क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज सीओपीडी के नाम से भी जाना जाता है। यह एक ऐसी बीमारी है, जिसमें किसी व्यक्ति के फेफड़ों के वायुमार्ग सिकुड़ जाते हैं. ऐसे में व्यक्ति को न सिर्फ सांस लेने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है, बल्कि शरीर के अंदर से कार्बन डाई ऑक्साइड भी बाहर नहीं निकल पाती है. लंबे समय से जारी खांसी, बलगम का बहुत अधिक मात्रा में बनना, सांस लेने में दिक्कत, थकान, बिना किसी कारण के वजन कम होना, ये सभी ब्सीओपीडी के आम लक्षण हैं. सीओपीडी एक जानलेवा बीमारी का रुप लेती जा रही है, जो दुनियाभर में तेजी से लोगों को अपना शिकार बना रही है. विशेषज्ञों की मानें तो सीओपीडी के कारण दुनियाभर में हर साल 15 लाख से अधिक लोगों की मौत हो जाती है. वहीं भारत में प्रतिवर्ष 5 लाख लोग इस बीमारी के चलते अपनी जान गंवा बैठते हैं. चिकित्सकों का कहना है कि लक्षणों का समय पर पता लगा लिया जाए तो इस बीमारी से निजात पाया जा सकता है. डब्ल्यूएचओं के मुताबिक दुनिया की 5वीं सबसे खतरनाक बीमारी सीओपीडी है। सीओपीडी के कारण साल 2021 में 35 लाख मौतें हुई, जो दुनिया भर में होने वाली मौतों का लगभग पांच फीसदी है। 2022 से 23 तक यह संख्या उबढ़कर 45 लाख पहुंच गयी। सीओपीडी का इलाज संभव नहीं है, लेकिन अगर कोई धूम्रपान और वायु प्रदूषण से दूर रहे और संक्रमण से बचाव के लिए टीके लगवाए तो लक्षणों में सुधार हो सकता है। इसका इलाज दवाओं, ऑक्सीजन और पल्मोनरी रिहैबिलिटेशन से भी किया जा सकता है। 70 वर्ष से कम आयु के लोगों में सीओपीडी से होने वाली लगभग 90 फीसदी मौतें कम और मध्यम आय वाले देशों (एलएमआईसी) में होती हैं
जानकारों का कहना है कि दुनियाभर में 329 मिलियन लोग सीओपीडी से पीड़ित है. भारत में प्रतिवर्ष सीओपीडी के 10 मिलियन से अधिक मामले सामने आते है। हार्ट अटैक के बाद देश में सीओपीडी के कारण सबसे अधिक मौतें होती हैं. दावा है कि बीमारी का पता लगने तक मरीज के करीब 50 प्रतिशत फेफड़े खराब हो चुके होते हैं। सीओपीडी से होने वाली 90 फीसदी मौतें निम्न और मध्यम आय वाले देशों में होती हैं. इन दिनों राजधानी सहित सभी बड़े शहरों में प्रदूषित हवा ने लोगों का जीना मुहाल कर रखा है. ऐसे में हमारे फेफड़ों की देखभाल करना और भी जरूरी हो जाता है. इसमें वायुमार्ग में जलन और सूजन होती है, जिसके चलते सांस लेने में तकलीफ, खांसी और घरघराहट की समस्या हो सकती है. इससे बचने का एकमात्र उपाय प्रदूषित इलाके से दूरी बनाएं रखना है। सामान्य इनडोर पॉल्यूटेंट में सेकेंडहैंड धुआं, हाउसहोल्ड कैमिकल्स और फफूंद शामिल हैं. ये सीओपीडी रोगियों के लिए बहुत हानिकारक हो सकते हैं क्योंकि वे हमेशा घर के अंदर रहते हैं और अपना अधिकांश समय बिताते हैं. उचित वेंटिलेशन सुनिश्चित करके घर के अंदर हवा की गुणवत्ता में सुधार करें और अपने घर में जहरीले कैमिकल्स का प्रयोग न करें. यह भी सलाह दी जाती है कि लोगों को धूम्रपान से बचना चाहिए. बाहर निकलते समय जहां पर्यावरण की स्थिति बेहद खराब हो वहां मास्क पहनकर निकलें, इससे आपके फेफड़ों की सुरक्षा हो सकती है. ऐसा मास्क चुनना जरूरी है जो सुरक्षित और आरामदायक तरीके से फिट हो, क्योंकि खराब फिटिंग वाला मास्क फायदे की बजाय नुकसान ज्यादा पहुंचा सकता है. इसके अतिरिक्त, व्यस्ततम यातायात घंटों के दौरान बाहरी गतिविधियों से बचने से भी वायु प्रदूषण के जोखिम को कम करने में मदद मिल सकती है. बढ़ते प्रदूषण में उचित आहार, व्यायाम और हाईड्रेशन प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत बनाने का एक अच्छा तरीका है ताकि प्रदूषित हवा से फेफड़ों को होने वाले नुकसान को काफी हद तक कम किया जा सकता है।
बीएचयू से सेवानिवृत्त वरिष्ठ क्षय रोग विशेषज्ञ डॉ जीएन श्रवास्तव के मुताबिक सीओपीडी फेफड़ों व श्वसन से संबंधित एक ऐसी समस्या है, जिसके मरीज को सांस लेने में परेशानी होती है और ऑक्सीजन उनके शरीर में पूरी तरह नहीं पहुंच पाती. आमतौर पर सांस लेने पर ऑक्सीजन खून के अंदर मिल जाती है और कार्बन डाइऑक्साइड बाहर चली जाती है, लेकिन सीओपीडी इस प्रक्रिया में अवरोध उत्पन्न करती है. सीओपीडी की गंभीर अवस्था कॉरपल्मोनेल की समस्या पैदा कर सकती है, जिसमें हृदय पर दबाव पड़ता है. कॉरपल्मोनेल के लक्षणों में एक लक्षण पैरों और टखनों में सूजन आना है. सीओपीडी की समस्या से बचने के लिए बेहतर होगा कि आप तंबाकू, धूम्रपान व शराब का सेवन न करें. स्पाइरोमेट्री से अपने फेफड़ों की जांच जरूर कराएं. तेज सर्दी से बचे. अपने वजन की निगरानी करें. पौष्टिक भोजन लें और व्यायाम करें. चिकित्सक की सलाह के अनुसार नियमित दवाइयां लें. सीओपीडी का अभी तक कोई इलाज संभव नहीं हो पाया है. हां, मगर वक्त रहते किया गया उपचार रोग की प्रगति को धीमा कर सकता है. इससे ग्रसित व्यक्ति को इनहेलर का इस्तेमाल करने की सलाह दी जाती है. साथ ही मेडिकेशन, इंट्रावीनस अल्फा-1 ऐन्टीट्रिप्सिन अग्युमेंटेशन थेरेपी, फ्लू एवं न्यूमोकोकल वैक्सीन आदि के माध्यम से इसे नियंत्रित करने का प्रयास किया जाता है. समस्या के अति गंभीर होने पर डॉक्टर सर्जरी (फेफड़े का प्रत्यारोपण) की सलाह भी देते हैं.
चिकित्सकों का कहना है कि आज हम जिस हवा में सांस ले रहे है,वो भी विषैली हो गई है. हवा में सूक्ष्म कणों की मौजूदगी के साथ फेफड़ों की क्षमता पर सबसे ज्यादा असर पड़ रहा है. विशेषज्ञ चिकित्सक की मानें तो बहुत से लोगों को लगता है कि सांस की बीमारी या खांसी जैसी समस्या का कारण उम्र बढ़ना है. बीमारी की शुरूआती अवस्था में लक्षणों की तरफ हमारा ध्यान नहीं जाता. सीओपीडी के लक्षण प्रकट होने में अक्सर सालों लग जाते हैं व्यक्ति को बीमारी तब महसूस होती है, जब यह खतरनाक अवस्था में पहुंच चुकी होती है. सीओपीडी अक्सर 35 साल से अधिक उम्र में होता है, यह बीमारी अक्सर उन लोगों में होती है, जिनमें धूम्रपान का इतिहास हो. उन लोगों में भी सीओपीडी की संभावना अधिक होती है जो लम्बे समय तक रसायनों, धूल, धुंआ या खाना पकाने वाले ईंधन के संपर्क में रहते हैं. सीओपीडी के मरीज मौसम बदलने पर बीमार पड़ जाते हैं. ठंडे मौसम का इन पर बुरा असर पड़ता है. जानकारी होने पर ही फेफड़ों को ज्यादा नुकसान पहुंचने से बचाया जा सकता है. शहरों में बढ़ता प्रदूषण दिल और फेफड़ों के लिए घातक है. वायु प्रदूषण का बुरा असर फेफड़ों पर पड़ता है. यह सीओपीडी के मरीजों के लिए और भी घातक है.सीओपीडी से बचने के लिए किसी भी तरह का धूम्रपान न करें, तंबाकू, जलती लकड़ी, ईंधन, निष्क्रिय धूम्रपान से बचें. स्पायरोमेट्री की जांच, इनहेलर का नियमित व सही इस्तेमाल, फ्लू व निमोकाकल का टीकाकरण, प्राणायाम, संतुलित आहार, धूमपान से बचाव।
यदि प्रदूषण कम नहीं किया गया तो आगे आने वाली पीढ़ी को इसका खमियाजा भुगतना पड़ सकता है. आज जो बच्चे पैदा हो रहे हैं, वे धूमपान नहीं कर सकते, लेकिन प्रदूषण के चलते प्रतिदिन पांच-छह सिगरेट पीने जितना उन्हें नुकसान हो रहा है. इसका असर उनके फेफड़ों पर होगा. आगे चलकर वे बीमार हो सकते हैं. क्रोनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) एक लॉन्ग टर्म क्रोनिक फेफड़ों की बीमारी है, जो दुनिया भर में लाखों लोगों को प्रभावित करती है। 2019 के ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज स्टडी के अनुसार, सीओपीडी दुनिया भर में 212 मिलियन से अधिक लोगों को प्रभावित करती है, जिसमें भारत में 5.5 करोड़ मामले हैं, जहां यह मौत का दूसरा सबसे बड़ा कारण है। पल्मोनरी रिहैबिलिटेशन एक प्रोग्राम है जो डॉक्टर और ट्रेंड फिजियोथेरेपिस्ट की सुपरविजन में करा जाता है, जिसे सीओपीडी जैसे फेफड़ों के रोगों से पीड़ित लोगों को बेहतर सांस लेने में मदद करने के लिए डिज़ाइन किया गया है। इसमें डॉक्टर्स पेशेंटस को जागरुकता, व्यायाम और जीवनशैली में बदलाव के बारे में बताते है ताकि वह सीओपीडी को मैनेज कर पाएं। आमतौर पर 6 से 8 हफ्ते तक चलने वाला पल्मोनरी रिहैबिलिटेशन में डॉक्टर्स पेशेंट्स को व्यायाम और सांस लेने की तकनीक सिखाते है जो सांस फूलने को कम कर सकते हैं। सीओपीडी मैनेजमेंट के लिए फिजिकल एक्टिविटी महत्वपूर्ण होती है। सीओपीडी पेशेंट्स में शारीरिक गतिविधि का काम होना मृत्यु दर को बढ़ा सकता है। सीओपीडी मैनेट करने के लिए चलना या साइकिल चलाना जैसी एंड्यूरेंस एक्सरसाइज के साथ-साथ मसल्स फंक्शन और सहनशक्ति में सुधार के लिए स्ट्रेंथ ट्रेनिंग भी शामिल है। धीरे-धीरे ये व्यायाम रोगी की सांस फूलने की दिक्कत को कम करके फिजिकल एक्टिविटी बढ़ाने में मदद करते हैं। फेफड़ों की क्षमता बढ़ाने और सांस की तकलीफ को कम करने के लिए पर्स-लिप ब्रीदिंग और डायाफ्रामिक ब्रीदिंग जैसे तरीके सिखाए जाते हैं। ये तकनीकें रोगियों को रोजमर्रा के काम को अधिक आसानी से मैनेज करने में मदद करती हैं।
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी
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