बात करूं झारखंड के विकास के जमीनी हकीकत की जिस की राजनीति की धुरी ही आदिवासियों के इर्द-गिर्द घूमती रहती है, आज देश के सभी नवनिर्मित राज्यों में सबसे पीछे है। बिहार से बंटकर झारखंड मध्यप्रदेश से बंटकर छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश से बंटकर उतरांचल बना। स्वभाविक है आदिवासियों के लिए बना झारखंड पृथक राज्य के साथ ही संभावनाओं और आशंकाओं के दो धुव्र भी बन गए। संभावना थी कि जनजातीय बहुल राज्यों के आने के बाद वहां की आर्थिक सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन मजबूत होगी। आर्थिक उन्नति होगी और बिरसा के सपने झारखंड के घर घर में हकीकत बनकर उतरेंगे। माइंस और खनिज से भरपूर इस इलाके को जब प्रकृति ने ही इतनी नेमत दे रखी है तो वहां के लोगों की विकास की भला क्या चिंता। पर वास्तविकता कुछ और निकली। मौजूदा हालात यह है कि वहां के लोगों की उम्मीदें अब टूट कर बिखर रही है। स्वतंत्रता के बाद से कई सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों द्वारा आदिवासी समुदायों की आजीविका, शिक्षा और स्वास्थ्य पर ध्यान केंद्रित करके उन्हें विकसित करने के प्रयास किये गए। सात दशक बीत गए पर आज भी आदिवासी लोग भारतीय समाज के सबसे कुपोषित भाग बने हुए हैं। आदिवासी क्षेत्रों में उपलब्ध खनिज संसाधनों संसाधन सरकारी खजाने की आय के स्रोत है बाबजूद इसके यह क्षेत्र सामाजिक व आर्थिक दृष्टि से पिछड़ते जा रहे है। ऐसा क्यों?
आजादी के बाद से विकास के नाम पर विभिन्न परियोजनाओं के तहत आदिवासियों का विस्थापन होता रहा। समस्या तब और गंभीर हो गई जब संसाधनों की लूट आदिवासियों का विस्थापन और उनके जीवन की बर्बादी मौजूदा विकास मॉडल के साथ आई। आदिवासियों के जंगल जमीनों ,गांवों और संसाधनों पर कब्जा कर उन्हें दर-दर भटकने को मजबूर करने के पीछे मुख्य कारण पूंजीवादियों के साथ सांठ गांठ करने वाली हमारी सरकारी व्यवस्था रही। आदिवासी केवल अपने जंगलों या गांव से ही बेदखल नहीं हो रहे हैं बल्कि मूल्यो नैतिक अवधारणाओं जीवन शैली भाषाओं एवं संस्कृतियों से भी बेदखल कर दिए जा रहे हैं। इस बात की गंभीरता को ऐसे समझा जा सकता है कि देश की आबादी में अनुसूचित जनजाति के लोगों की तादाद 8.6% है लेकिन विकास परियोजनाओं के कारण विस्थापित होने वाले लोगों की कुल संख्या में अनुसूचित जनजाति के लोगों की तादाद 40 प्रतिशत है। जाहिर है जनजातीय लोगों को जो भारतीय संविधान की पांचवीं अनुसूची से आच्छादित हैं भूमि अधिग्रहण विस्थापन और अपर्याप्त मुआवजे का सबसे अधिक खामियाजा उन्हें ही भुगतना पड़ा है। आजादी के बाद देश में जो वन अधिनियम बने औपनिवेशिक परम्परा में बने पर एकमात्र वन अधिकार कानून 2006 एक ऐसा कानून बना जिसकी बदौलत पहली बार औपनिवेशिक काल से सरकार द्वारा वनआश्रित समुदायों के अधिकारों को छीनने की चली आ रही परम्परा को उलट कर उनके पारम्परिक अधिकारों को उनके मूल रूप मे प्रतिस्थापित करने का प्रावधान किया गया। विडम्बना यह है कि आदिवासी हित की बात और जल जंगल जमीन के बोल के साथ झारखंड में सत्ता हस्तांतरण का दौर चलता रहा। दुर्भाग्य रहा कि आदिवासियों ने अपने जिन प्रतिनिधियों को जिताकर संसद में बिठाया उन्ही लोगों द्वारा आदिवासी समाज को ही हराने की कोशिश जारी रही। झारखंड आज लुटाने पिटाने का अड्डा बन चुका है। गौर करने वाली बात यह भी है कि आज के वैश्वीकरण के दौर में वन भूमि पर कारपोरेटों की नजर भी गड़ी हुई है। स्थानीय निवासियों के परम्परागत अधिकारों को कानूनी मान्यता मिलने से इनके वन भूमि हस्तान्तरण में कठिनाइयाँ आना स्वाभाविक है। इसलिये कई प्रभावशाली वर्गों द्वारा वन अधिकार कानून 2006 को निष्क्रिय या प्रभावहीन करने के योजनाबद्ध प्रयास हो रहे हैं। नौकरशाही की मिली भगत से आदिवासियों को बलपूर्वक या डरा धमकाकर अपनी जमीन से खदेड़ा जा रहा हैं l इतिहास गवाह है कि आदिवासियों की जिंदगी उनकी संस्कृति उनके सामाजिक जीवन का ताना-बाना जंगलों के साथ इतनी गहराई से जुड़ा होता है कि वह आजीविका के साथ-साथ कभी-कभी आजीविका से ऊपर उठकर भी जंगलों को बचाने और उनके संरक्षण के लिए आवाज बुलंद करते रहे है। यहां तक कि हुकूमत की जड़े हिलाकर रख दी गई। मौजूदा समय में प्रतिरोध के माध्यम बहुत कठिन व सीमित हो गए हैं। वनों की गुणवत्ता का संरक्षण केवल वनवासियों के लिये ही नहीं बल्कि पर्यावरण की व्यापक आवश्यकता है। ऐसे समय में जब समस्त विश्व जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंतित है। जंगलों को बचाने और नए जंगल लगाने पर विचार और काम किया जा रहा है। ऐसे में जन अधिकार के प्रति गम्भीर व चिन्तित रहने वाले व्यक्तियों के लिये यह बड़ी जिम्मेदारी है कि वे वनाधिकार कानून के जनविरोधी प्रावधानों के प्रति जागरुकता फैलाएँ।
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