आज मेरी कलम फिर लिखने चली,
और बोली, आज लिखूं तो क़्या लिखूं?
क़्या मैं उस नारी के बारे में लिखूं?
जिसे पुरुष एहसान तले दबाता है,
या आज लिख दूं उस बेटी के लिए,
जिसे बाप कंधों का बोझ समझता है,
या लिखूं समाज के उन हैवानों पर,
जो लड़कियों को जीने नहीं देते हैं,
क़्या उस घर की चीख पर लिखूं?
जहां से मदद की गुहारे आती हैं,
जहां घर की इज़्ज़त के नाम पर,
औरत दिन रात ज़ुल्म सहती है,
अपने साथ गलत होने पर भी,
किस्मत के नाम पर चुप रहती है,
या लिखूं उसके धैर्य के बारे में?
जहां सारे अधिकार होने पर भी,
एक नारी आवाज़ नहीं उठा पाती है।।
महिमा जोशी
बैसानी, उत्तराखंड
चरखा फीचर्स
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें