उदाहरण के लिए शिक्षा को ही ले लें। आदिवासी बच्चों को एक समय में गुणवत्तापूर्ण स्कूली शिक्षा मिलने की बहुत कम उम्मीद थी। 2014 से पहले जो थोड़े बहुत एकलव्य मॉडल आवासीय विद्यालय (ईएमआरएस) थे, वे संख्या की दृष्टि से कम थे और उनमें संसाधनों की भी कमी थी। लेकिन इसके बाद, शिक्षा पर मोदी सरकार द्वारा विशेष ध्यान दिए जाने के कारण इन स्कूलों का महत्वपूर्ण विस्तार हुआ है। आज, 715 स्कूलों की मंजूरी दी गई है, और 476 पहले से ही चल रहे हैं, जिनमें 1.33 लाख से अधिक छात्र पढ़ रहे हैं। ये स्कूल आधुनिक सुविधाओं, डिजिटल कक्षाओं और खेल के बुनियादी ढांचे से लैस हैं, जो यह सुनिश्चित करते हैं कि आदिवासी बच्चों को भी उनके शहरी समकक्षों के बराबर शिक्षा मिले। 17,000 करोड़ रुपये की छात्रवृत्ति ने 3 करोड़ से अधिक आदिवासी छात्रों को और सशक्त बनाया है, जिससे उन्हें उच्च शिक्षा और बेहतर करियर के अवसर मिल रहे हैं। आदिवासी युवाओं के लिए जो रास्ता कभी बंद लगता था, वह अब खुला हुआ है और वे संभावनाओं से भरे भविष्य की ओर कदम बढ़ा रहे हैं। स्वास्थ्य सेवा के मामले में भी कहानी कुछ अलग नहीं है। 2014 से पहले, आदिवासी समुदायों की गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा तक सीमित पहुंच थी, सरकारी सहायता धीमी गति से मिलती थी या पहुंच से बाहर थी। लेकिन तब से, एक नया अध्याय शुरू हुआ है। मोबाइल मेडिकल यूनिट अब आदिवासी क्षेत्रों के दूरदराज के कोनों तक पहुंचती हैं, जिससे स्वास्थ्य सेवाएं सुलभ हो जाती हैं। इसके अतिरिक्त, आदिवासी क्षेत्रों में 1.5 करोड़ से अधिक शौचालय बनाए गए हैं, जिससे स्वच्छता में सुधार हुआ है और बीमारियों का प्रसार कम हुआ है। आदिवासी समुदायों के स्वास्थ्य और कल्याण को प्राथमिकता दी जा रही है, जिससे उनके जीवन में बहुत बड़ा बदलाव आया है।
आदिवासी समुदायों को असंगत रूप से प्रभावित करने वाली बीमारी- सिकल सेल एनीमिया को खत्म करने के लिए देश भर में अभियान चलाया जा रहा है जो प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ है। 2023 में शुरू किए गए राष्ट्रीय सिकल सेल एनीमिया उन्मूलन मिशन का लक्ष्य 2047 तक इस बीमारी का पूरी तरह से उन्मूलन करना है। अब तक 4.6 करोड़ से ज़्यादा आदिवासी व्यक्तियों की जांच की जा चुकी है और उनका निदान और उपचार किया जा रहा है। स्वास्थ्य सेवा संबंधी कार्य का यह स्तर कुछ साल पहले तक दूर का सपना लगता था। इसका लक्ष्य स्क्रीनिंग, काउंसलिंग और देखभाल के ज़रिए 7 करोड़ लोगों को शामिल करना है, जिससे आदिवासी समुदायों को नई उम्मीद मिलेगी। वन अधिकार कानूनों के कठोर क्रियान्वयन के साथ, आदिवासी भूमि अधिकारों को मान्यता देने और उनकी रक्षा करने में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है। 2014 से पहले, आदिवासी समुदायों के पास अपनी भूमि को लेकर सुरक्षा की भावना बहुत कम रहती थी, वे अतिक्रमण और विस्थापन के निरंतर भय में रहते थे। अपनी भूमि पर नियंत्रण नहीं होने के कारण लंबे समय तक इस समुदाय में गरीबी और संस्कृति खोने का सिलसिला बना रहा। लेकिन मोदी सरकार के तहत, एक ऐतिहासिक बदलाव हुआ है। वन अधिकार कानून को सक्रिय रूप से लागू किया गया है, जिसके परिणामस्वरूप आदिवासी परिवारों को 23 लाख से अधिक भूमि के अधिकार दिए गए हैं, जिसमें 1.9 करोड़ एकड़ से अधिक क्षेत्र शामिल है। इस ऐतिहासिक कदम ने आदिवासियों को अपनी भूमि पर खेती करने, पारंपरिक आजीविका का अभ्यास करने और विस्थापन के डर के बिना अपनी पैतृक विरासत की रक्षा करने का अधिकार दिया है। आदिवासी भारत के लिए, भूमि केवल एक संसाधन नहीं है, बल्कि सशक्तिकरण के एक नए युग में सुरक्षा और सम्मान का स्रोत है।
आर्थिक सशक्तिकरण एक और ऐसा क्षेत्र है जहां अत्यधिक परिवर्तन देखने को मिला है। 2014 से पहले, आदिवासी समुदाय अक्सर अपनी आजीविका के लिए वनोपज पर निर्भर रहते थे, लेकिन इन संसाधनों का प्रभावी ढंग से उपयोग करने के लिए उनके पास सहयोग या साधन नहीं थे। आज, राष्ट्रीय बांस मिशन जैसी पहलों ने आदिवासियों के लिए आर्थिक परिदृश्य फिर से परिभाषित किया है। बांस को पेड़ की श्रेणी से हटाकर, सरकार ने आदिवासी परिवारों के लिए बांस की कटाई, प्रसंस्करण और बिक्री के नए रास्ते खोले हैं, जिससे उन्हें आय का एक स्थायी स्रोत मिला है। वन धन विकास केन्द्रों (वीडीवीके) ने भी 45 लाख से अधिक आदिवासी लाभार्थियों का सहयोग किया है, जिससे उन्हें वनोपज के मूल्य संवर्धन और अपनी आय बढ़ाने में मदद मिली है। पीएम-किसान के तहत, लगभग 1.2 करोड़ आदिवासी किसान अब प्रत्यक्ष वित्तीय सहायता प्राप्त करते हैं, जिससे उन्हें कृषि में निवेश करने और अपनी उत्पादकता में सुधार करने का अधिकार मिला है। ये पहलें न केवल आदिवासी अर्थव्यवस्थाओं को बदल रही हैं बल्कि आत्मनिर्भरता और दीर्घकालिक समृद्धि की नींव रख रही हैं। बुनियादी ढांचे के मामले में आदिवासी समुदाय, खासकर नक्सल प्रभावित इलाके लंबे समय से अलग-थलग पड़े हुए थे। खराब सड़क संपर्क, साफ पानी की कमी और गैर भरोसेमंद परिवहन के कारण उन्हें रोजाना मुश्किलों का सामना करना पड़ता था। लेकिन 2014 से इन दूरदराज के इलाकों को मुख्यधारा से जोड़ने के लिए बड़े पैमाने पर प्रयास किए गए। हजारों किलोमीटर सड़कें बनाई गईं, जो आदिवासी गांवों को शहरी केन्द्रों से जोड़ती हैं और शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और व्यापार के नए अवसर खोलती हैं। बुनियादी ढांचे पर सरकार द्वारा ध्यान केन्द्रित किए जाने के कारण दशकों से मौजूद अंतर को पाटने में मदद मिली है, जिससे यह सुनिश्चित हुआ है कि आदिवासी समुदाय अब अपने आसपास की दुनिया से कटे हुए नहीं हैं।
शायद सबसे उत्साहजनक बदलावों में से एक आदिवासी समुदायों की सांस्कृतिक पहचान से हुआ है। वर्षों तक आदिवासी नायकों के योगदान और बलिदान को काफी हद तक भुला दिया गया था। लेकिन मोदी सरकार के तहत अब इन गुमनाम नायकों को सम्मानित करने के लिए एक ठोस प्रयास किया गया है। महान आदिवासी नेता बिरसा मुंडा की जयंती अब जन जातीय गौरव दिवस के रूप में मनाई जाती है, जब भारत के स्वतंत्रता संग्राम में उनके अपार योगदान और बलिदान को याद करते हुए उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है। हबीबगंज जैसे रेलवे स्टेशनों का नाम बदलकर रानी कमलापति रेलवे स्टेशन करना और देश भर में आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी संग्रहालयों का निर्माण करना भी आदिवासी नायकों को वह पहचान देता है जिसके वे हकदार हैं। सांस्कृतिक धारणा में यह बदलाव आदिवासी समुदायों में गर्व और पहचान की भावना पैदा कर रहा है, उन्हें याद दिलाता है कि उनका इतिहास भारत की विरासत का उतना ही अभिन्न अंग है जितना किसी और का। भारत के भूले-बिसरे आदिवासियों को सशक्त बनाने की दिशा में बदलाव केवल एक वादा नहीं है - यह एक वास्तविकता है जिसे हर दिन सरकारी नीतियों और पहलों के माध्यम से आकार दिया जा रहा है। संघर्ष जो कभी आदिवासी समुदायों के जीवन को परिभाषित करते थे, उनका अब तत्परता और विशेष ध्यान देकर समाधान किया जा रहा है, जिससे भारत की आदिवासी आबादी के लिए एक उज्जवल, अधिक समावेशी भविष्य का मार्ग प्रशस्त हो रहा है।
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