विशेष : ’प्रयागराज महाकुंभ’ : कल्पवास से प्रशस्त होता है मोक्ष का मार्ग - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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सोमवार, 9 दिसंबर 2024

विशेष : ’प्रयागराज महाकुंभ’ : कल्पवास से प्रशस्त होता है मोक्ष का मार्ग

कल्पवास न केवल एक कठिन व्रत है, बल्कि यह एक जीवनदायिनी साधना भी है। यह व्रत व्यक्ति को अपने जीवन के उद्देश्य को समझने और उसे आध्यात्मिक रूप से सशक्त बनाने का अवसर प्रदान करता है। मान्यता है कि महाकुंभ में कल्पवास करने वालों के मोक्ष का द्वार खुल जाता है. 13 जनवरी 2025 को पौष पूर्णिमा के स्नान के साथ इस महाकुंभ का शुभारंभ होगा. संगम की रेती पर हर साल की तरह लाखों भक्त कल्पवास का संकल्प लेकर एक महीने तक यहां रहेंगे, जो एक अद्भुत आध्यात्मिक अनुभव होता है. इस बार कल्पवास करने वाले भक्त पौष पूर्णिमा से माघी पूर्णिमा तक 30 दिन का साधना काल बिताएंगे यानी कल्पवास 13 जनवरी से 12 फरवरी तक रहेगा. कुछ भक्त मकर संक्रांति से शुरुआत कर 40 दिनों तक यहां ठहरेंगे. इस दौरान उनकी दिनचर्या अनुशासन और संयमित होती है. कल्पवासी रोज सूरज उगने से पहले गंगा में स्नान कर दिन की शुरुआत करते हैं और बाकी दिन पूजा-पाठ, सत्संग और कथा में बिताते हैं. भारत के पहले राष्ट्रपति ने किया था कल्पवास


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कल्पवास सनातन धर्म में एक महत्वपूर्ण साधना है, जिसमें भक्त पवित्र नदियों के तट पर एक महीने तक संयमित जीवन जीते हैं. इसका उद्देश्य आत्मशुद्धि और मोक्ष की प्राप्ति है. इस दौरान भक्त संगम के तट पर एक सादा और संतुलित जीवन बिताते हैं, जो उनके मानसिक और शारीरिक कायाकल्प में सहायक माना जाता है. संगम में कल्पवास की परंपरा सदियों पुरानी है, जो माघ मेले में आस्था का मुख्य आकर्षण है. यह पर्व न केवल भक्तों को आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करता है बल्कि उनके जीवन को एक नई दिशा भी देता है. संगम पर एक महीने का यह प्रवास भक्तों को सच्चे सन्यास आश्रम का अनुभव कराता है. हर दिन का एक नियम और अनुशासन होता है, जो उन्हें एक आध्यात्मिक यात्रा पर ले जाता है। यही वजह है कि दुनिया की सबसे बड़ी अलौकिक तंबुओं की नगरी संगम तीरे लाखों साधु-संतो, नागा सन्यासियों का जमघट होने लगा है। इसमें भारतीय संस्कृति का सार व विश्वास समाहित है। यही वजह है कि इस महाकुंभ का गवाह हर व्यक्ति बनना चाहता है।


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गंगा यमुना की रेती सनातन मतावलंबियों से पहली बार कब गुलजार हुई, इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है, लेकिन त्रेता युग में भी कल्पवास जैसी परंपरा थी। मेले का प्रथम लिखित प्रमाण महान बौद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग के लेख से मिलता है जिसमें आठवीं शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन के शासन में कुम्भ का वर्णन है। रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास ने इस बात का प्रमाण इस चौपाई से दिया है :- ‘माघ मकरगत रबि जब होई, तीरथपतिहिं आव सबक कोई। देव दनुज किन्नर नर श्रेनीं, सादर मज्जहि सकल त्रिबेनी।।‘ अर्थात माघ माह में मकर राशि पर भगवान सूर्य आ जाते हैं और तीर्थों के राजा प्रयाग के संगमत तट पर कल्पवास शुरू हो जाता है। लाखों-करोड़ों की संख्या में लोग इस पावन पर्व में उपस्थित होते हैं। हर कोई संगम में डुबकी लगाकर हर पाप, हर कष्ट से मुक्त होना चाहता है। श्रद्धालु इस पावन जल में नहा कर अपनी आत्मा की शुद्धि एवं मोक्ष के लिए प्रार्थना करते हैं। कहते है एक मास के कल्पवास से एक कल्प (ब्रह्मा का एक दिन) का पुण्य मिलता है। इस परंपरा के महत्व की चर्चा वेदों से लेकर महाभारत और रामचरितमानस में अलग-अलग नामों से मिलती है। आज भी कल्पवास नई और पुरानी पीढ़ी के लिए आध्यात्म की राह का एक पड़ाव है, जिसके जरिए स्वनियंत्रण और आत्मशुद्धि का प्रयास किया जाता है। बदलते समय के अनुरूप कल्पवास करने वालों के तौर-तरीके में कुछ बदलाव जरूर आए हैं, लेकिन न तो कल्पवास करने वालों की संख्या में कमी आई है, न ही आधुनिकता इस पर हावी हुई है। कल्पवास के लिए माना जाता है कि संसारी मोह-माया से मुक्त और जिम्मेदारियों को पूरा कर चुके व्यक्ति को ही कल्पवास करना चाहिए। क्योंकि जिम्मेदारियों से जकड़े व्यक्ति के लिए आत्मनियंत्रण थोड़ा कठिन माना जाता है। कल्पवास के दौरान कल्पवासी को जमीन पर शयन करना होता है। इस दौरान फलाहार, एक समय का आहार या निराहार रहने का भी प्रावधान है। कल्पवासी को नियमपूर्वक तीन समय गंगा स्नान और यथासंभव भजन-कीर्तन, प्रभु चर्चा और प्रभु लीला का दर्शन करना चाहिए। कल्पवास की शुरूआत करने के बाद इसे 12 वर्षों तक जारी रखने की परंपरा है। वैसे, इससे अधिक समय तक भी इसे जारी रखा जा सकता है।


भारतीय परम्परा के अनुसार, चार सर्वमान्य आश्रमों के सिद्धांत ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास के अंतर्गत तीसरे आश्रम वालों यानी उन गृहस्थों के लिए जो अपनी आयु के 50 साल पूरे कर चुके हैं। कल्पवास उनके लिए निश्चित किया गया था। गृहस्थ आश्रम व्यतीत कर चुके गृहस्थी लोग उस वक्त अपना अधिकतर समय अरण्य यानी जंगल में गुजारा करते थे। कल्प उसे कहा जाता है जब ईश्वरासक्त होकर पूरे ब्रह्मचर्य के साथ एक प्रकार ही दिनचर्या को एक निश्चित अवधि के लिए किया जाता है। इस प्रकार की दिनचर्या को प्रायः लंबी अवधि वाले धार्मिक अनुष्ठानों के दिनों में किया जाता है। कुंभ भी एक लंबा धार्मिक अनुष्ठान है। इसलिए कुंभ की पूरी अवधि, जो लगभग 50 दिनों की होती है, इसमें भगवान की भक्ति में आसक्त होकर पूरे दिन हवन, मंत्र जाप, स्नान आदि जैसी क्रियाओं को कल्पवास कहा जाता है। पौष मास की ग्यारहवीं तिथि से लेकर माघ मास की बारहवीं तिथि तक की अवधि को प्रायः कल्पवास के लिए उचित समय माना जाता है। प्रयागराज के संगम तट पर माघ के महीने में कल्पवास का विशेष महत्व है। महाकुंभ के दौरान कल्पवास करने से व्यक्ति का कायाकल्प हो जाता है, इसका धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व प्रमाणित है। मान्यताओं के अनुसार कल्पवास महर्षि भारद्वाज द्वारा चलाई गई वो पद्धति है जिससे सांसारिक जीवन में रहकर मनुष्य पूरे साल के पापों को धो सकता है। इतना ही नहीं मनुष्य कल्पवास के माध्यम से ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त होता है, जिससे उसका वंश अनेक पीड़ियों तक फलता-फूलता है। कहा गया है कि कुंभ कल्पवास के दौरान दान आदि कर्मों द्वारा असीम पुण्य अर्जित होता है, जिसके फलस्वरूप इस देह का अंत होने पर साधन मुक्ति प्राप्त करता है। महाकुम्भ कल्पवास ब्रह्मचारियों के लिए तपस्थली, संन्यासियों के लिए तपोभूमि, गृहस्थियों के लिए सांस्कृतिक जीवन जीने का एकमात्र अध्याय और वानप्रस्थ के लिए मुक्ति का साधन है। महाकुम्भ अद्भुत आयोजन है जिसके कुछ विशेष नियम हैं, जैसे हमें क्या खाना चाहिए, कब और क्या करना चाहिए, हमें लोगों के लिए कैसे शब्दों का प्रयोग करना चाहिए, संत के सानिध्य में कैसे बैठना चाहिए, कथाओं और यज्ञों में कैसे भागीदार बनना चाहिए। यह सारी बातें कुम्भ कल्पवास से पहले जानने योग्य है।


आध्यात्मिक दृष्टि से कुंभ के काल मे ग्रहों की स्थिति एकाग्रता तथा ध्यान साधना के लिए उत्कृष्ट होती है। समुद्र मंथन की कथा में कहा गया है कि कुम्भ पर्व का सीधा सम्बन्ध तारों से है। अमृत कलश को स्वर्ग लोक तक ले जाने में इंद्र के पुत्र जयंत को 12 दिन लगे। देवों का एक दिन मनुष्यों के 1 वर्ष के बराबर है इसीलिए तारों के क्रम के अनुसार हर 12वें वर्ष कुम्भ पर्व विभिन्न तीर्थ स्थानों पर आयोजित किया जाता है। कुम्भ पर्व एवं गंगा नदी आपस में सम्बंधित हैं। यहां स्नान करना मोक्ष प्राप्त करने के लिए आवश्यक माना जाता है। हर 144 वर्ष बाद यहां महाकुंभ का आयोजन होता है। शास्त्रों में बताया गया है कि पृथ्वी का एक वर्ष देवताओं का दिन होता है, इसलिए हर बारह वर्ष पर एक स्थान पर पुनः कुंभ का आयोजन होता है। देवताओं का बारह वर्ष पृथ्वी लोक के 144 वर्ष के बाद आता है। ऐसी मान्यता है कि 144 वर्ष के बाद स्वर्ग में भी कुंभ का आयोजन होता है इसलिए उस वर्ष पृथ्वी पर महाकुंभ का अयोजन होता है। महाकुंभ के लिए निर्धारित स्थान प्रयाग को माना गया है। प्रयागराज का उल्लेख भारत के धार्मिक ग्रन्थों वेद, पुराण, रामायण और महाभारत में भी मिलता है। गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों का यहां संगम होता है, इसलिए हिन्दुओं के लिए इस शहर का विशेष महत्त्व है। मानव जीवन के लिए कल्पवास को आध्यात्मिक विकास का माध्यम माना जाता है, जिसके जरिए आत्मशुद्धि का प्रयास किया जाता है.  कल्पवास एक बहुत ही कठिन साधना है. कल्पवास के दौरान व्यक्ति को अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखना पड़ता है. कल्पवास के दौरान साफ सुथरे पीले और सफेद रंग के कपड़ों का अधिक महत्व होता है. कल्पवास के दौरान व्यक्ति दिन में एक बार ही भोजन कर सकता है. साथ ही व्यक्ति को नियमपूर्वक तीन समय गंगा स्नान और यथासंभव भजन-कीर्तन, प्रभु चर्चा और प्रभु लीला का दर्शन करना जरूरी होता है.


साल 1954 में कुंभ मेले में भारत के सबसे पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने अकबर के किले में कल्पवास किया था. उनके कल्पवास के लिए खास तौर पर किले की छत पर कैंप लगाया गया था. यह जगह प्रेसिडेंट व्यू  के नाम से जानी जाती है. पद्म पुराण के अनुसार, कल्पवासी को इक्कीस नियमों का पालन करना चाहिए. कल्पवास में सत्य बोलना, अहिंसा, इन्द्रियों का शमन, दयाभाव, ब्रह्मचर्य का पालन, समेत कई अन्य नियमों का पालन करना पड़ता है. प्राचीन हिंदू वेदों में चार युगों- सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग में कुल वर्षों के बराबर काल “कल्प“ का उल्लेख है. कहा जाता है कि  कल्पवास करने वाले व्यक्ति को पिछले सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है. साथ ही कल्पवास करने वाले व्यक्ति को कुंभ के दौरान हर सूर्योदय के समय गंगा में डुबकी लगाकर सूर्य देव की पूजा करनी चाहिए. मकर संक्रांति का पर्व ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, आद्यशक्ति और सूर्य की आराधना एवं उपासना का पावन व्रत है, जो तन-मन-आत्मा को शक्ति प्रदान करता है। इस दिन प्रयाग में पावन त्रिवेणी तट सहित हरिद्वार, नासिक, त्रयंबकेश्वर, गंगा सागर में लाखों-करोड़ों आस्थावान डूबकी लगाते हैं। इसके साथ ही शुरु हो जाता है धैर्य, अहिंसा व भक्ति का प्रतीक कल्पवास। पौष पूर्णिमा से माघी पूर्णिमा एवं मकर संक्रांति से कुंभ संक्रांति तक लाखों श्रद्धालु प्रभु दर्शन का भाव लिए ‘मोक्ष’ की आस में भजन-पूजन के जरिए 33 कोटि देवी-देवताओं को साधने के लिए कल्पवास करते है। कल्पवास का अर्थ कायाशोधन अथवा कायाकल्प है। सुख-सुविधा से परे, घर-परिवार व नाते-रिश्तेदारों दूर हजारों गृहस्थ गंगा की रेती पर धूनी रमा कर तप करते हैं। संतों के सानिध्य में आध्यात्मिक ऊर्जा हासिल होती है। हर कल्पवासी अपने तीर्थपुरोहित से संकल्प लेकर तप आरंभ करते हैं। सुख हो या दुःख, कल्पवास बीच में छोड़कर घर, परिवार या रिश्तेदार के यहां जाने की अनुमति नहीं होती। नियम का पालन न करने पर कल्पवास खंडित हो जाता है।


कल्पवास की विधि

प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में उठें और बिना तेल और साबुन लगाए संगम स्नान करें।

संगम की रेती से पार्थिव शिवलिंग का निर्माण कर पूजन करें।

प्रभात काल में उगते सूर्य भगवान को अर्घ्य दें।

अल्पाहार करें तथा तामसिक भोजन और मांस-मदिरा का सेवन न करें।

एक समय भोजन करें तथा भोजन खुद पकाएं।

जमीन पर सोएं।

संध्या का समय संतों के दर्शन और कथाओं को सुनने में बिताएं।

भागवत चर्चा करते हुए महाकुंभ में दिन बिताएं।

महाकुम्भ कल्पवास के दौरान किसी के लिए भी बुरे विचार मन में न लाएं तथा बुरा न सोचें।


शरीर स्वस्थ है तो दूसरों की मदद करें।

प्रतिदिन अन्न या वस्त्रों का दान करें क्योंकि तीर्थराज प्रयागराज में संगम तट पर दान की विशेष महिमा शास्त्रों में वर्णित है।


शाही और पवित्र स्नान

मकर संक्राति से प्रारम्भ होकर महाशिवरात्रि तक चलने वाले इस महाकुम्भ में वैसे तो हर दिन पवित्र स्नान है फिर भी कुछ दिवसों पर खास स्नान होते हैं। ऐसे मौकों पर साधु संतों की गतिविधियां तीर्थयात्रियों और पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र होती है। कुम्भ के मौके पर तेरह अखाड़ों के साधु-संत कुम्भ स्थल पर एकत्र होते हैं। प्रमुख कुम्भ स्नान के दिन अखाड़ों के साधु एक शानदार शोभायात्रा के रूप में शाही स्नान के लिए निकलती हैं। भव्य जुलूस में अखाड़ों के प्रमुख महंतों की सवारी सजे धजे हाथी, पालकी या भव्य रथ पर निकलती हैं। उनके आगे पीछे सुसज्जित ऊँट, घोड़े, हाथी और बैंड़ भी होते हैं। संगम की रेती पर निकलती इस यात्रा को देखने के लिए लोगों के हुजूम इकट्ठे हो जाते हैं। ऐसे में इन साधुओं की जीवन शैली सबके मन में कौतूहल जगाती है विशेषकर नागा साधुओं की, जो कोई वस्त्र धारण नहीं करते तथा अपने शरीर पर राख लगाकर रहते हैं। मार्ग पर खड़े भक्तगण साधुओं पर फूलों की वर्षा करते हैं तथा पैसे आदि चढ़ाते हैं। यह यात्रा विभिन्न अखाड़ा परिसरों से प्रारम्भ होती है। विभिन्न अखाड़ों के लिए शाही स्नान का क्रम निश्चित होता है। उसी क्रम में यह संगम में स्नान करते हैं।


कुंभ में स्नान करने के लाभ

- कुंभ में स्नान से मिलता है पुण्य।

- मनुष्य के पापों का प्रायश्चित होता है।

- इंसान की जीवन में बाधाओं का अंत होता है।

- कुंडली के दोष खत्म हो जाते हैं।

- वृष, सिंह, वृश्चिक और कुंभ राशि वालों को विशेष लाभ होता है।

- विष्णु पुराण में कुंभ के महानता में लिखा गया है कि कार्तिक मास के हजारों स्नानों का, माघ के सौ स्नानों का अथवा वैशाख मास में एक करोड़ नर्मदा स्नानों का जो फल प्राप्त होता है, वही फल कुंभ पर्व के एक स्नान से मिलता है।


इसी प्रकार हजारों अश्वमेघ यज्ञों का फल या सौ वाजपेय यज्ञों का फल और पूरी धरती की एक लाख परिक्रमाएं करने का जो फल मिलता है, वही फल कुंभ के केवल एक स्नान का होता है।

- अथर्ववेद के अनुसार - महाकुम्भ बारह वर्ष के बाद आता है, जिसे हम कई बार प्रयागादि तीर्थों में देखा करते हैं। कुम्भ उस समय को कहते हैं जब आकाश में ग्रह-राशियों का अद्भुत योग देखने को मिलता है।

- यजुर्वेद में बताया गया है कि कुंभ मनुष्य को इस लोक में शारीरिक सुख देने वाला और हर जन्म में उत्तम सुखों को देने वाला है।

- अथर्ववेद में ब्रह्मा ने कहा है कि हे मनुष्यों! मैं तुम्हें सांसारिक सुखों को देने वाले चार कुंभ पर्वों का निर्माण कर चार स्थानों हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में प्रदान करता हूं।







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सुरेश गांधी

वरिष्ठ पत्रकार 

वाराणसी

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