गरुड़ वाहिनी वैष्णवी, त्रिकुटा पर्वत धाम। काली, लक्ष्मी, सरस्वती, शक्ति तुम्हें प्रणाम। जी हां, जिस स्थान पर मां वैष्णो देवी ने हठी भैरवनाथ का वध किया, वह स्थान पवित्र गुफा अथवा भवन के नाम से प्रसिद्ध है. इसी स्थान पर मां महाकाली (दाएं), मां महासरस्वती (मध्य) और मां महालक्ष्मी (बाएं) पिंडी के रूप में गुफा में विराजमान हैं. इन तीनों के सम्मिलत रूप को ही मां वैष्णो देवी कहा जाता है. कहते है मां वैष्णो देवी ने तीन पिंड (सिर) सहित एक चट्टान का आकार ग्रहण किया और सदा के लिए ध्यानमग्न हो गईं. इस बीच पंडित श्रीधर अधीर हो गए. वे त्रिकुटा पर्वत की ओर उसी रास्ते आगे बढ़े, जो उन्होंने सपने में देखा था, अंततः वे गुफा के द्वार पर पहुंचे. उन्होंने कई विधियों से पिंडों की पूजा को अपनी दिनचर्या बना ली. देवी उनकी पूजा से प्रसन्न हुईं. वे उनके सामने प्रकट हुईं और उन्हें आशीर्वाद दिया. खास यह है कि तीनों पिंडियां देखने में भले अलग हो, लेकिन इन तीन रुपों में कोई फर्क नहीं है। तीनों दिव्य पिण्डियां बिना किसी सहारे के हवा में है, जो एकबारगी अद्भुत, अकल्पनीय व अविश्वसनीय भले लगे, लेकिन हकीकत है। आध्यात्मिक दृष्टि से अलौकिक शक्ति का रुप यह तीनों पिण्डियां इच्छाशक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रियाशक्ति की प्रतीक है। पुजारी का दावा है मां की तीनों पिंडिया हवा में है और तभी से श्रीधर और उनके वंशज देवी मां वैष्णो देवी की पूजा करते आ रहे हैं. आज भी बारहों मास वैष्णो देवी के दरबार में भक्तों का तांता लगा रहता है. सच्चे मन से याद करने पर माता सबका बेड़ा पार लगाती हैं
यहां अन्य देवी मंदिरों की भांति देवी की साकार और श्रृंगारित प्रतिमा न होकर मां वैष्णवी तीन पिण्डियों के सामूहिक स्वरुप मां काली (दाएं), मां सरस्वती (बाएं) और मां लक्ष्मी (मध्य) के रूप में भक्तों को दर्शन देती है। कहते है जो श्रद्धालु मां का पूजा विधि-विधान व तौर-तरीकों से कर लिया उसकी हर प्रकार की मुरादें पूरी होने के साथ ही दूर हो जाते है सारे पाप और कष्ट। मां का ये धाम अनोखा व अद्भूत इसलिए भी है कि माता वैष्णवी अधर्म और दुष्टों का नाश कर जगत कल्याण के लिए आज भी वैष्णव धाम में वास करती है। मां अपने किसी भी भक्त को खाली हाथ नहीं भेजती, तभी तो मां के दर्शन को हर रोज लाखों श्रद्धालु पहुंचते है। कहा यह भी जाता है कि मां के दर्शन मात्र से शत्रु तो परास्त होते ही है, मिल जाता है राजसत्ता सुख का वरदान। मां के आशीर्वाद से बिगड़े काम भी तो बनते ही हैं, सफलता की राह में आ रही बाधाएं भी दूर हो जाती है। मुश्किलों को हरने वाली मां के शरण में आने वाला राजा हो या रंक मां के नेत्र सभी पर एक समान कृपा बरसाते है। मां की कृपा से असंभव कार्य भी पूरे हो जाते है। ताज्जुब इस बात का है कि देश के कोने-कोने से तो श्रद्धालुओं का मां के दर्शन को आना होता ही है, यहां वही भक्त पहुंच पाता है, जिसे मां का बुलावा होता है और जो एकबार मां के द्वार पहुंच गया, वो फिर कहीं और नहीं जाता।
कहते है दरबार में नित्य होने वाली मां के चारों रुपों की आरती का दर्शन कर लेने मात्र से हजार अश्वमेघ यज्ञ के फलों की प्राप्ति होती है। चैत यानी वासंतिक व शारदीय नवरात्र के नौ दिनों तक विशाल मेला लगता है। इस मेले में लाख-दो लाख नहीं बल्कि 25-30 लाख से भी अधिक श्रद्धालु पहुंचते है। कहते है मां वैष्णवी एक मात्र ऐसी जागृत शक्तिपीठ है जिसका अस्तित्व सृष्टि आरंभ होने से पूर्व और प्रलय के बाद भी रहेगा। शक्ति को समर्पित यह मनोरम व दिव्य स्थल जम्मू-कश्मीर के कटरा स्थित मां वैष्णवी या त्रिकूट पर्वत पर है। यह उत्तरी भारत में सबसे पूजनीय पवित्र स्थलों में से एक है। मंदिर, 5,200 फीट की ऊंचाई और कटरा से लगभग 12 किलोमीटर (7.45 मील) की दूरी पर है। यह भारत में तिरूमला वेंकटेश्वर मंदिर के बाद दूसरा सर्वाधिक देखा जाने वाला धार्मिक तीर्थ-स्थल है, जो वैष्णो देवी या माता रानी और वैष्णवी के रूप में भी जानी जाती हैं। जहां तक मातारानी के पहाड़ों पर विराजमान होने का सवाल है तो मां वैष्णव देवी ही नहीं बल्कि गुवाहाटी में कामख्या, हरिद्वार में मनसा देवी सहित लगभग सभी माताओं के मंदिर पहाड़ों पर होते हैं। यहां तक की मां दुर्गा का एक नाम पहाड़ोंवाली भी है। दरअसल, हमारे वेद-पुराणों में पंच-तत्व के महत्व को बताया गया है। सृष्टि की रचना पंचतत्वों से हुई है तो इंसान के शरीर भी इन्हीं पंचतत्वों से बने हुए हैं। ये पंच तत्व हैं जल, वायु, अग्नि, भूमि और व्योम अर्थात आकाश। इन पांचों तत्वों के अधिपति एक-एक देवता भी हैं। जल के अधिपति गणेश हैं तो वायु के विष्णु. भूमि के शंकर हैं तो अग्नि के अग्निदेवता वहीं व्योम के देवता हैं सूर्य। शक्ति यानी दुर्गा को संपूर्ण धरती की अधिष्ठात्री माना गया है। साथ ही वे शक्ति का प्रतीक हैं। जानकारों की मानें तो पहाड़ों को धरती का मुकुट और सिंहासन माना जाता है। मां इस संपूर्ण सृष्टि की अधिष्ठात्री हैं, इसलिए वे सिंहासन पर विराजती हैं। यही वजह है कि लगभग सभी महत्वपूर्ण और प्राचीन देवी मंदिर पहाड़ों पर ही स्थित है।
धाम में है कई पड़ाव
मां वैष्णो देवी मंदिर तक पहुंचने वाली घाटी में कई पड़ाव भी हैं, जिनमें से एक है अर्धकुंवारी। इस गुफा को गर्भजून के नाम से जाना जाता है। क्योंकि इस गर्भजून गुफा मां 9 महीने तक उसी प्रकार रही थी जैसे कि एक शिशु माता के गर्भ में रहता है। इस पवत्रि गुफा की लंबाई 98 फीट है। यहां पर अंदर जाने और बाहर आने के लिए दो कृत्रमि रास्ते बनाएं गए है। साथ ही यहां पर एक बड़ा सा चबूतरा भी बना हुआ है। जिसे माता वैष्णों का आसन माना जाता है। मान्यता है कि इस गुफा में जाने से मनुष्य को फिर गर्भ में नहीं जाना पड़ता है। अगर मनुष्य गर्भ में आता भी है तो गर्भ में उसे कष्ट नहीं उठाना पड़ता है और उसका जन्म सुख एवं वैभव से भरा होता है। मां माता वैष्णो देवी के दरबार में प्राचीन गुफा का काफी महत्व है। इसको लेकर मान्यता है कि प्राचीन गुफा के अंदर भैरव का शरीर मौजूद है। माता ने यहीं पर भैरव को अपने त्रिशूल से मारा था और उसका सिर उड़कर भैरव घाटी में चला गया और शरीर यहां रह गया था।
पौराणिक मान्यताएं
पौराणिक मान्यता है कि मां वैष्णो देवी ने भारत के दक्षिण में रत्नाकर सागर के घर जन्म लिया। उनके लौकिक माता-पिता लंबे समय तक निःसंतान थे। दैवी बालिका के जन्म से एक रात पहले, रत्नाकर ने वचन लिया कि बालिका जो भी चाहे, वे उसकी इच्छा के रास्ते में कभी नहीं आएंगे. मां वैष्णो देवी को बचपन में त्रिकुटा नाम से बुलाया जाता था। बाद में भगवान विष्णु के वंश से जन्म लेने के कारण वे वैष्णवी कहलाईं। जब त्रिकुटा 9 साल की थीं, तब उन्होंने अपने पिता से समुद्र के किनारे पर तपस्या करने की अनुमति चाही। त्रिकुटा ने राम के रूप में भगवान विष्णु से प्रार्थना की। सीता की खोज करते समय श्री राम अपनी सेना के साथ समुद्र के किनारे पहुंचे। उनकी दृष्टि गहरे ध्यान में लीन इस दिव्य बालिका पर पड़ी। त्रिकुटा ने श्री राम से कहा कि उसने उन्हें अपने पति के रूप में स्वीकार किया है। श्री राम ने उसे बताया कि उन्होंने इस अवतार में केवल सीता के प्रति निष्ठावान रहने का वचन लिया है। लेकिन भगवान ने उसे आश्वासन दिया कि कलियुग में वे कल्कि के रूप में प्रकट होंगे और उससे विवाह करेंगे। इस बीच, श्री राम ने त्रिकुटा से उत्तर भारत में स्थित माणिक पहाड़ियों की त्रिकुटा श्रृंखला में अवस्थित गुफा में ध्यान में लीन रहने के लिए कहा। रावण के विरुद्ध श्रीराम की विजय के लिए मां ने नवरात्र मनाने का निर्णय लिया। इसलिए उक्त संदर्भ में लोग, नवरात्र के 9 दिनों की अवधि में रामायण का पाठ करते हैं। श्रीराम ने वचन दिया था कि समस्त संसार द्वारा मां वैष्णो देवी की स्तुति गाई जाएगी। त्रिकुटा, वैष्णो देवी के रूप में प्रसिद्ध होंगी और सदा के लिए अमर हो जाएंगी। मान्यता यह भी है कि माता वैष्णो के एक परम भक्त श्रीधर, जो कटरा से 2 किमी दूर हसली गांव में रहता था, की भक्ति से प्रसन्न होकर मां ने एक मोहक युवा लड़की के रूप में उनको दर्शन दी। युवा लड़की ने विनम्र पंडित से भंडारा (भिक्षुकों और भक्तों के लिए एक प्रीतिभोज) आयोजित करने के लिए कहा। पंडित गांव और निकटस्थ जगहों से लोगों को आमंत्रित करने के लिए चल पड़े। उन्होंने सभी गांववालों व साधु-संतों को भंडारे में पधारने का निमंत्रण देने के साथ ही एक स्वार्थी राक्षस भैरवनाथ व उसके शिष्यों को भी आमंत्रित किया। इस विशालतम आयोजन की रुपरेखा देख एकबारगी गांववालों को विश्वास ही नहीं हुआ कि निर्धन श्रीधर भण्डारा कर रहा है। भैरव नाथ ने श्रीधर से पूछा कि वे कैसे अपेक्षाओं को पूरा करने की योजना बना रहे हैं। उसने श्रीधर को विफलता की स्थिति में बुरे परिणामों का स्मरण कराया। भंडारे में भैरवनाथ ने खीर-पूड़ी की जगह मांस-मदिरा का सेवन करने की बात की तब श्रीधर ने इस पर असहमति जताई। भोजन को लेकर भैरवनाथ के हठ पर अड़ जाने के कारण श्रीधर चिंता में डूब गए, तभी दिव्य बालिका प्रकट हुईं और भैरवनाथ को समझाने की कोशिश की किंतु भैरवनाथ ने उसकी एक ना मानी। तब कन्यारुपी वैष्णवी देवी ने श्रीधर से कहा कि वे निराश ना हों, सब व्यवस्था हो चुकी है। उन्होंने कहा कि 360 से अधिक श्रद्धालुओं को छोटी-सी कुटिया में बिठा सकते हो। उनके कहे अनुसार ही भंडारा में अतिरिक्त भोजन और बैठने की व्यवस्था के साथ निर्विघ्न आयोजन संपन्न हुआ और श्रीधर की लाज रखने के लिए मां वैष्णो देवी कन्या का रूप धारण करके भण्डारे में आई। साथ ही दुनिया को अपने अस्तित्व का प्रमाण दिया। भंडारा सकुशल संपंन होने पर भैरवनाथ ने स्वीकार किया कि बालिका में अलौकिक शक्तियां थीं और आगे और परीक्षा लेने का निर्णय लिया। उसने त्रिकुटा पहाड़ियों तक उस दिव्य बालिका का पीछा किया। रास्ते में जब भैरवनाथ ने उस कन्या को पकड़ना चाहा, तब वह कन्या वहां से त्रिकूट पर्वत की ओर भागी और उस कन्यारूपी वैष्णो देवी हनुमान को बुलाकर कहा कि भैरवनाथ के साथ खेलों मैं इस गुफा में नौ माह तक तपस्या करूंगी। इस गुफा के बाहर माता की रक्षा के लिए हनुमानजी ने भैरवनाथ के साथ नौ माह खेला। इस तरह 9 महीनों तक भैरवनाथ उस रहस्यमय बालिका को ढूंढ़ता रहा, जिसे वह देवी मां का अवतार मानता था। कहते हैं उस वक्त हनुमानजी मां की रक्षा के लिए मां वैष्णो देवी के साथ ही थे। हनुमानजी को प्यास लगने पर माता ने उनके आग्रह पर धनुष से पहाड़ पर एक बाण चलाकर जलधारा को निकाला और उस जल में अपने केश धोए। आज यह पवित्र जलधारा बाणगंगा के नाम से जानी जाती है, जिसके पवित्र जल का पान करने या इससे स्नान करने से भक्तों की सारी व्याधियां दूर हो जाती हैं। नदी के किनारे, जिसे चरण पादुका कहा जाता है, देवी मां के पैरों के निशान हैं, जो आज तक उसी तरह विद्यमान हैं। इसके बाद वैष्णो देवी ने अधकावरी के पास गर्भ जून में शरण ली, जहां वे 9 महीनों तक ध्यान-मग्न रहीं और आध्यात्मिक ज्ञान और शक्तियां प्राप्त कीं। भैरव द्वारा उन्हें ढूंढ़ लेने पर उनकी साधना भंग हुई। जब भैरव ने उन्हें मारने की कोशिश की, तो विवश होकर वैष्णो देवी ने महाकाली का रूप धारण कर पवित्र गुफा के द्वार पर प्रकट हुईं और भैरव का सिर धड़ से ऐसे अलग किया कि उसकी खोपड़ी पवित्र गुफा से 2.5 किमी की दूरी पर भैरव घाटी नामक स्थान पर जा गिरी। आज इस पवित्र गुफा को अर्धक्वांरी के नाम से जाना जाता है। अर्धक्वांरी के पास ही माता की चरण पादुका भी है। यह वह स्थान है, जहां माता ने भागते-भागते मुड़कर भैरवनाथ को देखा था। भैरव ने मरते समय क्षमा याचना की। देवी जानती थीं कि उन पर हमला करने के पीछे भैरव की प्रमुख मंशा मोक्ष प्राप्त करने की थी। उन्होंने न केवल भैरव को पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति प्रदान करते हुए न सिर्फ उसे अपने से उंचा स्थान दिया, बल्कि वरदान देते हुए कहा कि मेरे दर्शन तब तक पूरे नहीं माने जाएंगे, जब तक कोई भक्त मेरे बाद तुम्हारे दर्शन नहीं करेगा। अतः श्रदालु आज भी भैरवनाथ के दर्शन को अवशय जाते हैं। वह स्थान आज पूरी दुनिया में भवन के नाम से प्रसिद्ध है। भैरवनाथ का वध करने पर उसका शीश भवन से 3 किमी दूर जिस स्थान पर गिरा, आज उस स्थान को भैरोनाथ मंदिर के नाम से जाना जाता है। इस बीच वैष्णो देवी ने तीन पिंड (सिर) सहित एक चट्टान का आकार ग्रहण किया और सदा के लिए ध्यानमग्न हो गईं। उसके बाद से श्रीधर और उनके वंशज मां वैष्णो देवी की पूजा करते आ रहे हैं।
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी
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