फेलिक्स का कहना है कि जब तक पक्की जाँच न हो गई हो, दवाएँ न दी जाएँ।
फेलिक्स यह भी कहते हैं कि अस्पताल और अन्य स्वास्थ्य सेवा केंद्रों में संक्रमण नियंत्रण संतोषजनक होना चाहिए। परंतु असलियत ठीक इसके विपरीत है: स्वास्थ्य सेवा केंद्रों में संक्रमण नियंत्रण असंतोषजनक है जिसके कारण, सबके लिए अनेक प्रकार के रोगों का खतरा बढ़ता है। सामुदायिक स्तर पर भी संक्रमण नियंत्रण असंतोषजनक है। थॉमस जोसफ, विश्व स्वास्थ्य संगठन के रोगाणुरोधी प्रतिरोध विशेषज्ञ हैं। उनका कहना है कि रोगाणुरोधी प्रतिरोध के कारण न केवल सामान्य संक्रमण लाइलाज हो सकते हैं बल्कि जीवनरक्षक चिकित्सकीय सेवाएं, जैसे कि कैंसर कीमोथेरेपी, सीज़ेरियन, अंग प्रत्यारोपण, और अन्य शल्य चिकित्साएँ दुर्लभ हो सकती हैं। थॉमस जोसफ ने बताया कि यदि दवाएं गुणात्मक दृष्टि से संतोषजनक नहीं हैं या लोगों को आवश्यकतानुसार दवाएं नियमित नहीं मिल रही हों, स्वच्छ जल न मिल रहा हो, साफ़-सफ़ाई रख पाने में असमर्थता हो, संक्रमण और रोग नियंत्रण असंतोषजनक हो, तो रोगाणुरोधी प्रतिरोध पनपने का ख़तरा अत्यधिक बढ़ जाता है। थॉमस ने भी फ़ेलिक्स की सलाह को दोहराया: पक्की, सही और समय से जांच के पश्चात ही सही दवाएं देना उचित है।
घटिया और नक़ली दवाएँ
घटिया और नक़ली दवाओं के कारण भी बहुत नुक़सान हो रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की अलेक्ज़ेंड्रा कैमरून ने सीएनएस (सिटीज़न न्यूज़ सर्विस) को ऑनलाइन सत्र में बताया कि रोगाणुरोधी प्रतिरोध के कारण जो आयुर्विज्ञान में प्रगति हुई है, वह पलट रही है। रोग लाइलाज हो रहे हैं या उनका इलाज अत्यंत दुर्लभ। दवा प्रतिरोधक रोग का इलाज बहुत जटिल हो सकता है, लंबी अवधि तक चल सकता है, खर्चीला हो सकता है, और इलाज सफल होने की संभावना भी कम होती है। रोग लाइलाज तक हो सकता है। दवा प्रतिरोधक रोगों का जो भार हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था पर है वह पूर्णत: अनावश्यक है क्योंकि दवा प्रतिरोधकता को रोका जा सकता है। घटिया और नक़ली दवाओं से समस्या अधिक विकराल रूप धारण कर लेती है - यह समस्या अक्सर अदृश्य रहती है क्योंकि स्वास्थ्यकर्मी को इसका संज्ञान भी नहीं होता।
एक ओर तो रोग-ग्रस्त लोगों को अक्सर दवाएँ मुहैया नहीं होती और दूसरी ओर, दवाओं का दुरुपयोग होता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की अलेक्ज़ेंड्रा कैमरून ने कहा कि यह कैसी विडंबना है कि जितने लोग रोगाणुरोधी प्रतिरोध से मृत होते हैं, उससे अधिक लोग इलाज के अभाव में मृत होते हैं। सभी देश के प्रमुखों ने, 2 महीने पहले संपन्न हुई संयुक्त राष्ट्र महासभा में, रोगाणुरोधी प्रतिरोध पर एक राजनीतिक घोषणापत्र जारी किया था। 2030 तक, रोगाणुरोधी प्रतिरोध के मृत्यु दर में 10% गिरावट लाने का लक्ष्य है। ग्लोबल एएमआर मीडिया अलायन्स (गामा) का कहना है कि यह लक्ष्य अत्यंत कम है। जब रोगाणुरोधी प्रतिरोध से बचाव मुमकिन है तो मृत्युदर में गिरावट के लिए सिर्फ़ 10% का लक्ष्य क्यों? उदाहरण के तौर पर, हर साल लगभग 4-5 लाख लोगों को दवा प्रतिरोधक टीबी होती है जिनमें से सिर्फ़ एक-तिहाई को जांच-इलाज मुहैया हो पाता है। टीबी जांच, इलाज और संक्रमण रोकधाम की व्यवस्था संतोषजनक हो तो किसी को भी दवा प्रतिरोधक टीबी से जूझने की ज़रूरत नहीं है: 100% बचाव मुमकिन है। इसीलिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2 दशक पहले यह कहा था कि दवा प्रतिरोधक टीबी 100% मानवजनित समस्या है। तो फिर इसका समाधान भी तो 100% मानव जनित होना चाहिए!
सरकारों द्वारा पारित राजनीतिक घोषणापत्र में, कुछ अन्य वादें इस प्रकार हैं:
* 2030 तक, 100% देशों में सभी स्वास्थ्य सेवा केंद्रों में पर्याप्त जल स्वच्छता और साफ़-सफ़ाई रहेगी और 90% संक्रमण नियंत्रण कार्यक्रम संतोषजनक ढंग से लागू होंगे।
* 2030 तक, कम-से-कम 80% देश, बैक्टीरिया और फंगस से होने वाले रोगों के लिए विशेष टेस्ट उपलब्ध करवायेंगे जिससे कि जाँच के बाद और इलाज आरम्भ करने से पहले, यह पता लग सके कि कौन से दवाएँ उस रोग के लिए कारगर रहेंगी (और कौन से दवाओं के प्रति रोग प्रतिरोधकता उत्पन्न हो चुकी है)।
खाद्य सुरक्षा और रोगाणुरोधी प्रतिरोध
दवाओं का दुरुपयोग कृषि और पशुपालन में भी होता है। अगर फसल या मवेशी पशुओं को रोगाणुरोधी प्रतिरोध वाले रोगाणु रोग-ग्रस्त करेंगे तो दवाएँ बेअसर तक हो सकती हैं। संयुक्त राष्ट्र की फ़ूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन की यू क्यू ने सीएनएस को बताया कि रोगाणुरोधी प्रतिरोध के कारण, 2050 तक पशुधन या मवेशी में 11% गिरावट आ सकती है। इसका दुष्प्रभाव खाद्य सुरक्षा पर भी पड़ सकता है और किसानों की आय भी प्रभावित होती है। यू क्यू ने कहा कि अधिकांश किसान, मवेशी या पशुधन पर भी निर्भर रहते हैं और रोगाणुरोधी प्रतिरोध का ख़तरा उनपर भी मंडरा रहा है। रोगाणुरोधी प्रतिरोध के कारण, खाद्य आपूर्ति शृंखला के ज़रिए दवा प्रतिरोधक रोगाणु इंसानों तक पहुँच सकते हैं।
पर्यावरण और रोगाणुरोधी प्रतिरोध
संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण विशेषज्ञ वंडवुसेन आसनाके कीब्रेट ने बताया कि रोगाणुरोधी प्रतिरोध के संदर्भ में अधिकांश विमर्श मानव स्वास्थ्य, पशु स्वास्थ्य और कृषि तक ही सीमित है और पर्यावरण का संदर्भ कम ही संज्ञान में लिया जाता है। रोगाणुरोधी प्रतिरोध के विकसित होने में, दवा प्रतिरोधक रोगाणु के फैलने में, और रोग उत्पन्न होने में पर्यावरण की भी भूमिका है। प्रदूषण के कारण भी, मल-प्रवाह वाले नालों में रोगाणु के लिए दवा प्रतिरोधक होने की अनुकूल स्थिति बनती है। अस्पताल का कचरा हो या सामुदायिक अपशिष्टजल, दवा बनाने वाली कंपनियों का कचरा हो या पशुपालन का, यह सब भी रोगाणुरोधी प्रतिरोध से जुड़े हैं। इसीलिए वंडवुसेन ने कहा कि साफ़-सफ़ाई, मल प्रवाह वाले नालों, सामुदायिक अपशिष्टजल, स्वास्थ्य केंद्रों और दवा बनाने वाले कंपनियों के कचरे, आदि पर ध्यान देना ज़रूरी है।
पशु स्वास्थ्य और रोगाणुरोधी प्रतिरोध
न सिर्फ़ मानव के लिए रोग असाध्य हो रहे हैं, बल्कि पशुओं के लिए भी रोग असाध्य हो रहे हैं। पशुओं में बढ़ते हुए दवा प्रतिरोधक रोग और संबंधित मृत्यु दर एक संकट है। न सिर्फ़ मवेशी या पशुधन बल्कि जो पालतू पशु भी रोगाणुरोधी प्रतिरोध की चपेट में हैं। विश्व पशु स्वास्थ्य संस्था (वर्ल्ड ऑर्गेनाइजेशन फॉर एनिमल हेल्थ) की ऐना लुईसा परेरा मैट्यूस ने बताया कि विश्व में हर 5 में से 1 व्यक्ति की आजीविका भोजन उत्पादक पशुओं पर निर्भर है। उनकी रिपोर्ट के अनुसार, 2025–2050 के दौरान, 3.85 करोड़ लोगों की मृत्यु बैक्टीरिया से संबंधित रोगाणुरोधी प्रतिरोध के कारण होगी। ऐना लुईसा ने सीएनएस को बताया कि रोगाणुरोधी प्रतिरोधक पर पर्याप्त आंकड़ें ही नहीं हैं - ख़ासकर कि वैश्विक दक्षिण के देशों में। उन्होंने पशु स्वास्थ्य और पशुपालन में दवाओं के दुरुपयोग को रोकने पर ज़ोर दिया और बिना पक्की जांच के दवा न देने की बात रखी।
सामाजिक समता के बिना कैसी स्वास्थ्य सुरक्षा?
रोगाणुरोधी प्रतिरोध को सरलता से समझने के लिए किसी एक रोग के कार्यक्रम के परिप्रेक्ष्य में देखें: उदाहरण के तौर पर, टीबी (तपेदिक या ट्यूबरक्लोसिस)। भारत सरकार की इंडिया टीबी रिपोर्ट 2024 के अनुसार, टीबी की सही पक्की जांच (विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा पारित मॉलिक्यूलर टेस्ट) सिर्फ़ 21% लोगों को मिलती है - बाक़ी के 79% रोगियों को माइक्रोस्कोपी जांच मिलती है जो सिर्फ़ 40-50% ही टीबी पकड़ पाती है। यानी कि जितनी टीबी पकड़ती है उतनी ही छूट जाती है। विश्व में तीस लाख लोगों को हर साल कोई टीबी जांच इलाज मिलता ही नहीं। इस बात पर ध्यान दें कि जिनको टीबी की जांच मिलती है वह महीनों विलंब से मिलती है - तब तक अक्सर रोगी अन्य रोगों का इलाज करवा चुका होता है (यानी दवाओं का दुरुपयोग और अनावश्यक व्यय)। टीबी का फैलाव भी नहीं थमता क्योंकि टीबी फैलनी तब रुकेगी जब फेफड़े की टीबी के रोगी को सही इलाज मिलेगा। असंतोषजनक संक्रमण नियंत्रण भी एक बड़ा कारण है टीबी के फैलाव का। समाज में चंद लोगों के लिए अत्याधुनिक स्वास्थ्य व्यवस्था है और अधिकांश लोगों के लिए जर्जर वाली व्यवस्था। जब तक, हर इंसान को सभी रोगों के लिए सही, पक्की और बिना-विलंब के जांच नहीं मिलेगी, तब तक सही इलाज कैसे होगा? तब तक बिना जांच के इलाज बंद कैसे होगा? यही ग़ैर-बराबरी संक्रमण नियंत्रण में भी व्याप्त है। टीकाकरण भी सबको मुहैया नहीं है। सबसे पहले, एक समान स्वास्थ्य व्यवस्था के सपने को साकार करना होगा। स्वास्थ्य व्यवस्था में बढ़ते निजीकरण को रोकना होगा, पलटना होगा क्योंकि सरकारी व्यवस्था ही एक समान वाली व्यवस्था हो सकती है।
शोभा शुक्ला, बॉबी रमाकांत – सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस)
(शोभा शुक्ला, लखनऊ के लोरेटो कॉलेज की भौतिक विज्ञान की सेवा-निवृत्त वरिष्ठ शिक्षिका रहीं हैं और सीएनएस (सिटिज़न न्यूज़ सर्विस) की संस्थापिका-संपादिका हैं। बॉबी रमाकांत सीएनएस से संबंधित हैं।)
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