“बिहार डायन निषेध अधिनियम 2000 के 25 साल: कितनी गई हैं मारी और कितनी हुई हैं बेघर" - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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सोमवार, 9 दिसंबर 2024

“बिहार डायन निषेध अधिनियम 2000 के 25 साल: कितनी गई हैं मारी और कितनी हुई हैं बेघर"

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नई दिल्ली, 9 दिसंबर (रजनीश के झा). निरंतर ट्रस्ट और बिहार महिला फेडरेशन द्वारा दिल्ली के इंडियन विमेन प्रेस कॉर्प्स में “बिहार डायन निषेध अधिनियम 2000 के 25 साल: कितनी गई हैं मारी और कितनी हुई हैं बेघर" विषय पर चर्चा का आयोजन किया गया। इस प्रेस कॉन्फ्रेंस का उद्देश्य बिहार के 10 ज़िलों में किए गए सर्वेक्षण के अहम नतीज़ों को सामने लाना था। यह सर्वे उन महिलाओं के अनुभवों को सामने लाने का काम करती है जो डायन प्रथा का शिकार होती हैं। साथ ही इसका उद्देश्य सार्वजनिक मंचों पर इससे जुड़ी बहस को नए नज़रीये से देखा जा सके।

 

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निरंतर संस्था द्वारा इस सर्व का नेतृत्त्व करने वाली संतोष शर्मा ने कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए सर्वे के नतीज़ों के बारे में विस्तार से बताया। जेंडर आधारित हिंसा पर वर्षों से काम करने वाली संतोष ने कहा कि, "फरवरी 2023 की शाम बिहार फेडरेशन की महिला नेताओं ने बताया कि करीब 20-30 लोगों की भीड़ ने बिहार के गया जिले के डुमरिया ब्लॉक में एक दलित महिला के घर पर हमला किया और डायन होने के शक में उसे जिंदा जला दिया। इस घटना ने फेडरेशन की महिलाओं को भीतर तक झकझोर दिया। इसके बाद दरभंगा, दानापुर, और मुजफ्फरपुर में भी ऐसी घटनाएं देखने को मिलीं। असल में इन मामलों को घरेलू हिंसा से अलग तरह की हिंसा के रूप में देखना बहुत ज़रूरी है।" सर्वे से कुछ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं को साझा करते हुए संतोष ने बताया कि इस सर्वे में शामिल महिलाओं में से 83 फीसदी महिलाएं ऐसी हैं जो शादीशुदा है और बावजूद इसके उनके पास किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा नहीं है। एक तरह से यह सर्वे इस धारणा को भी खारिज करता है कि सिर्फ़ अकेली महिला जिसके पति की मृत्यु हो गई है, या जिसे पति ने छोड़ दिया है, या जो विधवा है; इन महिलाओं को ही डायन बताए जाने का खतरा सबसे ज़्यादा है।

 

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बातचीत को मॉडरेट कर रहीं निरंतर संस्था की डायरेक्टर अर्चना द्विवेदी ने कहा, "डायन बताकर महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा, घर-परिवार या पड़ोस में शुरू हो सकती है और घरेलू झगड़ों या विवादों से जुड़ी हो सकती है, लेकिन इसका अंजाम एक सार्वजनिक हिंसा के रूप में होता है।" उन्होंने यह भी बताया कि इस सर्वे को तैयार करने और गांव-गांव जाकर इसे पूरा करने में बिहार फेडरेशन की महिला नेताओं की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। बिहार महिला फेडरेशन की सचिव एवं इस सर्वे को करने वाली सर्वेकर्ताओं में से एक लक्ष्मी साहू ने ज़मीनी स्तर पर सर्वे करने में किस तरह की जटिलताएं सामने आती हैं, इसे उजागर करते हुए बताया कि "इस सर्वे को करना आसान नहीं था। कई बार महिलाएं अपनी आप-बीती सुनाते हुए रो पड़ती- जैसे उन्हें गांव की गलियों में नग्न घुमाया गया या ज़बरदस्ती उनके बाल मुंडवा दिए गए, या उन्हें मैला खिलाया गया। उनकी बातें सुनकर हम भी रो पड़ते थे। कई महिलाएं तो डर के मारे हमसे कुछ कहती ही नहीं थीं, क्योंकि उन्हें डर था कि उनकी बात गांव में फैल जाएगी।" लक्ष्मी, बिहार के बेतिया जिले में संघ की नेता है। 


“क्या परिवार के लोग उनके काम में उनका साथ देते हैं?” इस सवाल का जवाब देते हुए बिहार के मुजफ्फरपुर में फेडरेशन सदस्य कविता कुमारी ने कहा कि "मुझे बचपन में पोलियो हुआ था। मेरे रिश्तेदार कहते थे कि यह किसी डायन का किया-धरा है। इसलिए मेरे माता-पिता मुझे ओझा के पास ले गए और सही इलाज नहीं मिला। यही वजह है कि आज मैं लंगड़ा कर चलती हूं। जब मेरे माता-पिता सुनते हैं कि मैं किसी डायन प्रथा के खिलाफ या उससे जुड़े कार्यक्रम में जा रही हूं, तो वे खुश और गर्व महसूस करते हैं। मैं भी यह काम इस सोच के साथ करती हूं कि किसी भी महिला को अंधविश्वास के कारण इलाज से वंचित न रहना पड़े।" परिचर्चा में असम की एक सामाजिक कार्यकर्ता मामोनी सैकिया भी शामिल थीं। मामोनी, पिछले 25 साल से ज़मीनी स्तर पर जेंडर आधारित हिंसा पर काम करती आ रही हैं। अपनी बात रखते हुए मामोनी ने कहा कि "काग़ज पर असम में डायन हिंसा एवं प्रताड़ना से जुड़ा कानून सबसे सख्त कानूनों में से एक है। बावजूद इसके एक एफआईआर दर्ज़ कराने में हमें बहुत मेहनत करनी पड़ती है। पुलिस अक्सर हमसे पूछती है, 'मैडम, यह बाकी तरह की हिंसा या घरेलू हिंसा से कैसे अलग है?' सच यही है कि डायन कुप्रथा को रोकने के लिए कानूनी प्रावधान अलग हैं, लेकिन ज्यादातर अधिकारी और पुलिस इस कानून के बारे में जानते ही नहीं हैं।"


मामोनी ने समाज में बदलाव लाने की जरूरत पर भी जोर दिया। एक घटना का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया, "एक बार एक ही रात में 2-3 महिलाओं को डायन होने के शक में पीट-पीटकर मार डाला गया। जब मैं गांव पहुंची और लोगों से बात की, तो मैंने उनसे पूछा कि ये जो औरतें मार दी गई हैं, इन्हें वापस कौन लाएगा? इसपर एक युवा लड़का खड़ा होकर बोला, 'पिछले साल इन डायनों ने हमारे गांव में 25 लोगों को “खा” लिया था, अब उन मरे हुए लोगों को कौन वापस लाएगा?' उस लड़के की बात सुनकर मैंने महसूस किया कि डायन को लेकर अंधविश्वास बहुत गहराई से लोगों, खासकर युवाओं के मन में भी बैठा हुआ है।" बातचीत में बिहार और झारखंड में डायन निषेध अधिनियम के बनने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अधिवक्ता अजय जायसवाल भी शामिल थे। झारखंड में आशा (ASHA) संस्था के संस्थापक अजय ने कहा कि डायन करार दिए जाने का डर महिलाओं में बहुत गहरे तक धंसा रहता है। उन्होंने कहा कि "झारखंड में हमें अक्सर ऐसी महिलाओं के फोन आते हैं जो रात में सो नहीं पाती, क्योंकि उन्हें डर होता है कि किसी भी वक्त उन्हें मार दिया जाएगा। कभी आपको इस लिए डायन बोला जा सकता है कि आप उस आदिवासी समुदाय से हैं जो पारंपरिक रूप से शराब बनाता है, तो इसलिए भी कह दिया जाता है कि आपके पड़ोस में किसी बच्चे की मृत्यु हो गई है। " अजय ने यह भी कहा कि ओझा सबसे पहला व्यक्ति होता है जो किसी महिला को डायन करार देता है। जयसवाल ने राष्ट्रीय स्तर पर डायन हत्या एवं प्रताड़ना विरोधी कानून की मांग की। लेकिन अगर इस कानून को ज़मीनी स्तर पर असरदार बनाना है कि पंचायत एवं ग्राम सेवक की जिम्मेदारी सुनिश्चित करनी चाहिए।


डायन हत्या एवं प्रताड़ना पर हुए इस परिचर्चा का समापन कुछ जरूरी मांगों के साथ हुआ जो इस समस्या को हल करने के लिए सरकार को उठाने चाहिए। ये मांगे हैं-

1. डायन हिंसा और प्रताड़ना को बढ़ावा देने में ओझा की बहुत बड़ी भूमिका होती है। ओझा पहला व्यक्ति होता है जो डायन होने की पुष्टि करता है। ज़रूरी है कि पंचायत स्तर पर अंधविश्वास उन्मूलन अभियान में उनकी हिस्सेदारी और जवाबदेही तय की जाए।

2. जेंडर आधारित हिंसा को लेकर पंचायत की जवाबदेही सख्त रूप से तय की जाए। पंचायत स्तर पर डायन प्रथा उन्मूलन समितियों का गठन किया जाए जो प्रताड़ित की जाने वाली महिलाओं की मदद एवं अंधविश्वास उन्मूलन के लिए जागरूकता अभियान का काम करें। साथ ही राज्य स्तर पर सरकारी जन संचार के माध्यमों की मदद से डायन प्रथा के खिलाफ जागरूकता अभियान चलाया जाए और कानूनी प्रावधानों के बारे में भी बताया जाए।

3. राज्य स्तरीय हेल्पलाइन शुरू की जाए जिसको केवल डायन प्रथा से पीड़ित महिलाओं के खिलाफ हिंसा की घटनाओं में मदद के लिए काम में लिया जाए।

4. बारिश एवं भीषण गर्मी के समय जब बच्चों में हैजा, मलेरिया एवं कालाजार जैसी बीमारियां एवं इनसे होने वाली मृत्यु चरम पर होती हैं तब डायन डायन कुप्रथा के खिलाफ जागरूकता अभियान जोर-शोर से चलाया जाना चाहिए।

5. डायन प्रथा निषेध कानून को और कारगर बनाना।

6. राज्य स्तर पर प्रायोजित जेंडर जस्टिस सेंटरस् के लिए डायन प्रथा जनित हिंसा को एक मुख्य मुद्दा बनाया जाना चाहिए।


निरंतर संस्था के बारे में

निरंतर, शिक्षा के माध्यम से सशक्तीकरण का मार्ग प्रशस्त करने और शैक्षिक प्रक्रियाओं को नारीवादी आलोचनात्मक दृष्टिकोण से देखने और निर्धारित करने में विश्वास रखती है। हम ऐसी रूपांतरकारी औपचारिक व गैर-औपचारिक शैक्षिक प्रक्रियाओं के पक्षधर हैं जो हाशियाई समुदायों की लड़कियों और महिलाओं को भी अपने हालातों को और बेहतर ढंग से समझने व बदलने के लिए तैयार कर सके। निरंतर सामुदायिक स्तर पर भी काम करता है और शोध व पैरवी के क्षेत्र में भी काम करता है। हम ऐसे मुद्दों पर शोध व पैरवी के लिए विशेष रूप से सक्रिय रहे हैं जिन पर राज्य और नागर समाज को और ज़्यादा ध्यान देना चाहिए। समुदाय के स्तर पर नारीवादी नेतृत्व विकसित करना हमारे कार्यभार का एक महत्वपूर्ण अंग है। निरंतर 1993 में अपनी स्थापना के बाद से ही महिला आंदोलन तथा अन्य लोकतांत्रिक अधिकार आंदोलनों में सक्रिय रूप से भागीदार रहा है।

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