यह स्थिति कई महत्वपूर्ण प्रश्न उठाती है, जैसे :
किसी रचनाकार को शीर्ष तक पहुंचने में वर्षों की साधना लगती है और इस यात्रा में उसे असंख्य चुनौतियों और आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है, यहाँ तक कि प्रारंभिक दौर में अस्वीकृति और उपेक्षा भी सहनी पड़ती है। एक बार स्थापित होने के बाद नाम ही पर्याप्त हो जाता है तथा रचना की गुणवत्ता गौण हो जाती है और नाम की महिमा को तरजीह दी जाती है।फलस्वरूप नई प्रतिभाओं के लिए चुनौतियां शुरू ही जाती हैं क्योंकि स्थापित नामों के वर्चस्व के कारण नई प्रतिभाओं को अवसर कम मिलने लगते हैं।समान या बेहतर रचना होने पर भी इन नवोदितों को मान्यता अथवा छपने के लिए जगह नहीं मिलती है और बहुत संघर्ष करना पड़ता है।इस सारी प्रकिया में एक तरह से रचना के बजाय रचनाकार का नाम महत्वपूर्ण हो जाता है।
इस स्थिति से निपटने के लिए कुछ सुझाव:
1. साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं को नई प्रतिभाओं को विशेष स्थान देना चाहिए।
2. रचना के मूल्यांकन में वस्तुनिष्ठता पर जोर दिया जाना चाहिए।
3. पढ़ने के लिए रचना का चयन करते समय पाठकों को भी रचना के स्तर पर ध्यान देना चाहिए, न कि केवल नाम पर।
4. साहित्यिक संस्थाओं को नए लेखकों के लिए मंच प्रदान करना चाहिए।
यों साहित्य में 'नाम' की महत्ता को नकारा नहीं जा सकता। यह एक रचनाकार की दीर्घकालीन साधना का परिणाम होता है। लेकिन इससे साहित्य की गुणवत्ता प्रभावित न हो, इसका ध्यान रखना आवश्यक है। नई प्रतिभाओं को अवसर मिलें और साहित्य का मूल्यांकन वस्तुनिष्ठ मापदंडों पर हो, यह सुनिश्चित करना साहित्यिक लेखन से जुड़े नियंताओं का दायित्व है।
—डॉ० शिबन कृष्ण रैणा—
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