मुंबई से करीब 400 किमी की दूरी पर मौजूद कोल्हापुर शहर में महालक्ष्मी मंदिर लगभग 27 हजार वर्गफुट के क्षेत्र में फैला हुआ है। कहा जाता है कि इस मंदिर में महालक्ष्मी की मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा आदि शंकराचार्य ने की थी। मंदिर के बाहर लगे शिलालेख के मुताबिक यह मंदिर करीब 1800 साल पुराना है लेकिन मूर्ति का इतिहास 7000 सालों से भी अधिक पुराना बताया जाता है। इस मंदिर में देवी महालक्ष्मी की मूर्ति पर पड़ने वाली सूर्य की किरणों को यहां सबसे बड़ी खासियतों और रहस्यों में से एक माना जाता है। इस मंदिर में पूरे साल सूर्य की सीधी किरणें देवी प्रतिमा के शरीर पर जरूर पड़ती हैं। खासतौर पर 31 जनवरी से 9 नवंबर तक सूर्य की किरणें देवी प्रतिमा के चरणों पर पड़ती हैं। इसलिए कहा जाता है कि यहां मां महालक्ष्मी की आराधना करने स्वयं सूर्यदेव आते हैं। देवी की प्रतिमा पर किरणों के इस अद्भुत प्रसार को किरण उत्सव कहा जाता है, जो मंदिर के लिए बहुत खास होता है। मंदिर से मिले पुराने ताम्रपत्र और कई ग्रंथों से मिली जानकारी के अनुसार इस मंदिर का सर्वप्रथम निर्माण चालुक्य वंश के शासनकाल के दौरान राजा कर्णदेव ने 634 ई. में करवाया था। बाद में शिलहार यादव ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार 9वीं शताब्दी में करवाया था। कहा जाता है कि जब मुगलों ने इस मंदिर को नष्ट करने का प्रयास किया था तब पुजारी ने कई सालों तक मूर्ति को छिपा कर रखा था। बाद में संभाजी महाराज के शासनकाल में इस मंदिर को पुनर्जीवित किया गया। मंदिर में देवी महालक्ष्मी की प्रतिमा लगभग 4 फीट ऊंची है जिसका वजन 40 किलो है। कहा जाता है कि देवी महालक्ष्मी पूरे महाराष्ट्र की कुलस्वामिनी कहलाती हैं, जो कोल्हापुर में अंबाबाई के नाम से भी प्रचलित हैं। कोल्हापुर का महालक्ष्मी मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक है। पौराणिक मान्यता के अनुसार जहां-जहां माता सती के अंग या वस्त्र गिरे थे, उन सभी स्थानों पर शक्तिपीठ की स्थापना की गयी थी। मान्यता के अनुसार कोल्हापुर में माता सती के त्रिनेत्र गिरे थे, जहां देवी लक्ष्मी का वास होता है। इसलिए कोल्हापुर के शक्तिपीठ में देवी महालक्ष्मी के रूप में शक्ति की आराधना की जाती है। कहा जाता है कि इस मंदिर में मां दुर्गा महिषासुरमर्दनी के रूप में निवास करती हैं। मंदिर परिसर में कई अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां भी स्थापित हैं। पौराणिक कथा के अनुसार केशी राक्षश के पुत्र कोल्हासुर के अत्याचारों से परेशान होकर देवताओं ने देवी मां से उसका विनाश करने का अनुरोध किया था। तब महालक्ष्मी ने देवी दुर्गा के स्वरूप में ब्रह्मास्त्र के एक ही वार से असुर का सिर धड़ से अलग कर दिया था। लेकिन मरने से पहले कोल्हासुर ने देवी महालक्ष्मी से वरदान मांगा था कि इस स्थान को उसके नाम से ही जाना जाए। उसके बाद से ही इस स्थान का नाम कोल्हापुर पड़ गया। इस मंदिर से जुड़ी एक अन्य कथा के अनुसार एक बार भगवान तिरुपति यानी विष्णु से रुठकर उनकी पत्नी माता महालक्ष्मी कोल्हापुर आ गयी। भगवान तिरुपति ने उन्हे मनाने का काफी प्रयास किया लेकिन देवी महालक्ष्मी ने कोल्हापुर को ही अपना वास बना लिया। इसी वजह आज भी खासतौर पर दिवाली पर पहनाने के लिए तिरुपति देवस्थान से देवी महालक्ष्मी के लिए शालू आता है। तिरुपति की यात्रा तब तक अधुरी मानी जाती है, जब तक कोल्हापुर महालक्ष्मी के दर्शन ना कर लिया जाए। मंदिर परिसर के 4 दिशाओं में 4 दरवाजे हैं लेकिन मंदिर परिसर में कितने खंभे हैं, उनकी कोई गिनती नहीं कर पाता है। मंदिर प्रशासन का दावा है कि जितनी बार खंभों की गिनती करने की कोशिश की गयी, उतनी बार कोई ना कोई अनहोनी जरूर हुई। कहा जाता है कि सीसीटीवी कैमरे की मदद से भी जब गिनती करने का प्रयास किया गया तब भी नाकामी ही हाथ लगी।
शुक्रवार, 13 सितंबर 2024
कोल्हापुर महालक्ष्मी मंदिर : जहां सूर्य की किरणें करती हैं देवी की आराधना
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