दरअसल, हिंदी-प्रेम का मतलब हिंदी विद्वानों,लेखकों,कवियों आदि की जमात तैयार करना नहीं है। हिंदी-प्रेम का मतलब है हिंदी के माध्यम से रोज़गार के अच्छे अवसर तलाशना,उसे उच्च अध्ययन ख़ास तौर पर विज्ञान और टेक्नोलॉजी की पढाई के लिए एक कारगर माध्यम बनाना और उसे देश की अस्मिता व प्रतिष्ठा का सूचक बनाना ।मगर विडंबना देखिये, आए साल हिंदी दिवस पसरते जाते हैं, किन्तु हिंदी सिकुड़ती जाती है। चाहे लोकसेवा आयोगों या विश्वविद्यालयों के प्रश्न-पत्र हों या फिर सरकारी चिट्ठी-पत्री, राज-काज की मूल प्रामाणिक भाषा अंग्रेजी है। रैपिड इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स के सर्वव्यापी विज्ञापन और कुकरमुत्ते की तरह उगते इंग्लिश मीडियम के स्कूल, अंग्रेजी के साम्राज्य का डंका बजाते हैं। जहां-जहां अभिलाषा है और भविष्य है, वहां-वहां अंग्रेजी है।यों,सत्ता का व्याकरण भी कमोबेश हिंदी में नहीं अंग्रेजी में ही लिखा जा रहा है।सत्ता के गलियारों में या फिर देश के प्रतिष्ठित और उच्च संस्थानों में अंग्रेजी का ही बोलबाला है। ऐसे में राज-भाषा की परिकल्पना मात्र एक दिखावा बनकर रह गयी है।
एक बात और। हिंदी प्रचार-प्रसार सम्बन्धी कई राष्ट्रीय संगोष्ठियों में मुझे सम्मिलित होने का सुअवसर मिला है। इन संगोष्ठियों में अक्सर यह सवाल अहिन्दी-भाषी हिंदी विद्वान करते हैं कि हम तो हिंदी सीखते हैं या फिर हमें हिंदी सीखने की सलाह दी जाती है, मगर आप लोग हमारी यानी दक्षिण भारत की एक भी भाषा सीखने के लिए तैयार नहीं हैं। यह रटा-रटाया तर्क सुनते-सुनते मैं पक गया और आखिर एक सेमिनार में मैं ने कह ही दिया कि दक्षिण की कौनसी भाषा आप लोग हम को सीखने के लिए कह रहे हैं? तमिल/मलयालम/कन्नड़/या तेलुगु?और फिर उससे होगा क्या? आपके अहम् की संतुष्टि? पंजाबी-भाषी डोगरी सीखे तो बात समझ में आती है।राजस्थानी-भाषी गुजराती या सिन्धी सीख ले तो ठीक है।इन प्रदेशों की भौगोलिक सीमाएं मिलती हैं, अतः व्यापार या परस्पर व्यवहार आदि के स्तर पर इससे भाषा सीखने वालों को लाभ ही होगा।अब आप कश्मीरी-भाषी से कहें कि वह तमिल या उडिया सीख ले या फिर पंजाबी-भाषी से कहें कि वह बँगला या असमिया सीख ले क्योंकि इस से भावात्मक एकता बढेगी, तो आप ही बताएं यह बेहूदा तर्क नहीं है तो क्या है?इस तर्क से अच्छा तर्क यह है कि अलग-अलग भाषाएँ सीखने के बजाय सभी लोग देश में सब से ज्यादा बोली जाने वाली भाषा हिंदी सीख लें ताकि सभी एक दूसरे से सीधे-सीधे जुड़ सकें।
किसी भी भाषा का विस्तार या उसकी लोकप्रियता या उसका वर्चस्व तब तक नहीं बढ़ सकता जब तक कि उसे ‘ज़रूरत’ यानी ‘आवश्यकता’ से नहीं जोड़ा जाता। यह ‘ज़रूरत’ अपने आप उसे विस्तार देती है और लोकप्रिय भी बना देती है।हिन्दी को इस ‘जरूरत’ से जोड़ने की आवश्यकता है। हिन्दी की तुलना में ‘अंग्रेजी’ ने अपने को इस ‘ज़रूरत’ से हर तरीके से जोड़ा है।जिस निष्ठा और गति से हिन्दी और गैर-हिन्दी प्रदेशों में हिन्दी प्रचार-प्रसार का कार्य हो रहा है, उससे दुगुनी रफ्तार से अंग्रेजी माध्यम से ज्ञान-विज्ञान के नये-नये क्षितिज उद्घाटित हो रहे हैं जिनसे परिचित हो जाना आज हर व्यक्ति के लिए लाजिमी हो गया है। इस कथन से यह अर्थ कदापि न निकाला जाए कि मैं अंग्रेजी की वकालत कर रहा हूं।मैं सिर्फ यह रेखांकित करना चाहता हूं कि अंग्रेजी ने अपने को जरूरत से जोड़ा है।अपने को मौलिक चिंतन, मौलिक अनुसंधान व सोच तथा ज्ञान-विज्ञान के अथाह भण्डार की संवाहिका बनाया है जिसकी वजह से पूरे विश्व में आज उसका वर्चस्व अथवा दबदबा बना हुआ है।हिन्दी अभी ‘जरूरत’ की भाषा नहीं बन पाई है।आज हमें इस बात का जवाब ढूंढना होगा कि क्या कारण है अब तक उच्च अध्ययन खास तौर पर विज्ञान और तकनालॉजी, चिकित्सा शास्त्र,प्रबंधन आदि के अध्ययन के लिए हम स्तरीय पुस्तकें तैयार नहीं कर सके हैं? ग्रन्थ-अकादमियों द्वारा तैयार करायी गयी अनुवादित सामग्री से बहुत दिनों तक काम चलने वाला नहीं है। हिंदी में मौलिक चिन्तन और लेखन की अतीव आवश्यकता है तभी हमारी युवा-पीढ़ी इस भाषा को अपनाने का यत्न करेगी।
समय आगया है जब हिंदी के सर्वांगीण विकास और समृद्धि के लिए हिंदी-प्रेमियों को एकजुट होना होगा और युद्ध स्तर पर इसके लिए काम करना होगा।जो हिन्दी से सीधे-सीधे आजीविका या अन्य तरीकों से जुडे हुए हैं,वे तो हिन्दी के अनुयायी हैं ही। यह उनका कर्म है, उनका नैतिक कर्तव्य है कि वे हिन्दी का पक्ष लें,हिंदी के उन्नयन के बारे में सोचें और चिंतन करें ।मैं बात कर रहा हूं ऐसे हिन्दी वातावरण को तैयार करने की जिसमें भारत देश के किसी भी भाषा-क्षेत्र का किसान, मजदूर, रेल में सफर करने वाला हर यात्री,अलग अलग काम-धन्धों से जुडा आम-जन हिन्दी समझे और बोलने का प्रयास करे।टूटी-फूटी हिन्दी ही बोले,मगर बोले तो सही। यहां पर मैं दूरदर्शन और सिनेमा के योगदान का उल्लेख करना चाहूंगा जिसने हिन्दी को पूरे देश में लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।कई वर्ष पूर्व जब दूरदर्शन पर ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ सीरियल प्रसारित हुए तो समाचार पत्रों के माध्यम से सुनने को मिला कि दक्षिण भारत के कतिपय अहिन्दी भाषी अंचलों में रहने वाले लोगों ने इन दो सीरियलों को बड़े चाव से देखा क्योंकि भारतीय संस्कृति के इन दो अद्भुत महा-काव्यों को देखना उनकी भावनागत जरूरत बन गई थी और इस तरह अनजाने में ही हिन्दी सीखने का उपक्रम भी किया। हम ऐसा ही एक सहज, सुन्दर और सौमनस्यपूर्ण माहौल बनाना चाहते हैं जिसमें हिन्दी एक जरूरत और अभिलाषा की भाषा बने और उसे जन-जन की वाणी बनने का गौरव प्राप्त हो।
(डॉ० शिबन कृष्ण रैणा)
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