अखंड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए हर साल कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को करवा चौथ का व्रत रखा जाता है. करवा चौथ के दिन महिलाएं सोलह श्रृंगार करती हैं और पति की लंबी आयु के लिए निर्जला व्रत रखती हैं. इस साल करवा चौथ का व्रत 20 अक्टूबर, रविवार के दिन रखा जाएगा. करवा चौथ का व्रत सुबह सूर्योदय से पहले रखा जाता है और रात में चंद्रमा की पूजा करने के बाद ही इस व्रत को तोड़ा जाता है. यह व्रत इसिए भी खास है कि पति की दीर्घायु के लिए चंद्रमा से सौभाग्य में वृद्धि तथा आयु, अरोग्य की मांग की जाती है। कहते है यह व्रत सबसे पहले मां पार्वती ने भगवान भोलेनाथ के लिए रखा था. इसके अलावा द्रौपदी ने भी पांडवों को संकट से मुक्ति दिलाने के लिए करवा चौथ का व्रत रखा था. करवा चौथ का व्रत विवाह के 16 या 17 सालों तक करना अनिवार्य माना जाता है. कुंवारी कन्याएं भी सुयोग्य वर के लिए करवा चौथ का व्रत रखती हैं। करवा चौथ पर ब्रह्म मुहूर्त सुबह 4 बजकर 44 मिनट से लेकर सुबह 5 बजकर 35 मिनट तक रहेगा. अभिजीत मुहूर्त का समय सुबह 11 बजकर 43 मिनट से लेकर 12 बजकर 28 मिनट तक रहेगा। विजय मुहूर्त का समय शाम 1 बजकर 59 से लेकर 2 बजकर 45 मिनट तक रहेगा.
मन की एकाग्रता, चंद्रमा से पति की दीर्घायु एवं पारिवारिक सुख शांति के लिए सुदृढ़ रहती है। साथ ही यह कला मांगे गए वचन से विश्वास करती है, जो वर्ष पर्यंत बना रहता है। यही कारण है कि इस समर्पण में पति पत्नी के संबंधों पर सकारात्मक प्रभाव आता है। इसके साथ ही प्रेम तथा त्याग की भावना भी उजागर होती है। ह्यूमन साइंस और अन्य रिपोर्ट्स की माने तो शरद ऋतु में परिवर्तन के चलते कई ऐसे हारमोंस इस समय ज्यादा बनते हैं जो पति-पत्नी के प्रति संबंधों में झुकाव और रुझान को बढ़ाते हैं। दूसरी तरफ कार्तिक मास में औषधीय गुण विकसित अवस्था में होते हैं। यह गुण चंद्रमा से ही प्राप्त होते हैं। यह व्यक्ति के स्वास्थ्य और निरोगी काया को बनता है। करवा चौथ में चंद्रमा को अर्घ्य देने का विधान इसी कारण है। इसमें आयु, सौभाग्य और निरोगी काया मिलती है। यह अलग बात है कि पौराणिकता के साथ-साथ आधुनिकता का प्रवेश भी इस पर्व में हो चुका है। कभी करवा चौथ पत्नी के, पति के प्रति समपर्ण का प्रतीक हुआ करता था, लेकिन आज यह पति-पत्नी के बीच के सामंजस्य और रिश्ते की उष्मा से दमक और महक रहा है। करवा चौथ महज एक व्रत नहीं है, बल्कि सूत्र है, उस विश्वास का कि हम साथ-साथ रहेंगे। हम आधार है एक दुजे का, इसलिए हमारा साथ कभी न छूटें। आज हम कितना भी आधुनिक क्यों न हो जाएं, लेकिन परंपराओं से दूर नहीं जा सकते। दोनों के बीच अहसास का घेरा मजबूत होता है, जो रिश्तों को सुरक्षित करता है। यानी करवा चौथ पति-पत्नी के अमर प्रेम तथा पत्नी का अपने पति के प्रति समर्पण का प्रतीक है। जहां तक छलनी से चंद्रमा व पति को देखकर पूजन का सवाल है तो पत्नी के हृदय की एक भावना होती है। पत्नी जब छलनी से अपने पति को देखती है तो उसका मकसद होता है कि वह हृदय के सभी विचारों व भावनाओं को छलनी में छानकर शुद्ध कर लिया है। मन के सभी दोष दूर हो चुके हैं। अब मेरे हृदय में सिर्फ और सिर्फ आपके प्रति सच्चा प्रेम ही शेष है। यही प्रेम मैं आपको समर्पित करती हूं और अपना व्रत पूर्ण करती हूं।
पौराणिक समय से ही करवाचौथ व्रत रखने की प्रथा चली आ रही है जिसकी शुरुआत भगवान श्रीकृष्ण के कहने पर द्रौपदी ने अपने पतियों के लिए व्रत रख की थी। माना जाता है कि द्रौपदी के करवा चौथ व्रत रखने से ही पांडवों को महाभारत युद्ध में विजय प्राप्त हुई थी। चांद भगवान शिव का गहना है इसलिए करवा चौथ के दिन शिव-पार्वती और स्वामी कार्तिकेय की भी पूजा की जाती है। मान्यता है कि शैलपुत्री पार्वती ने भी शिव भगवान को इसी प्रकार के कठिन व्रत से पाया था इसलिए यह व्रत कुंवारी कन्याओं के लिए भी उपयोगी माना जाता है। इस दिन गौरी पूजन से जहां महिलायें अखंड सुहाग की कामना करती हैं, वहीं अविवाहित कन्याएं सुयोग्य वर पाने की प्रार्थना करती हैं। इस दिन को खास श्री कृष्ण का आशीर्वाद माना जाता है। इसके लिए एक घटना प्रचलित है द्वापर युग में एक बार अर्जुन, वनवास के दौरान नीलगिरी पर्वत पर जब तपस्या करने गये थे। तब कई दिनों तक अर्जुन वापस नहीं आये, तो द्रौपदी को चिंता हुई। अपनी चिंता द्रौपदी ने जब कृष्ण को बताई तो उन्होंने द्रौपदी से न सिर्फ करवाचौथ व्रत रखने को कहा बल्कि शिव द्वारा पार्वती जी को जो करवाचौथ व्रत की कथा सुनाई गई थी, उसे स्वयं द्रौपदी को सुनाने को कहा। मान्यता है कि जिन दंपत्तियों के बीच छोटी छोटी बात को लेकर अनबन रहती है वह यदि करवाचौथ व्रत रखें तो उनका आपसी मनमुटाव दूर हो जाता है। करवाचौथ में चंद्रमा की पूजा इसलिए भी की जाती है क्योंकि चांद को मन का स्वामी माना जाता है जो दिल से जुड़े रिश्तों को बांधे रखने का कारक होता है। इस व्रत के पीछे धारणा भी यही है कि एक बार किसी बहन को उसके भाइयों ने स्नेहवश भोजन कराने के लिए छल से चांद की बजाय छलनी की ओट में दीपक दिखाकर भोजन करवा दिया। इस तरह उसका व्रत भंग हो गया। इसके पश्चात उसने पूरे साल चतुर्थी का व्रत किया और जब पुनः करवा चौथ आई तो उसने विधिपूर्वक व्रत किया और उसे सौभाग्य की प्राप्ति हुई। उस करवा चौथ पर उसने हाथ में छलनी लेकर चांद के दर्शन किए। छलनी का एक रहस्य यह भी है कि कोई छल से उनका व्रत भंग न कर दे, इसलिए छलनी के जरिए बहुत बारीकी से चंद्रमा को देखने के बाद ही व्रत खोला जाता है। व्रत खोलने से पूर्व छलनी में दीपक रखकर, उसकी ओट से पति की छवि को निहारने की परंपरा ही करवा चौथ पर्व की है। इस दिन बहुएं अपनी सास को चीनी के करवे, साड़ी व श्रृंगार सामग्री भेंट करती हैं। माना जाता है कि इस व्रत को करने से पति-पत्नी का रिश्ता मधुर और मजबूत बनता है। साथ ही सुयोग्य वर प्राप्ति के लिए भी करवा चौथ का व्रत किया जाता है। सभी सुहागन स्त्रियां अपने पति की लंबी उम्र और स्वस्थ जीवन की कामना करती हैं, वहीं कुंवारी लड़कियां भी सुयोग्य वर प्राप्ति के लिए यह व्रत करती हैं।
अलग-अलग राज्यों में है अलग-अलग प्रथाए
करवा चौथ की पूजा की संरचना की रीतियों में उत्तर भारत, राजस्थान, मध्यप्रदेश, हरियाणा, पंजाब में काफी वैविध्य है। हर जगह पर थोड़ी अलग-अलग पूजा की जाती है और फिर कहानी कही जाती है। कहीं-कहीं दीवार पर गेरू और चावल से या फिर मिट्टी से गौर बनाकर उनकी पूजा की जाती है। तो कहीं पाने चिपकाकर भी चार घड़ी के चंद्रमा-चौघड़ियां को बनाकर पूजन किया जाता है। करवे के बचे पानी से पति को छींटे मारना और वही जल ग्रहण कर व्रत खोलना इस पूजा का नियम है। इनके साथ छलनी में चंद्रमा के दर्शन करना करवा चौथ की कहानी का अंश है, जो सभी प्रांतों में तो नहीं बल्कि पंजाब में प्रमुखता से किया जाता है।
सरगी
‘सरगी‘ पंजाब, हरियाणा की करवा चौथ पूजा का विशेष पक्ष है। यहां करवा चौथ की पूजा में उत्सव धर्मी पक्ष अधिक है। सास नई बहू को सुबह-सुबह दूध फेनी, सेवई खाने को और सारी श्रृंगार की वस्तुएं साड़ी, जेवर आदि करवा चौथ पर देती है। नारियल का पानी भी, जिससे उसे दिन भर प्यास न लगे। हरियाणा में बहू की पहली करवा चौथ मायके में होती है और सरगी का सामान ससुराल से आता है। पूजा के बाद का ‘बायना‘ (भेंट) ससुराल जाता है। इस बायने में और करवा चौथ मइया को लगने वाले नैवेद्य में भी प्रांत भेद हैं। मालवा में 13 ‘खाजे‘ चढ़ाने के लिए बनते हैं। खाजे मैदा से बनी मीठी पूड़ी होती है और इन्हीं का बायना निकाला जाता है। वहीं राजस्थान में करवा चौथ के दिन रमास, चावल, लपसी और मीठा दलिया बनता है। शायद रमास कार्तिक में आते हैं, नवान्न हैं इसलिए भी इसका भोग लगाया जाता है। इसके अलावा चौथ मइया को चावल व लपसी का भोग लगता है। उत्तर भारत में पूड़ी, हलवा और गुलगुले नैवेद्य भी हैं और बायना भी। मध्यप्रदेश में भी यही है लेकिन बहुत-सी जगह सिर्फ गुलगुले ही रहते हैं। उत्तर भारत में खत्रियों और उनके ब्राह्मण पुरोहितों में करवा चौथ की पूजा अन्य समुदायों से काफी भिन्न हैं। यहां पर बायने में बनाए जाने वाली मठरी और गुलगुलों में से एक मठरी और एक गुलगुले को बीच में से छेदवाला बनाते हैं। अर्घ्य देने वाली महिलाएं सीधे चंद्रमा को नहीं देखती। सबसे पहले दीपक छलनी से, फिर अपनी साड़ी के पल्लू से उसके बाद मठरी और गुलगुले के छेद में से चंद्रमा के दर्शन करती हैं। इसके बाद प्रत्यक्ष दर्शन कर चंद्र को देती हैं ताकि चंद्र को नजर न लगे। करवा चौथ का अर्घ्य उगते चंद्रमा को ही दिया जाता है। कुछ स्थानों पर चार-पांच बार कुछ में सात बार, घूम-घूमकर दीये पर रखे काले तिल और जौ डालते हुए यह कह कर अर्घ्य देते हैं।
करवे बदलने की रीत
ननद भावज, देवरानी-जेठानी, आस-पड़ोस की महिलाओं के साथ आंचल से ढंककर करवे बदलती हैं। क्रम ऐसा रखा जाता है कि अपना करवा अपने ही पास आता है। इससे प्रेम और सौहार्द्र की भावना प्रबल होती है और एक-दूसरे के मध्य रिश्तों की डोर और मजबूत होती है। फिर इस तरह के गीत गाती हैं- ‘बींझा बेटी करवा ले, सात भाइयों की बहन करवा ले पीहर पूरी करवा ले, अध बर खानी करवा ले, सदा सुहागिन करवा ले‘। बस यूं ही हंसी-खुशी के साथ चांद की उपस्थिति और उसके आशीर्वाद से फलता-फूलता है यह व्रत...।
करवा चौथ की मेहंदी
इस दिन मेहंदी लगवाने का जबरदस्त जोश होता है। किसी भी तरह रात के सारे कामकाज जल्दी पूरे कर मेहंदी लगवाने की होड़ होती है। मेहंदी न हुई, स्टेटस सिंबल हो गया। करवाचौथ के दिन अगर किसी स्त्री के हाथ मेहंदी से नहीं रंगे तो अधूरापन ही समझा जाता है। यही वजह है कि इस दिन पार्लरों में मेला-सा माहौल होता है। हर उम्र की स्त्रियां यहां-वहां चौकियों, कुर्सियों पर बैठी मेहंदी लगवाती देखी जा सकती है। एक तरह से करवा-चौथ पर मेहंदी लगवाना नियम-सा बन गया है। मेहंदी नहीं लगाई तो मानो व्रत ही पूरा न होगा। हर उम्र की स्त्रियां बड़ी उमंग के साथ अपनी हथेलियों को रंगवा कर उन रंगों पर इतराती हैं और फिर किसकी मेहंदी कितनी रची, इस बात की होड़ में लग जाती हैं। मेहंदी रचाने के लिए न जाने कितने सारे जतन कर लिए जाते हैं।
समर्पण, सौम्यता और सोलह श्रृंगार
आदि काल से ही सुहागिनें सौंदर्य प्रसाधन को लेकर व्यापक झुकाव रखती हैं। प्रसाधिकाओं का एक वर्ग आदि काल से ही सौम्यता और समर्पण के साथ श्रृंगारों से सुसज्जित होकर पर्व विशेष पर पति-परमेश्वर में अपनी आस्था व्यक्त करता है। करवा चौथ को लेकर महिलाएं खास कर नवविवाहिता पूरे उत्साह में हैं। प्राणनाथ की सलामती के त्योहार में उनका सोलह श्रृंगार घर में सुख और समृद्धि तो लाता ही है, पवित्रता और दिव्यता के हिसाब से भी यह अगाध प्यार का वाहक बनता है। सौभाग्य के लिए रखे जाने वाले व्रत में अर्द्धांगिनी होने का अहसास पूरे शबाव पर होता है।
पूजन सामाग्री
करवा चौथ की पूजा में जल से भरा मिट्टी का टोंटीदार कुल्हड़ यानी करवा, उपर दीपक पर रखी विशेष वस्तुएं, श्रृंगार की सभी वस्तुएं जरुरी होती है। पूजा की थाली में रोली, चावल, धूप, दीप, फूल के साथ दूब अवश्य रहती है। शिव, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय की मिट्टी की मूर्तियों को भी पाट पर दूब में बिठाते हैं। बालू या सफेद मिट्टी की बेदी बनाकर भी सभी देवताओं को विराजित करने का विधान है। अब तो घरों में चांदी के शिव-पार्वती पूजा के लिए रख लिए जाते हैं।
उपहार
दाम्पत्य के सूत्र को और गहरे से जोड़ते हैं हमारे व्रत व त्योहार और उसमें भी फिर करवा चौथ जैसा पर्व हो तो क्या बात है। अपने पति के दीघार्यु के लिए मंगलकामना करती हुई पत्नी जहां बेहद आस्था और प्रेम के साथ उसके लिए निर्जला उपवास रखती है वहीं पति भी अपनी पत्नी को उसकी खुशी जताने के लिए कुछ न कुछ उपहार जरुर देते है। इसलिए आजकल चांद की पूजा के बाद पति से मिलने वाले सरप्राइज गिफ्ट का भी इंतजार रहता है। हालांकि इसे भी पर्व की एक प्रतीकात्मक रस्म समझकर स्वीकारना चाहिए, क्योंकि तोहफे भी एक-दुसरे को जोड़कर रखने, खुशी देने में महती भूमिका निभाते है।
महत्वपूर्ण मंत्र
ऊँ नमो आनंदिनी श्री वर्धिनी गौर्ये नमः, ऊँ श्री सर्वसौभाग्यदायिनी सर्वम् पूरण श्री ऊँ नमः, त्रिचक्रे त्रिरेखं सुरेखे उज्जवले नमः व ऊँ नमो अष्टभाग्यप्रदे धात्रिदैव्ये नमः। ये चार ऐसे है महामंत्र है, जो इस बार करवा चौथ पर जाप करने से व्रती महिलाओं के पति न सिर्फ तरक्की के राह पर होंगे बल्कि विभिन्न प्रकार के रोगों से मुक्त व लंबी आयु भी पा सकेंगे और रोजी-रोजगार, नौकरी, सुरक्षा सहित धन-यश आदि से भी होंगे मालामाल।
पूजा का विधि-विधान
‘मम सुख सौभाग्य पुत्रपोत्रादिसुस्थिर श्रीप्राप्तये करकचतुर्थी व्रतमहं करिष्ये।’ पूजन से पहले पीली मिट्टी की गौरी भी बनायी जाती है। फिर एक पट्टे पर जलसे भरा लोटा एवं एक करवे में गेहूं भरकर रखते हैं। कुछ स्त्रियां परस्पर चीनी या मिट्टी का करवा आदान प्रदान करती हैं। लोकाचार में कई स्त्रियां काली चिकनी मिट्टी के कच्चे करवे में चीनी की चासनी बनाकर डाल देती हैं अथवा आटे को घी में सेंककर चीनी मिलाकर लड्डू आदि बनाती हैं। पूरी-पुआ और विभिन्न प्रकार के पकवान भी इस दिन बनाए जाते हैं। नव विवाहिताएं विवाह के पहले वर्ष से ही यह व्रत प्रारंभ करती हैं। नैवेद्य (भोग) में से कुछ पकवान ब्राह्मणों को दक्षिणा सहित दान करें तथा अपनी सासू मां को 13 लड्डू, एक लोटा, एक वस्त्र, कुछ पैसे रखकर एक करवा चरण छूकर दे दें। करवा तथा पानी का लोटा रोली पाटे पर रखती हैं और कहानी सुनकर करवा अपनी सास के पैरों में अर्पित करती हैं। सास न हो तो मंदिर में चढ़ाती हैं। 13 जगह सीरा पूड़ी रखकर हाथ फेरें। सभी पर रुपया भी रखें। रुपया अपनी सास को दे दें। 13 सुहागिन स्त्रियों को भोजन कराने के बीच दे दें। दीवार पर या कागज पर चन्द्रमा उसके नीचे शिव-पार्वती तथा कार्तिकेय की चित्रावली बनाकर पूजा की जाती है। कथा सुनते हैं। पूजा के बाद तांबे या मिट्टी के करवे में चावल, उड़द की दाल, सुहाग की सामग्री जैसे- कंघी, शीशा, सिंदूर, चूडियां, रिबन व रुपया रखकर दान करना चाहिए तथा सास के पांव छूकर फल, मेवा व सुहाग की सारी सामग्री उन्हें देनी चाहिए।
व्रत से पहले क्या खाएं
सूरज निकलने से पहले जब आप सरगी खाते हैं तो इसमें ध्यान रहे कि वह ज्यादा तैलीय या भारी न हो। व्रत से पहले मीठा न ही खाएं तो अच्छा रहता है, क्योंकि मीठी चीजें भूख को बढ़ाती है। इसलिए जिस चीज को खाने से भूख बढ़ती है, उससे व्रती को परहेज करना चाहिए। व्रत से पहले की रात के खाने में पनीर जरूर लें। पनीर में प्रोटीन होता है, जो सुबह से खत्म हुई एनर्जी को फिर लेवल में ले आता है। व्रत से पहले सुबह में 2-3 गिलास हल्का गुनगुना पानी पी सकते हैं। अगर आप गर्म पानी पीती हैं तो इससे आपके शरीर का तापमान सही रहता है और दिनभर प्यास नहीं लगती।
पर्व को मनाने के पीछे है कई पौराणिक मान्यताएं
कहते है पूरे दिन व्रत रखने के बाद शाम के समय महिलाएं पूजा के लिए तैयार होती हैं। पास-पड़ोस की महिलाएं एक जगह इकट्ठी होती हैं और साथ में करवाचौथ की कथा सुनती हैं। इसके लिए सबसे ज्यादा प्रचलित है वीरावती की कथा। दरअसल, शाकप्रस्थपुर वेदधर्मा ब्राह्मण की विवाहिता पुत्री वीरावती सात भाइयों की अकेली बहन थी। शादी के बाद जब वह भाइयों के पास आईं, तो उसी दौरान एक दिन उन्होंने एक व्रत रखा। हालांकि उन्हें इस कठिन व्रत को निभाने में कुछ मुश्किल हो रही थी, लेकिन उन्हें चंद्रमा निकलने के बाद ही कुछ खाना था। ऐसे में उनकी बढ़ती बेचौनी पर भाइयों से उनका कष्ट देखा नहीं गया और उन्होंने पीपल की आड़ में आतिशबाजी का सुंदर प्रकाश फैलाकर चंद्रोदय दिखा दिया और वीरवती को भोजन करा दिया। जैसे ही वीरावती ने खाना खत्म किया, उन्हें अपने पति के बीमार होने का समाचार मिला और महल पहुंचने तक उनके पति की मृत्यु हो चुकी थी। इसके बाद देवी पार्वती की सलाह पर उन्होंने करवा चौथ को विधिवत पूरा किया और अपने पति की जिंदगी वापस लेकर आईं। करवाचौथ के व्रत को सत्यवान और सावित्री की कथा से भी जोड़ा जाता है। इस कथा के अनुसार जब यमराज सत्यवान की आत्मा को लेने आए, तो सावित्री ने खाना-पीना सब त्याग दिया। उसकी जिद के आगे यमराज को झुकना ही पड़ा और उन्होंने सत्यवान के प्राण लौटा दिए। एक अन्य कथानुसार एक समय की बात है कि एक करवा नाम की पतिव्रता स्त्री अपने पति के साथ नदी के किनारे के गांव में रहती थी। एक दिन उसका पति नदी में स्नान करने गया। स्नान करते समय वहां एक मगर ने उसका पैर पकड़ लिया। वह मनुष्य करवा-करवा कह के अपनी पत्नी को पुकारने लगा। उसकी आवाज सुनकर उसकी पत्नी करवा भागी चली आई और आकर मगर को कच्चे धागे से बांध दिया। मगर को बांधकर वो यमराज के यहां पहुंची और यमराज से कहने लगी, ‘हे भगवन! मगर ने मेरे पति का पैर पकड़ लिया है। उस मगर को नरक में ले जाओ.’ यमराज बोले, ‘अभी मगर की आयु शेष है, अतः मैं उसे नहीं मार सकता।’ इस पर करवा बोली, ‘अगर आप ऐसा नहीं करोगे तो मैं आप को श्राप देकर नष्ट कर दूंगी।’ सुनकर यमराज डर गए और उस पतिव्रता करवा के साथ आकर मगर को यमपुरी भेज दिया और करवा के पति को दीर्घायु दी। हे करवा माता! जैसे तुमने अपने पति की रक्षा की, वैसे सबके पतियों की रक्षा करना।
करवा चौथ पर न भूलें ये 16 चीजें
सुहागन स्त्रियों के लिए 16 चीजें करना जरूरी मानी गई हैं। माना जाता है कि ये 16 चीजें किसी भी स्त्री के सुहाग का प्रतीक होती हैं और जो स्त्री करवा चौथ के दिन ये 16 काम करती हैं, उनके पति की उम्र लंबी होती है और परस्पर प्रेम बढ़ता है।
बिंदी - सुहागिन स्त्रियों को कुमकुम या सिंदूर से अपने माथे पर लाल बिंदी जरूर लगाना चाहिए। इसे परिवार की समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।
कंगन और चूडियां- हिन्दू परिवारों में सदियों से यह परंपरा चली आ रही है कि सास अपनी बडी बहू को मुंह दिखाई रस्म में सुखी और सौभाग्यवती बने रहने के आशीर्वाद के साथ वही कंगन देती है, जो पहली बार ससुराल आने पर उसकी सास ने उसे दिए थे। पारंपरिक रूप से ऐसा माना जाता है कि सुहागिन स्त्रियों की कलाइयां चूडियों से भरी रहनी चाहिए।
सिंदूर - सिंदूर को सुहाग का प्रतीक माना जाता है। सात फेरों के बाद जब दूल्हा-दुल्हन की मांग भरता है तो इसका मतलब होता है कि वह उसका साथ जीवन भर निभाएगा। इसलिए विवाह के बाद स्त्री को अपने पति की लंबी उम्र की कामना के साथ रोज मांग भरना चाहिए।
काजल - काजल आंखों का श्रृंगार है। इससे आंखों की सुंदरता तो बढ़ती ही है। साथ ही काजल की बुरी नजर से भी बचाता है। इसे भी धर्म ग्रंथों में सौभाग्य का प्रतीक माना गया है।
मेहंदी- मेहंदी के बिना सिंगार अधूरा माना जाता है। इसलिए त्योहार पर परिवार की सुहागिन स्त्रियां अपने हाथों और पैरों में मेहंदी रचाती है। इसे सौभाग्य का शुभ प्रतीक तो माना ही जाता है। साथ ही, मेहंदी लगाना त्वचा के लिए भी अच्छा होता है
लाल कपड़े- शादी के समय दुल्हन को सुसज्जित शादी का लाल जोड़ा पहनाना शुभ माना जाता है। शादी के बाद भी कोई त्योहार हो या कोई भी शुभ काम हो और घर की स्त्रियां लाल रंग के कपड़े पहने तो बहुत शुभ माना जाता है।
गजरा- यदि कोई सुहागन स्त्री रोज सुबह नहाकर सुगंधित फूलों का गजरा लगाकर भगवान की पूजा करती है तो बहुत शुभ माना जाता है। कहा जाता है कि ऐसा करने से घर में स्थिर लक्ष्मी का निवास होता है।
मांग टीका- मांग के बीचों बीच पहना जाने वाला यह स्वर्ण आभूषण सिंदूर के साथ मिलकर स्त्री की सुंदरता में चार चांद लगा देता है। इसे भी सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है
नथ या कांटा- शादी के बाद यदि कोई स्त्री नाक में नथ या कांटा नहीं पहनती तो उसे अच्छा नहीं माना जाता है, क्योंकि इसे भी सौभाग्य से जोड़ कर देखा जाता है।
कान के गहने - कान में पहने जाने वाले आभूषण कई तरह की सुंदर आकृतियों में आते हैं। विवाहित स्त्री के लिए इसे शुभता का प्रतीक माना जाता है। साथ ही, कान छेदन से कई बीमारियां भी दूर रहती हैं।
हार- गले में पहना जाने वाला सोने या मोतियों का हार पति के प्रति सुहागन स्त्री के वचनबद्धता का प्रतीक माना जाता है। शादी के समय वधू के गले में वर गलसूत्र (काले रंग की बारीक मोतियों का हार जो सोने की चेन में गुंथा होता है) पहनाने की रस्म निभाता है। इसी से उसके विवाहित होने का संकेत मिलता है। इसलिए गले में हार या मंगलसूत्र पहनना शुभ माना जाता है
बाजूबंद - कड़े के समान आकृति वाला यह आभूषण सोने या चांदी का होता है। यह बांहों में पूरी तरह कसा रहता है, इसी कारण इसे बाजूबंद कहा जाता है। किसी भी त्योहार या धार्मिक आयोजन पर सुहागन स्त्रियों का इसे पहनना शुभ माना जाता है।
अंगूठी - शादी के पहले सगाई की रस्म में वर-वधू एक-दूसरे को अंगूठी पहनाते हैं। यह बहुत प्राचीन परंपरा है। अंगूठी को सदियों से पति-पत्नी के आपसी प्यार और विश्वास का प्रतीक माना जाता रहा है। शादी के बाद भी स्त्री का इसे पहने रहना शुभता का प्रतीक माना जाता है।
कमरबंद - कमरबंद कमर में पहना जाने वाला आभूषण है, जिसे स्त्रियां विवाह के बाद पहनती है। इससे उनकी छरहरी काया और भी आकर्षक दिखाई देती है। कमरबंद इस बात का प्रतीक कि स्त्री अपने घर की स्वामिनी है। किसी भी शुभ अवसर पर यदि घर की स्त्री कमरबंद पहने तो उसे लक्ष्मी का स्वरूप माना जाता है।
बिछुआ - पैरों के अंगूठे में रिंग की तरह पहने जाने वाले इस आभूषण को अरसी या अंगूठा कहा जाता है। इस आभूषण के अलावा स्त्रियां छोटी उंगली को छोड़कर तीनों उंगलियों में बिछुआ पहनती है। बिछुआ स्त्री के सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है।
पायल- पैरों में पहने जाने वाले इस आभूषण के घुंघरुओं की सुमधुर ध्वनि को बहुत शुभ माना जाता है। हर सौभाग्यवती स्त्री को पैरों में पायल जरूर पहनना चाहिए।
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी
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