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मंगलवार, 3 सितंबर 2024

विशेष : सुदामापुरी भी मूल द्वारका का ही अंश

Sudamapuri
आमतौर पर लोग द्वारका उस क्षेत्र को समझते हैं जहां वर्तमान समय में गोमती नदी के तट पर बहुत दूर से दिखती ऊंची पताका वाला भगवान द्वारकाधीश जी का मंदिर है। लेकिन कम लोग जानते हैं कि द्वारका को तीन भागों में बांटा गया है। मूल द्वारका, गोमती द्वारका और बेट द्वारका। मूल द्वारका को सुदामा पुरी भी कहा जाता है। यहां सुदामा जी का घर था। इसे भगवान श्रीकृष्ण ने बसाया था। भगवान श्री कृष्ण के बाल सखा सुदामा जी भी यही के थे।इसलिए इसका महत्त्व सुदामा पुरी के रूप में भी खास है। सुदामा एक ब्राह्मण परिवार से थे. उनके पिता का नाम मटुका और माता का नाम रोचना देवी था। 


सुदामा का असली नाम 

 सुदामा, जिनका असली नाम कुण्डलिय था, और भगवान श्रीकृष्ण के बीच एक अच्छे दोस्ती का संबंध था। सुदामा भगवान के नीचे विद्या प्राप्त करने के बाद एक गरीब ब्राह्मण थे और उन्हें उनकी भक्ति के लिए प्रसिद्ध हैं। सुदामा की पत्नी का नाम सुशीला था। सुदामा गरीब ब्राह्मण थे और उनकी पत्नी सुशीला उन्हें कृष्ण से धन मांगने के लिए कहती थीं। लेकिन सुदामा जन्म से ही संतोषी स्वभाव के थे और किसी से कुछ नहीं मांगते थे।


ऋषि संदीपनी के गुरुकुल से मित्रता 

सुदामा समस्त वेद-पुराणों के ज्ञाता और विद्वान् ब्राह्मण थे। श्री कृष्ण से उनकी मित्रता ऋषि संदीपनी के गुरुकुल में हुई। सुदामा जी अपने ग्राम के बच्चों को शिक्षा प्रदान करते थे और अपना जीवन यापन ब्राह्मण रीति के अनुसार वृत्ति मांग कर करते थे। वे एक निर्धन ब्राह्मण थे फिर भी सुदामा इतने में ही संतुष्ट रहते और हरि भजन करते रहते| दीक्षा के बाद वे अस्मावतीपुर में रहतें थे जो बाद में सुदामापुरी के नाम से जाना जाने लगा। कहते हैं सुदामा बचपन से बहुत धनवान थे लेकिन श्रापित चने खाने की वजह से दरिद्र हो गए।


सुदामा मंदिर पोरबन्दर 

पोरबंदर के राणा साहिब महामहिम भाव सिंह जी माधव सिंहजी ने 12वीं सदी के मंदिर के स्थान पर 1902-08 में एक सुंदर सुदामा मंदिर बनवाया था। यह भारत का एकमात्र सुदामा मंदिर है।जब धन समाप्त हो गया तो सौराष्ट्र की कुछ नाटक कम्पनियों ने धन एकत्र करने के लिए नाटक प्रस्तुत किये।यह एक साधारण लेकिन बहुत ही सुंदर स्तंभ युक्त मंदिर है, जिसके शिखर पर एक विशाल स्तंभ है। मुख्य मंदिर के मध्य में सुदामा की तथा एक ओर कृष्ण की प्रतिमा है। यह सफेद संगमरमर से बना है ।मंदिर में भगवान कृष्ण की मूर्ति के साथ सुदामा जी और उनकी पत्नी शुशीला जी की मूर्ति बनी हुई है| जो विशेष रूप से नवविवाहित शाही जोड़ों के लिए एक पूजनीय स्थल है।


परिक्रमा मार्ग पर चित्रांकन 

मंदिर की परिक्रमा करते समय एक दीवार पर भगवान कृष्ण और सुदामा जी की तस्वीर बनी हुई है जिसमें सुदामा जी जब भगवान कृष्ण से मिलने के लिए जाते हैं तो भगवान आगे आकर उनके चरणों को धोकर अपने प्रिय मित्र का आदर करते हैं। यह मंदिर भी भगवान कृष्ण और सुदामा जी की दोस्ती को समर्पित है । इस मंदिर का निर्माण 12 वीं सदी में किया गया था उसके बाद महाराज भव सिंहजी ने बनाया है। यहाँ मंदिर प्रांगण में छोटी सी 84 भूल भुलैया हैं, जो सुदामा जी के द्वारिका से वापसी के बाद अपनी कुटिया खोजने की बात को याद दिलाते है। सुदामा जी द्वारिका जाते समय एक मुठ्ठी तंदुल लेकर गए थे, आज भी मंदिर में तंदुल प्रसाद के तौर पर दिए जाते है।


पूर्व जन्म में बिरजा के प्रति अनुराग

पौराणिक कथा के अनुसार, सुदामा और विराजा नाम की कृष्ण भक्त श्री कृष्ण और राधा रानी के गोलोक धाम में निवास करते थे। वह दोनों श्री कृष्ण की भक्ति और अटूट सेवा में जुटे रहते थे। कृष्ण भक्ति साथ में करते हुए एक दिन सुदामा को विराजा के लिए प्रेम की अनुभूति हुई मगर विराजा कृष्ण प्रेम में पूरी तरह चूर थी। सुदामा ने विराजा को अपने प्रेम के बारे में बताया।विराजा ने सुदामा के प्रेम को स्वीकार किया लेकिन कृष्ण भक्ति से समय बचने के बाद की शर्त के साथ। सुदामा और विराजा दोनों ने श्री कृष्ण को यह बात बताने की सोची।


राधा रानी का शाप

मगर उससे पहले ही श्री राधा रानी ने दोनों की बातें सुन लीं। राधा रानी को क्रोध आया कि गोलोक में कृष्ण भक्ति और कृष्ण प्रेम के अलावा अन्य किसी भावना का कोई स्थान नहीं। श्री राधा रानी ने सुदामा और विराजा को धरती पर पुनः जन्म लेने का श्राप दिया जिसके बाद विराजा का जन्म धर्म ध्वज के यहां तुलसी और सुदामा का राक्षस कुल में शंखचूंण के रूप में हुआ।


 शिवजी द्वारा शंखचूंण का बध 

यह वही शंखचूंण था जिसने तीनों लोकों में हाहाकार मचा रखा था और स्वर्ग से लेकर पृथ्वी तक को अपनी शक्तियों से भयभीत कर रखा था। तुलसी का शंखचूंण से विवाह हुआ था। सतीत्व की मर्यादा निभाने के कारण तुलसी का पत्नी धर्म शंखचूंण की रक्षा करता था और कोई भी उसे युद्ध में हरा नहीं पाता था। तब श्री कृष्ण की सहायता से भगवान शिव (भगवान शिव के प्रतीक) ने इसका वध किया था। इस प्रकार भगवान शिव ने सुदामा का वध किया था लेकिन उनके पुनर्जन्म में। सुदामा रूप में तो उन्हें परम भक्ति, ईश्वरी कृपा और गोलोक में कृष्ण चरण सेवा का उच्च स्थान मिला था।



 




             

आचार्य डॉ. राधेश्याम द्विवेदी 

लेखक परिचय:-

(लेखक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, में सहायक पुस्तकालय एवं सूचनाधिकारी पद से सेवामुक्त हुए हैं। वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के बस्ती नगर में निवास करते हुए सम सामयिक विषयों,साहित्य, इतिहास, पुरातत्व, संस्कृति और अध्यात्म पर अपना विचार व्यक्त करते रहते हैं। )

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