समसामयिक सवाल है कि क्या भ्रष्टाचार के मुद्दे उछाल कर किसी भी राज्य की सरकार को सत्ता से उखाड़ा जा सकता है। युवा भारत के सामने यह कोई नया सवाल नहीं है। लेकिन आज का युवा भारत जानता है कि 24 कैरेट सोने से गहने नहीं बनते। पानी में डंडा मारकर पानी को पानी से अलग नहीं किया जा सकता है। खादी पहन कर भ्रष्टाचार के मुद्दे उछाल कर सवाल उठाना और समस्या का समाधान करना दोनों में फर्क होता है। जिस तरह से कथित रंगीन भ्रष्टाचार के मुद्दे उछाल कर विपक्ष के नेता राहुल गांधी नरेन्द्र मोदी की सरकार को चलता करने की बात कर रहे हैं वह तो फिलहाल होने वाला नहीं दिख रहा है। पश्चिम बंगाल में विपक्ष में बैठे भाजपा नेता भी बंगाल की सियासत में राहुल गांधी की तर्ज पर चल रहे हैं। बंगाल में भाजपा की हालात को इस समसामयिक तौर समझा जा सकता है कि बंगाल में नेता प्रतिपक्ष शुभेंदु अधिकारी के गढ़ में भाजपा को गहरा धक्का लगा है। पूर्व मेदिनीपुर के कांथी सहकारी बैंक के चुनाव में तृणमूल उम्मीदवारों ने भारी जीत हासिल की। 108 सीटों में से सत्ताधारी पार्टी तृणमूल ने 101 सीटें जीत ली। बीजेपी को मात्र छह सीटें मिली। जबकि एक अन्य सीट एक निर्दल उम्मीदवार ने जीत दर्ज किया। बंगाल के रास्ता घाट में अगर आप सफर कर रहे हों तो इस बात की तस्दीक कर लें कि, यहां भाजपा की भूमिका क्या है। लोग खिन्नता से कहते मिल जाएगें कि, बंगाल भाजपा विपक्ष की भूमिका तो निभा नहीं रही है बरन यहां के नेतागण सियासत की आग में सिर्फ अपनी रोटी सेंक रहें है। बंगाल भाजपा बंगाल की सत्तारुढ़ ममता सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के मुद्दे तो उछाल रही है लेकिन कुछ मामलों को छोड़ दे तो केन्द्र सरकार के अधीन सीबीआई और ईडी जैसी जांच संस्थाएं भी अबतक कुछ खास नहीं कर सकी है। बंगाल में सीबीआई और ईडी के वर्ष 2022 से इतने मामले सामने आए कि, यह अपने आप में एक रिकार्ड है। हर रोज मीडिया में बंगाल की सत्तारुढ़ ममता सरकार के नेता, मंत्रियों और इनसे जुड़े लोगों के खिलाफ सीबीआई और ईडी के अभियान चलते रहे लेकिन जनता के सामने संतोष जनक कोई उल्लेखनीय उदाहरण नहीं आ सका। यह कहना गलत नहीं होगा कि, ममता सरकार के लोगों के खिलाफ भ्रष्टाचार के तमाम मामलों के बाद भी चुनावी रण में भाजपा, तृणमूल से मात खाती रही। लोकसभा चुनाव में भाजपा को बूरी तरह से मात देने वाली तृणमूल को बंगाल की जनता तमाम चुनावों में वोट देकर निहाल कर रही है। आधा दर्जन उपचुनाव जीतने के बाद अब तृणमूल नेतृत्व को लगने लगा होगा कि भ्रष्टाचार अब वोट का मुद्दा नहीं रह गया है। बंगाल स्कूल भर्ती में भ्रष्टाचार के आरोप, शिक्षा मंत्री की गिरफ्तारी और अस्पतालों में एक युवा लेडी डॉक्टर की हत्या और बलात्कार के आरोपों के बावजूद तृणमूल ने पिछले लोकसभा चुनाव और उसके बाद उपचुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया है। सारदा-रोज वैली या नारदा केस जैसे चिटफंड घोटाले के बाद भी तृणमूल ने चुनाव जीता है।
साफ है कि बंगाल में विपक्ष की भूमिका निभा रही भाजपा भ्रष्टाचार के मुद्दे पर मतदाताओं को उनके घरों से निकाल कर उनके वोट हासिल नहीं कर सकी। भाजपा बंगाल में भ्रष्टाचार के मुद्दे को ममता बनर्जी सरकार के खिलाफ चुनावों में भी इस्तेमाल नहीं सकी। भाजपा नेता मतदाताओं को उनके घरों से मतदान केंद्र बूथ तक लाने में कामयाब नहीं हो सके। क्योंकि पश्चिम बंगाल में विपक्षी दलों के पास उतनी संगठनात्मक ताकत नहीं है। जितना राजनीति की माहिर खिलाड़ी ममता बनर्जी की सरकार को उखाड़ फेंके। हिंदुत्व के मुद्दे पर बंगाल में भाजपा को थोड़ा बल तो मिला है लेकिन यहां उक्त मुद्दे पर ममता सरकार को तमाम कारणों से उखाड़ नहीं फेंका जा सकता है। खासकर भ्रष्टाचार के मामले पर। अब यह भी सवाल उठ रहे है कि क्या भारतीय जनता पार्टी के नेता पश्चिम बंगाल को समझने में कोई भूल कर रहे हैं? क्या भाजपा के केन्द्रीय नेता बंगाली मानसिकता को सही ढंग से समझ नहीं पा रहे हैं?। बंगाल में भाजपा का रहा सहा जनाधार लोकसभा चुनाव में खोने के पीछे बंगाल भाजपा की आपसी गुटबाजी कारण है। फिलहाल, ऐसे ही तमाम सवाल पश्चिम बंगाल की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी को बेचैन कर रहे हैं।
जगदीश यादव
(लेखक वरीय पत्रकार हैं)
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