अब वक्त आ गया है “शिक्षा अधिकार कानून“ में “समान“ शब्द जोड़ने का। “समान शिक्षा अधिकार कानून“ से ही देश में राष्ट्रप्रेम की भावना जागृत होगी। काशी पहंचे वृंदावन स्थित श्री आनंदम धाम ट्रस्ट के पीठाधीश्वर ऋतेश्वर महाराज का मानना है कि समान शिक्षा अर्थात “एक देश-एक शिक्षा“ लागू करके हम राष्ट्र को न सिर्फ मजबूत कर सकते है, बल्कि धर्म, भाषा, क्षेत्र व जाति जैसे नासूर को जड़ से खत्म कर सकते है। इससे न सिर्फ भारत के सभी नागरिकों को समान अधिकार मिलेगा, बल्कि जाति धर्म भाषा क्षेत्र रंग-रूप वर्ग और जन्म स्थान के आधार पर चल रहा भेदभाव समाप्त होगा। प्रतियोगी परीक्षाओं और नौकरियों में देश के सभी युवाओं को समान अवसर मिलेगा। समान पाठ्यक्रम लागू करने से शारीरिक और मानसिक छुआछूत समाप्त होगा। प्रत्येक नागरिक को देश में कहीं भी बसने और रोजगार करने का समान अवसर मिलेगा। सीनियर रिपोर्टर सुरेश गांधी से बातचीत के दौरान रितेश्वर जी ने जर्मनी के राष्ट्रवाद की चर्चा करते हुए कहा कि पूरे वहां की शिक्षा प्रणाली ऐसी है, जिसमें राष्ट्र प्रथम है। उसी तरह हर भारतीय के मन में भारत प्रथम लाने के लिए एक देश-एक शिक्षा“ लागू करना ही होगा। इससे न सिर्फ हर बच्चे के भीतर राष्ट्र की भावना जागृत होंगी, बल्कि बच्चों के अंदर राष्ट्रप्रेम जागेगा। इसी राष्ट्रप्रेम को जगाने के लिए उन्होंने सनातन विश्व विद्यालय की स्थापना के लिए धर्म की नगरी काशी को चुना है। विश्व के कोने- कोने में जहां मनुष्य अपने अस्तित्व और जीवन के अर्थ को खोज रहा है, वहां यह विश्वविद्यालय प्रकाश की किरण बनकर मार्गदर्शन करेगा। यह एक ऐसा अद्वितीय विश्वविद्यालय होगा जहां किडजी से लेकर हायर एजुकेशन की शिक्षा उपलब्ध होगी। एक बच्चे के अक्षर ज्ञान से लेकर आधुनिक विज्ञान चाहे एआई, मशीन लर्निंग, क्वांटम कंप्यूटिंग तथा मेडिकल, आर्ट्स, कॉमर्स, साइंस, इन सब के साथ लेकर एक दिव्य विद्या पद्धति का निर्माण कर राष्ट्र के लोगों को बचाने की परिकल्पना है
सदगुरु रितेश्वर जी महराज ने कहा कि सच्चे ज्ञान का प्रचार-प्रसार करने के लिए लोगों को आध्यात्म से जुड़ने की बहुत आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि देश एक है तो संविधान भी एक होना चाहिए। उन्होंने वर्तमान शिक्षा पद्दति पर कटाक्ष करते हुए बहुसंख्यक हिंदू सनातनियों का अपना शिक्षा बोर्ड बनाने की पैरवी की. वहीं, इस मौके पर उन्होंने हिंदू संस्कृति व सनातन धर्म की संरक्षण की भी बात कही. उन्होंने कहा कि देश की शिक्षा पद्धति में सुधार होना चाहिए जब प्रत्येक अल्पसंख्यक धार्मिक लोगों का अपना पर्सनल बोर्ड है तो बहुसंख्यक हिंदू सनातनियों का अपना शिक्षा बोर्ड क्यों नहीं है. सनातन शिक्षा बोर्ड का निर्माण जल्द से जल्द होना चाहिए क्योंकि जब पूरे जड़ में दीमक लगा हो तो ऊपर ऊपर उपचार से कुछ नहीं होगा. आर्टिकल 21 के अनुसार शिक्षा 14 वर्ष तक के सभी बच्चों का मौलिक अधिकार है इसलिए पढ़ने-पढ़ाने की भाषा भले ही अलग हो लेकिन सिलेबस पूरे देश का एक समान होना ही चाहिए। “एक देश एक पाठ्यक्रम“ लागू करने से आर्टिकल 38 (2) की भावना के अनुसार समस्त प्रकार की असमानता को समाप्त करने में मदद मिलेगी और आर्टिकल 39 के अनुसार सभी बच्चों का समग्र, समावेशी और संपूर्ण विकास होगा। समान शिक्षा अर्थात समान पाठ्यक्रम लागू करने से आर्टिकल 46 के अनुसार अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और गरीब बच्चों का शैक्षिक और आर्थिक विकास होगा तथा आर्टिकल 51(।) की भावना के अनुसार देश के सभी नागरिकों में भेदभाव की भावना समाप्त होगी, आपसी भाईचारा मजबूत होगा तथा वैज्ञानिक-तार्किक और एक जैसी सोच विकसित करने में मदद मिलेगी, परिणाम स्वरूप देश की एकता अखंडता मजबूत होगी।
जब लद्दाख से लक्षद्वीप और कच्छ से कामरूप तक सिलेबस एक समान होगा, किताब एक होगी और केंद्रीय विद्यालय की तरह स्कूल ड्रेस भी एक होगा तो किताब माफियाओं, कोचिंग माफियाओं और स्कूल माफियाओं पर लगाम लगेगी और शिक्षा का खर्च 50 फीसदी कम हो जाएगा। जर्मनी, चीन सहित दुनिया के कई देशों में समान शिक्षा बहुत पहले से लागू है। इसलिए केंद्र सरकार को पूरे देश में समान शिक्षा अर्थात “एक देश एक शिक्षा“ लागू करने के लिए आवश्यक कदम उठाना चाहिए। शिक्षा द्वारा ही हम नवयुवकों में राष्ट्र प्रेम की भावना जागृत कर सकते हैं। विद्यालय मदरसा हो या गिरिजाघर हो, मंदिर हो या कन्वेंट हो शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो राष्ट्रप्रेम जागृत करें और वैश्विक समाज में उसकी अपनी अभिव्यक्ति सहज हो। क्योंकि ‘‘राष्ट्र’’ केवल जमीन का टुकड़ा मात्र नहीं होता है, बल्कि इसका निर्माण एक निश्चित भू-भाग, वहां की जनसंख्या तथा उसकी संस्कृति से मिलकर होता है। ऐसे में कहना न होगा कि राष्ट्र के लिए भू-भाग, जन एवं संस्कृति के साथ-साथ अपनी संप्रभुता भी अनिवार्य होती है। इसमें सनातन वह कड़ी है जिसका सांस्कृतिक एकत्व एक मजबूत डोर है, जिसके माध्यम से भारतवर्ष की समस्त संस्कृतियां एक दूसरे के साथ परस्पर जुड़ी हुई हैं। कही-न-कही इसी एकत्व में भारत की राष्ट्रीयता का बीज-तत्व भी निहित है। शिक्षा-व्यवस्था में राष्ट्रीयता का समावेश नहीं होने के कारण ही राष्ट्रीय स्तर पर कई प्रकार की विसंगतियां देखी जा सकती है। सैकड़ों वर्षो तक हम पराधीन रहे है। जिसका परिणाम यह हुआ कि आज पराधीनता की छाया को झेलने के लिए विवश है। परंतु, इसके लिए हमारी अपनी इच्छा - शक्ति का शिथिल पड़ जाना भी एक महत्वपूर्ण कारक है, जिसके कारण हम राजनीति रूप से तो स्वतंत्र हो गए परंतु सांस्कृतिक रूप से आज भी औपनिवेशिक कुडे को ढ़ो रहे है। यही कारण है कि मैकॉले शिक्षा-नीति को बारम्बार कोसने के अलावा हमारे पास कोई रास्ता नहीं दिखता है जबकि सच तो यह है कि स्वतंत्रता के बाद भी शिक्षा में राष्ट्रीयता के समावेश हेतु कोई ठोस प्रयास दृष्टिगोचार नहीं होता है।
सद्गुरु ऋतेश्वर जी महाराज ने कहा सनातन संस्कृति के बिना विकसित भारत की कल्पना अधूरी है. देश में शिक्षा के विकास के लिए सनातन बोर्ड का निर्माण जरूरी है. इसलिए देश में शिक्षा के विकास के लिए सनातन बोर्ड का निर्माण किया जाये. मैकाले की शिक्षा पद्धति से देश का विकास नहीं हो सकता है. संघर्ष में जीवन नहीं है. आनंद में जीवन समाहित है. हम यदि खुश रहेंगे, तभी अपने जीवन को बेहतर तरीके से सुखमय रहकर जी सकते हैं. वर्तमान शिक्षा के चलते ही आज बाप बड़ा ना भईया, सबसे बड़ा रुपईया हो गया है। इस शिक्षा के चलते ही पाश्चात्य संस्कृति को बढ़ावा मिला है, जो अब सोशल मीडिया में हमारे संस्कार की धज्जियां उड़ाते देखा जा सकता है। सद्गुरू ऋतेश्वर महाराज ने सरकार से अपील की है कि किसी भी राष्ट्र की संस्कृति को बचाने के लिए राष्ट्रवादियों के नाम पर ही वहां के प्रतीक चिन्हों के नाम होने चाहिए। सभी राजनीतिक दलों और भारतवासियों को मिलकर देश की महान विभूतियों के नाम पर सड़कों और भवनों के नाम रखे जाने चाहिए। किसी भी स्थानीय धरोहर और सड़कों के नाम वहां के वीरों और नायकों के नाम पर होने चाहिए। ऐसे में हम महान भारत के अस्तित्व और संस्कृति को लंबे समय तक बचा के रखेंगे। उन्होंने कहा- ये लोग भगवान को मांस खाने वाला मान रहे हैं। जबकि, वाल्मिकी रामायण की चौपाइयों में ममसा या मनसा का तात्पर्य घने वनों में मिलने वाले फल, गूदा और कंदमूल से है।
दक्षिण भारतीय मंदिर शहर श्री रंगम में जब पुजारी भगवान रंगनाथ को आम का प्रसाद चढ़ाते हैं, तो वे मंत्रोच्चारण करते हैं- “इति आम्र ममसा खंड समर्पयामिः“, अर्थात् मैं भगवान को सेवन करने के लिए आम-ममसा (आम का मांस यानि मूल) चढ़ाता हूं। हमें पता होना चाहिए कि वे फल के गूदे को संदर्भित करते हैं। उन्होंने कहा कि सनातन संस्कृति विराट है। किसी की भावना का अनादर नहीं होना चाहिए। भारत ने सती प्रथा समाप्त की है। वहीं, जाति-व्यवस्था के कारण हुए उत्पीड़न को उन्होंने अपवाद बताया। उन्होंने कहा कि अपवाद कभी नियम नहीं हो सकते। इस सनातन विश्व विद्यालय के जरिए हम प्रारम्भ में गुरु द्वारा दिए गए धर्म, मंत्र और ज्ञान की रक्षा करना सिखायेंगे। हम ज्ञान के अभाव में जाति व रंग बांट रहे हैं। जबकि धर्म, शरीर को कष्ट देने का अर्थ नहीं है। धर्म हमें संस्कार सिखाता है। मतलब साफ है अगर राष्ट्र और देश को बदलना है तो पूरी शिक्षा पद्धति में बदलाव करना पड़ेगा और इसके लिए हमारी सनातनी शिक्षा नीति लानी होगी। राजनीतिक दलों से जुड़े सवालों पर ऋतेश्वर महाराज ने जवाब देते हुए कहा मैं किसी विशेष दल का नहीं हूं, दिल की बात करने आया हूं, जो भी व्यक्ति सनातन की बात करेगा, हित की बात करेगा, गरीबों की बात करेगा एक सामान्य नागरिक के तौर पर मैं उसके साथ खड़ा रहूंगा. सनातन को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने धर्म एवं आस्था की नगरी काशी में एक हजार एकड़ भूमि में सनातन विश्व विद्यालय की स्थापना करने का निर्णय लिया है। इस विश्व विद्यालय में पठन-पाठन गुरुकुलम की तर्ज पर होगा। इस विश्व विद्यालय में बच्चों को मैकाले पद्धति की शिक्षा नहीं बल्कि प्रातकाल उठके रघुनाथा मातु-पिता गुरु नावहिं माथा, के संस्कार वाली शिक्षा दी जायेगी। इस विश्व विद्यालय में आत्मरक्षार्थ शस्त्र शिक्षा के साथ-साथ मानवता के समग्र कल्याण के लिए एक ऐसा मंच तैयार करना है जहां आध्यात्मिकता, योग, आयुर्वेद, मॉडर्न साइंस और वैदिक ज्ञान के माध्यम से जीवन के हर पहलू को समझने और जीने की कला सिखाई जाएगी। इस विश्व विद्यालय की स्थापना का मकसद समस्त मानवता के उत्थान और जागरण का संदेश है।
संविधान के संशोधन के सवाल पर ऋतेश्वर महाराज ने कहा कि हर सरकार के कार्यकाल में नए-नए कानून लाएं गए है। कई बार-बार छोटे-छोटे अनुच्छेदों को बदला गया है तो फिर हमें ऐसे काले कानूनों को बदलने में हर्ज क्या है, जो हमें गुलामी की यादें दिलाती है। जो गुलामी को पुनः आमंत्रित कर रही है। जो चीजें बहुसंख्यक भारतीयों को अल्पसंख्यक होने पर मजबूर कर रही है। जो चीजें भारत के विरोध में है, जो चीजें भारतीयों में भेद व हीनता का भाव पैदा कर रही है। जो चीजें आने वाले समय में इस बहुसंख्यक सनातनी समाज को नष्ट कर देंगी, उन चीजों को तो बदलना ही चाहिए। आत्मरक्षा का अधिकार तो सबकों है। चाहे वो आक्रांताओं का काल हो या ब्रतानिया काल हो, पहले जो कुछ हुआ वो शिक्षा पद्धति के चलते हुआ है। बच्चो को ऐसा उदाहरण दिया गया कि वो अपने संस्कृति को जान ही नहीं पाएं। धीरे-धीरे वे इपते बेपरवाह बन गए वो समझ हीं नहीं पाएं एक दिन बांगलादेश बन जायेगा। इसलिए आज सनातन विश्व विद्यालय की आवश्यकता बन गयी है। यद्यपि मैं 8 अरब लोगों की बात कर रहा हूं, फिर भी विरोधी टारगेट करेंगे। लेकिन इस काम को बिना किसी डर भय के अंतिम रुप देकर ही चैन से बैठूंगा।
श्री रितेश्वर जी महराज ने कहा कि भारत के भी हालात बांग्लादेश जैसा न हो जाएं। राष्ट्र विरोधी ताकते सनातनियों को जाति के नाम पर खंड-खंड न कर दें, सनातनियों का नामोनिशान न मिटा दें, इसके लिए जरुरी है कि गुरुकुल शिक्षा के माध्यम से बच्चों को स्वामी विवेकानंद, शिवाजी जैसे महापुरुषों के आदर्श से उन्हें अवगत कराएं। क्योंकि समय रहते हम अपने बच्चों को सनातन का पाठ नहीं पढ़ा पाएं तो आने वाली पीढ़िया सर तन से जुदा से हरकतों से हमें कोसेंगी। वो सोंचेंगे हमारे पूर्वज हमें किस आग में झोक गए है। इसलिए अब सनातन शिक्षा प्रणाली ही हमारे परिवार, बहु-बेटियों की रक्षा करेगा। इसके निर्माण में हम सभी को लगना होगा। सनातन शिक्षा उन्हें जन्म से देना होगा। सनातन विश्वविद्यालय केवल एक शिक्षा का केंद्र नहीं बल्कि एक ऐसी जीवित धारा होगी जो पूरे विश्व को भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर से परिचित कराएगी। इस शिक्षा से हर बालक में वीर शिवाजी जैसा साहसी व्यक्तित्व जन्म लेगा। वर्तमान समय में हिंदू समाज को विधर्मियों से सतर्क रहकर अपना कर्म करना होगा और हिंदू है तो हिंदू का आचरण अपनाना होगा। माथे पर टिका, हाथों में कलेवा आदि पूर्व के संस्कार अपनाने होंगे। अपने साथ परिवार एवं समाज में भी हिंदू संस्कार पर विशेष ध्यान देना होगा। बता दें, ऋृतेश्वर जी महाराज ना सिर्फ सनातन धर्म के अच्छे जानकार हैं, बल्कि आध्यात्मिकता और विज्ञान से लेकर मेडिकल के क्षेत्र में भी उनकी ज्ञान अद्भूत है. इस कारण से ना सिर्फ देश, बल्कि विदेशों में भी उनकी कई शाखाएं कार्यरत है. उन्होंने कहा कि मेरी समझ में आनंद ही श्रीकृष्ण है और श्रीकृष्ण ही आनंद है. जो कुछ भी तू करता है, उसे भगवान के अर्पण करता चल. ऐसा करने से सदा जीवन-मुक्त का आनंद अनुभव करेगा.
शिक्षा में राष्ट्रीयता का समावेश हो इस दिशा में सबसे महत्वपूर्ण कार्य है- पाठ्यक्रम में बदलाव। यह एक बुनियादी कार्य है, जिसके बिना कोई भी पहल अपूर्ण होगी। सर्वप्रथम पाठ्यक्रम का पुन-निर्माण करते वक्त इस बात का ध्यान रहना चाहिए कि उसमें पहले से पढ़ाई जा रहे तमाम अराष्ट्रीय सामग्रियों को हटाया जाना चाहिए। इतिहास, साहित्य, सामाजिक विज्ञान आदि के पाठ्यक्रमों में तमाम विसंगतियों देखी गई है, जो न केवल अनुपपयोगी एवं औचित्य-विहीन है बल्कि राष्ट्रीयता के भाव को नष्ट कर अंततः राष्ट्र को ही नुकसान पहुचाने वाली हैं। इसलिए यह आवश्यकत है कि राष्ट्र की संकल्पना पाठ्यक्रम का हिस्सा बने। कई उदाहरणों के माध्यम से इस वैकल्पिक पाठ्यक्रमों को समझा जा सकता है। भूगोल में वृहत-सांस्कृतिक भारत का मानचित्रा पर प्रकाश डाला जाए। इतिहास एवं संस्कृति के पाठ्यक्रम में भी हमें उन महापुरूषों के योगदान को पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए जिन्होंने इस राष्ट्र के निर्माण में अपनी महती भूमिका निभाई है। अभी तो दुर्भाग्य यह है कि सरकारी संस्थानों से प्रकाशित होने वाली इतिहास की पुस्तकों में भारतीयता स्वाधीनता आन्दोलन में शामिल क्रांतिकारी महापुरूषों को ‘‘आतंकवादी’’ तक लिखा गया है। इसी प्रकार गणित एवं विज्ञान के पाठ्यक्रमों में भी भारतीय ज्ञान परंपरा के इतिहास का समावेश होना चाहिए। गणित में आर्यभट्, रामानुजन, भास्कराचार्य से लेकर शून्य एवं दशमलव पद्धति के विकास में भारतीय गणितज्ञों के महत्व को समावेशित करना चाहिए।
विज्ञान में भी महर्षि चरक, सुश्रुत, पंतजलि, आदि के साथ-साथ अन्य आधुनिक भारतीय वैज्ञानिकों के योगदान को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाना चाहिए। पर्यावरण आदि विषयों के पाठ्यक्रमों में भी भारतीय दृष्टिकोण का समावेश उपयोगी है. पाठ्यक्रम के बाद शिक्षा में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका होती है - शिक्षा के माध्यमों की। यह बड़ा ही महत्वपुर्ण प्रश्न है कि आखिर शिक्षा को किस भाषा में संप्रेषित की जाए। इसके संदर्भ में मेरा स्पष्ट मानना है कि ‘‘मां, मातृभूमि एवं मातृभाषा का कोई विकल्प नहीं है।’’ दुनिया भर में होने वाले भाषा- सम्बन्ध शोधें के परिणाम से यह तथ्य स्पष्ट हो चुका है कि मातृभाषा ही शिक्षा का सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक माध्यम है। अतः भारतीय पाठ्यक्रमों का निर्माण करने के उपरांत उन्हे संप्रेषित करने के लिए भारतीय भाषाओं का ही व्यवहार होना चाहिए। संस्कृत हमारे देश की ही नहीं बल्कि दुनिया की प्राचीनतम भाषा है। यह सर्वाधिक वैज्ञानिक होने के साथ-साथ भारत की अघिकांश भाषाओं की जननी है। सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें एक विशाल ज्ञान राशि संचित है। इसके अलावा हिन्दी इस देश की संपर्क भाषा है जो सही अर्थो में राष्ट्रभाषा भी है। साथ-ही-साथ प्रत्येक प्रांतों में वहां की अपनी - अपनी राजभाषाएं हैं। ये सभी भारतीय भाषाए यहां की मातृभाषाए है। अतः वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीयता दोनों ही बातों ध्यान में रखते हुए शिक्षा का माध्यम भारतीय भाषाओं को बनाना चाहिए। शिक्षा - व्यवस्था के सुदृढ़ीकरण की दिशा में वातावरण की भूमिका भी बड़े महत्व की होती है। हमारा परिवेश जैसा होगा हमारा भौतिक एवं मानसिक संस्कार भी ठीक उसी के अनुरूप होगा। इसलिए विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में सह-शैक्षिक गतिविध्यिं के माध्यम से एन.सी.सी. एन.एस.एस., सैन्य शिक्षा आदि को प्रोत्साहित कर एक राष्ट्रोन्मुखी वातावरण का सृजन करना चाहिए। भारतीय जीवन-दृष्टि को वातावरण के माध्यम से प्रतिबिंबित करने का प्रयास करना चाहिए। वातावरण निर्माण की दिशा में अनुशासन की सर्वाधिक भूमिका होती है। कहा जाता है कि ‘अनुशासन देशः महान भवति’’ अर्थात अनुशासन ही राष्ट्र को महान बनाता है। इसलिए समय-पालन, कानून-पालन, एवं नियम-पालन का सर्वाधिक ध्यान रखते हुए वातावरण को सृजित करना चाहिए। इस अनुशासन की सही तरीके से व्यवहार में लाने हेतु नैतिक शिक्षा एवं मूल्यपरक शिक्षा की अनिवार्यता होती है।
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी
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