जब भी समाज में किसी को बुरा या बैडमैन बताना होता है, तो उसे रावण ही कहा जाता है। लेकिन लोग भूल जाते है आज समाज में दहेज के दानव सुरसा के मुंह की तरह बढ़ रहे है। कलयुगी नेताओं की बात की जाएं तो आएं दिन उन पर बलातकार के आरोप लगते रहते है। या यूं कहे लूटपाट, हत्या, बलातकार, आरोप-प्रत्यारोप, दहेज, तीन तलाक हमारे समाज में फैली आज की बुराइयां ही तो हैं। हमें रावणरुपी इन बुराईयों पर भी तो विजय पाना है। रावण ने सीताजी का अपहरण किया तो उसे इसी बात की सजा मिली और हर साल हर एक को याद दिलाते हुए मिलती है कि किसी स्त्री का अपहरण या उसे किसी न किसी तरह से परेशान करना बहुत बड़ी बुराई है। लेकिन यदि हम हर साल जारी होने वाले आंकड़ों पर नजर डालें तो पाएंगे कि ऐसे अपराध बढ़ते ही जाते हैं। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है आखिर शहर-शहर, गांव-गांव फैले रावणरुपी इन बुराईयों को कब जलाया जायेगा? रावण की गलतियों का सजा तो मिल चुका है और आगे भी जलाकर दिया जाता रहेगा, लेकिन हमारे समाज के भीतर पनप रहे सामाजिक दुश्मानों को भी तो जलाने की जरुरत है। इन अपराधियों में से बहुत से दशहरा मेला देखने भी जाते ही होंगे। ये वहां मिलती सजा को देखकर भी कुछ क्यों नहीं सीखते. रावण महापंडित और महाज्ञानी था। उसने अपने बल से देवताओं को भी पराजित कर दिया था। लेकिन रावण से एक भूल हो गयी थी। वह अपने बल और ज्ञान के अहंकार में खुद को ही भगवान मान बैठा था और ईश्वर के बनाए नियमों में बदलाव करना चाहता था। यही उसके पतन का कारण बना
भीतर की आसुरी शक्ति के नष्ट होने की आकांक्षा
दशहरा दरअसल दशहरा शौर्य, शक्ति, स्वास्थ्य, भक्ति और समर्पण का त्योहार है। इस दिन हम अपनी भौतिक शक्ति, मुख्यतया शस्त्र और स्वास्थ्य बल का लेखा-जोखा करते हैं। अपनी शक्तियों को विकसित एवं सामर्थ्ययुक्त बनाने के लिए दशहरा पर्व प्रेरणा देता है। भक्त भक्ति-भाव से दुर्गा माता की आराधना करते हैं। नवरात्र में दुर्गा के नौ विभिन्न रूपों की पूजा होती है। दुर्गा ही आवश्यकता के अनुसार काली, शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, कुष्मांडा आदि विभिन्न रूप धारण करती हैं और आसुरी शक्तियों का संहार करती हैं। वे आदि शक्ति हैं। वे ही शिव पत्नी पार्वती हैं। संसार उन्हें पूज कर अपने अंदर की आसुरी शक्ति के नष्ट होने की आकांक्षा रखता है। दुर्गा रूप जय यश देती हैं तथा द्वेष समाप्त करती हैं। वे मनुष्य को धन-धान्य से संपन्न कर देती हैं। बुराई पर अच्छाई की विजय के इस त्योहार को धूमधाम के साथ मनाया ही जाना चाहिए। समाज में जितनी भी आसुरी शक्तियां हैं, उनका विनाश हो और सुख-संपत्ति व धन-धान्य फले-फूले इसी का प्रतीक है दशहरा और इसे इसी रूप में मनाया जाना चाहिए। इस सबके पीछे कहीं-न-कहीं बुराई पर अच्छाई की विजय के प्रतीक के तौर पर इसे मनाने की परंपरा बनी ही रही। विजयादशमी पर शस्त्रपूजा और उसी दिन निर्णय लेकर शत्रुओं पर टूट पड़ने की परंपरा रही है। कहा जाता है कि शिवाजी ने औरंगजेब पर हमला इसी विजयादशमी के दिन ही किया था। इसीलिए कहा जाता है कि विजयादशमी में शुभ नक्षत्रों का योग विजय अवश्य दिलाता है।
आश्विनस्य सिते पक्षे दशम्यां तारकोदये।
स कालो विजयो ज्ञेयः सर्वकार्यार्थसिद्धये।।
मम क्षेमारोग्यादिसिद्ध्यर्थं यात्रायां विजयसिद्ध्यर्थं।
गणपति मातृकामार्गदेवता पराजिता शमीपूजनानि करिष्ये।।
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थों धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।
ऐसी मान्यता है कि देवताओं की राक्षसों से रक्षा करने के लिए मां दुर्गा की उत्तपत्ति हुई। मां दुर्गा के कई नाम होने पर भी दो नाम गौरी और काली मुख्य हैं। देवी गौरी का स्वरूप बेहद सुन्दर और शान्त है, तो वहीं उनका सबसे विकराल रूप है मां काली का।
रहस्य
विजयदशमी के दिन ही क्यों राम, रावण पर विजय प्राप्त कर सके? इस गूढ़ रहस्य का वर्णन विश्वामित्र संहिता में पाया जाता है। युद्ध स्थल पर जब राम ने देखा कि उनकी वानर सेना का संहार हो रहा है तो राम युद्ध भूमि में ही आसन लगा कर बैठ गए। फिर अपने गुरु विश्वामित्र का ध्यान कर पूजा की तो विश्वामित्र मानस रूप में राम के समक्ष उपस्थित हुए। भगवान श्रीराम ने विश्वामित्र से प्रश्न किया- गुरुदेव! आप की दी हुई सभी विद्याओं के बाद भी मेरी सेना का विनाश हो रहा है। मैं और लक्ष्मण मिल कर भी रावण का संहार नहीं कर पा रहे हैं। इसमें क्या रहस्य है? भगवान श्रीराम की व्याकुलता देख विश्वामित्र जी ने उन्हें समझाया- राम तुम केवल अस्त्र-शस्त्रों से तांत्रिक और योगी रावण पर विजय प्राप्त नहीं कर सकते, क्योंकि उसकी नाभि में अमृत कलश स्थापित है। आज तुम्हें मैं एक गूढ़ विद्या बताता हूं। मंत्र के माध्यम से और विशेष तंत्र से मैंने उसकी रचना की है। उसी समय विश्वामित्र ने श्रीराम को विजयश्री साधना की दीक्षा देकर मां दुर्गा की आराधना संपन्न कराई और विजयी होने का आशीर्वाद दिया। विजय दशमी वास्तव में साधना सिद्धि पर्व है। इसी दिन दस महाविद्याओं में प्रमुख बगलामुखी और धूमावती को सही अनुष्ठान के माध्यम से प्रसन्न कर मनोवांछित फल की प्राप्ति की जा सकती है।
शक्ति अर्जन करने का खास मौका है दशहरा
वैसे इस पर्व के साथ अनेकों कथाएं जुड़ी हुई हैं, लेकिन मुख्यतः दुर्गा, जो शक्ति की अधिष्ठात्री देवी हैं, इसका इतिहास अधिक महत्व रखता है। कथा है कि ब्रह्माजी ने असुरों का सामना करने के लिए सभी देवताओं की थोड़ी-थोड़ी शक्ति संगृहीत करके दुर्गा अर्थात संघशक्ति का निर्माण किया और उसके बल पर शुम्भ-निशुम्भ, मधु-कैटभ, महिषासुर आदि राक्षसों का अंत हुआ। दुर्गा की अष्टभुजा का मतलब आठ प्रकार की शक्तियों से है। शरीर-बल, विद्या-बल, चातुर्य-बल, धन-बल, शस्त्र-बल, शौर्य-बल, मनोबल और धर्म-बल इन आठ प्रकार की शक्तियों का सामूहिक नाम ही दुर्गा है। दुर्गा ने इन्हीं के सहारे बलवान राक्षसों पर विजय पायी थी। समाज को हानि पहुंचाने वाली आसुरी शक्तियों का सामूहिक और दुष्ट व्यक्तियों का प्रतिरोध करने के लिए हमें संगठन शक्ति के साथ-साथ उक्त शक्तियों का अर्जन भी करना चाहिए। उक्त आठ शक्तियों से संपन्न समाज ही दुष्टताओं का अंत कर सकता है, समाज द्रोहियों को विनष्ट कर सकता है, दुराचारी षड्यंत्रकारियों का मुकाबला कर सकता है। दशहरा का पर्व इन शक्तियों का अर्जन करने तथा शक्ति की उपासना करने का पर्व है। व्यक्ति के अंदर परिवार एवं समाज में असुर प्रवृत्तियों की वृद्धि ही अनर्थ पैदा करती है। जिन कमजोरियों के कारण उन पर काबू पाने में असफलता मिलती है, उन्हें शक्ति साधना द्वारा समाप्त करने के लिए योजना बनाने-संकल्प प्रखर करने तथा तदनुसार क्रम अपनाने की प्रेरणा लेकर यह पर्व आता है। इसका उपयोग पूरी तत्परता एवं समझदारी से किया जाना चाहिए।
‘दशहरा‘ के दिन ही साईं हुए अलविदा
बुराई पर अच्छाई के त्यौहार दशहरे की एक कड़ी साईं बाबा से जुड़ती है। राम और अल्लाह का नाम एक साथ जपने वाले शिरडी के साईं बाबा ने 94 साल पहले विजयादशमी के दिन ही इस दुनिया को अलविदा कहा था। उनकी समाधि पर विजयादशमी के दिन उमड़ने वाले भक्ति का सैलाब ये बताता है कि कैसी थी साईं की विजयादशमी।
नया कार्य करने का है मुफिद वक्त
इस दिन नया कार्य प्रारम्भ करते हैं। शस्त्र-पूजा की जाती है। प्राचीन काल में राजा लोग इस दिन विजय की प्रार्थना कर रण-यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे। दशहरे का सांस्कृतिक पहलू भी है। भारत कृषि प्रधान देश है। जब किसान अपने खेत में सुनहरी फसल उगाकर अनाज रूपी संपत्ति घर लाता है तो उसके उल्लास और उमंग की कोई सीमा नहीं रहती। इस प्रसन्नता के अवसर पर वह भगवान की कृपा को मानता है और उसे प्रकट करने के लिए वह उसका पूजन करता है।
दशहरे पर बांटते हैं शमी की पत्तियां
विजयादशमी पर रावण दहन के बाद कई प्रांतों में शमी के पत्ते को सोना समझकर देने का प्रचलन है। कई जगहों पर इसके वृक्ष की पूजा की जाती है। संस्कृत साहित्य में अग्नि को ‘शमी गर्भ‘के नाम से जाना जाता है। खासकर क्षत्रियों में इस पूजन का महत्व ज्यादा है। मान्यता है कि महाभारत के युद्ध में पांडवों ने इसी वृक्ष के ऊपर अपने हथियार छुपाए थे और बाद में उन्हें कौरवों से जीत प्राप्त हुई थी। इस दिन शाम को वृक्ष का पूजन करने से आरोग्य व धन की प्राप्ति होती है। मान्यता है कि मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्रीराम ने लंका पर आक्रमण करने के पूर्व शमी वृक्ष के सामनेसिर नवाकर अपनी विजय हेतु प्रार्थना की थी। भगवान श्रीराम ने इन पत्तियों का स्पर्श किया और विजय प्राप्त की थी। यही वजह है शमी की पत्तियां विजयादशमी के दिन सुख, समृद्धि, और विजय का आशीष देती है। कालांतर में इसे स्वर्ण के समान मान लिया गया और दशहरे की शुभकामना के साथ इसका आदान-प्रदान होने लगा यह कह कर कि सोने जैसी यह पत्तियां आपके जीवन में भी सौभाग्य और समृद्धि लेकर आए।
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी
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