कहानी : रहीम खानखानां - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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मंगलवार, 3 दिसंबर 2024

कहानी : रहीम खानखानां

rahim-khankhana
रहीम कलम और तलवार के धनी तो थे ही, मानव-बंधुत्व/प्रेम के भी अनन्य उपासक थे।वे तुर्की, अरबी, फारसी, संस्कृत तथा हिंदी के कुशल कवि थे। बहुज्ञ विद्वान थे। जीवन का उन्हें अत्यधिक क्रियात्मक अनुभव था। कुल मिलाकर रहीम ‘कवियों में कल्पतरु, याचकों के कर्ण तथा गुणीजनों के भोज’ थे। कलाकार की कल्पना-प्रवणता तथा प्रशासकों की यथार्थवादी दृष्टि उन्हें प्राप्त थी। विद्वानों, फकीरों और जरूरतमंदों को प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से हजारों रूपये, अशर्फियाँ और धन-सम्पति खानखानां देता था। कवियों और गुणियों के तो मानो वे मां-बाप थे। उनके पास जो भी जाता था उसे लगता मानो अपने घर आया हो और इतना धन पाता था कि उसे बादशाह के दरबार में जाने की आवश्यकता नहीं होती थी......। 


बहुत पहले इस कद्दावर शख्सियत (रहीम) पर मेरा एक रेडियो-फीचर आकाशवाणी के जयपुर केंद्र से प्रसारित हुआ था। इसे श्रोताओं द्वारा खूब सराहा गया। रहीम मुगलिया सलतनत के वाहिद एक ऐसी बुजुर्गवार शख्सियत हुए हैं, जिन्होंने अपने समय में ही जीते-जी तीन पीढ़ियों का मुगलिया-साम्राज्य देखा ।ज़िंदगी के उतार-चढ़ाव भी खूब देखे। 


रहीम की दानवीरता से जुड़े अनेक प्रसंग इतिहास में मिलते हैं। एक रोचक प्रसंग देखिए:- 


एक दिन की बात है कि एक गरीब ब्राह्मण खानखानां की ड्योढ़ी पर पहुंचा। दारोगा ने अन्दर जाने से रोका........ 


दारोगा: ‘अरे-रे, बाबा। तुम अन्दर कहां घुसे जा रहे हो? ......जानते नहीं, यह खानखानां का महल है.......?’ 


ब्राह्मण: ‘जानत हूँ दारोगाजी, अच्छी तरह से जानत हूँ। गरीब बामन हूँ। सहायता के वास्ते आया हूँ। जाके मालिक से कहियो कि तुम्हारा साढू मिलने आया है।‘ 


दारोगा: ‘अरे बाबा, तुम होश में तो हो? मालूम भी है कि तुम क्या कह रहे हो?’ 


ब्राह्मण: ‘हां-हां, खूब मालूम है .....। तुम तो बस जाकर मेरा सन्देश सरस्वती के पुत्र,कवियों के अधीश्वर, गुणियों के पारखी खानखानां से कहि दो.....।‘ 


दारोगा: (स्वगत) अजीब  सरफिरा ब्राह्मण है। खुद भी पिटेगा, मुझे भी पिटवायेगा। (ओफ-ओ! खानखानां तो घूमते हुए इधर ही आ रहे हैं ........! )


खानखानां: (निकट पहुंचकर) क्या बात है अशरफ खां? शक्ल से खुदा-दोस्त दिखने वाला यह बन्दा कौन है? 


दारोगा: ‘हुजूर, मैंने इसे बहुत समझाया। कहता है कि गरीब ब्राह्मण हूँ। मदद चाहिए । हुजूर, ऊपर से कहता है कि खानखानां का साढ़ू हूँ।‘ 


खानखानां: ‘ह-ह-ह। खूब, बहुत खूब! (लम्बा निःश्वास छोड़ते हुए.....) अशरफ खाँ, इस नेक-पाक बंदे ने सही बात कही है.......। खुशहाली और बदहाली दो बहनें हैं। पहली हमारे घर है तो दूसरी इसके घर में । इसी नाते यह हमारे साढू हुए। इसे खासा/अरबी घोड़ा और दो लाख अशर्फियाँ देकर विदा करो.....।‘


ऐसे सहज और जिन्दादिल थे खानखानां । जिन्दादिली का यह आलम था कि एक-एक शेर, एक-एक कविता पर लाखों लुटा देते थे।कहते हैं अपनी प्रशसां में लिखे एक छंद पर खानखानां ने गंग कवि को 36 लाख रुपये दिये थे...।दान देते समय रहीम अपनी आँखें उठाकर नहीं देखते थे। उनका दान सभी धर्मों के लोगों के लिए था। एक बार गंग कवि ने पूछा:

सीखे कहाँ नवाबजू ऐसी देनी देन,

ज्यों-ज्यों कर  उँचो करो त्यों-त्यों नीचे नैन।

रहीम ने उत्तर दिया:

देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन,

लोग भरम हमर हमपर धरैं, यातें नीचे नैन। 


डॉ. विद्या निवास मिश्र के अनुसार रहीम एक ऐसा व्यक्तित्त्व है जो मानो अनुभव का भरा प्याला हो और छलकने के लिए लालायित हो। वंश के हिसाब से विदेशी पर हिन्दुस्तान की मिट्टी का ऐसा नमक हलाल कि अपना मस्तिष्क चाहे अरबी-फारसी या तुर्की को दिया हो, मगर हृदय ब्रजभाषा, अवधि, खड़ी बोली और संस्कृत को दिया। सारा जीवन राजकाज में बीता और बात उसने आम आदमी के जीवन की। हिन्दुस्तान की सरज़मीन पर जन्मा यह मस्त मौला और कद्दावर तुर्क धर्मनिरपेक्षता के पक्षधरों और संवेदनशील हृदय रखने वाले कवियों के लिए चिरकाल तक प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा।


 


डॉ० शिबन कृष्ण रैणा

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