नन्द बब जिसे कश्मीरी जनता नन्दमोत यानी नन्द मस्ताना या नन्द मलंग के नाम से अधिक जानती है,का पहनावा एकदम विचित्र था। ऐसा पहनावा जो ज़्यादातर जोगी फकीर,मस्त-मौला किस्म के लोग पहनते है।कद-काठी लम्बी, गठीला शरीर, दमकता चेहरा, गले में दाएं-बाएं जनेऊ,सिर पर हैट, कोट-पेंट,कमरबन्द,माथे पर लम्बा तिलक, हाथ में छड़ी, कमरवन्द के साथ वगल में लटकती एक छुरी व टीन का वना डिब्बा/(नोर)।चाल मस्तानी-फुर्तीली। भाषा-बोली अनबूझी,आंखें कभी स्थिर तो कभी अस्थिर।रूहानियत के उस कलन्दर के लिए सभी बराबर थे। जाति-भेद की संकीर्णताओं से मुक्त उस पूतात्मा के लिए हिन्दू-मुस्लमान सभी समान थे। उसके लिए सभी प्रभु की संतानें थी। न कोई ऊंचा और न कोई नीचा।कहते हैं एक झोली उनके कंधे पर सदैव लटकती रहती जिसमें श्रीमद्भगवद् गीता, गुरु ग्रंथ साहब, बाइबिल, कुरान शरीफ आदि पवित्र ग्रन्थ रहते। हर जाति के लोगों से वे प्यार करते तथा हर धर्म के लोग उनसे मुहब्बत करते। वे भक्तों के और भक्त उनके। उपलब्ध सूचनाओं के अनुसार नन्द बब का जन्म पौष कृष्ण पक्ष दशमी संवत् 1953 मंगलवार तदनुसार एक अप्रेल 1897,शनिवार को हुआ था।उनको पिता का नाम शंकर साहिब तथा माता का नाम यम्बरज़ल था। दस अक्टूबर १९७३ को नंदबब दिल्ली के एक अस्पताल में ब्रह्मलीन हुए। पुष्करनाथ बठ द्वारा रचित 'नन्द ज्योति' नामक पुस्तक में नन्द बब की अन्तिम यात्रा का बड़ा ही मार्मिक वर्णन मिलता है: 'उनका पार्थिव शरीर हवाई जहाज के जरिए उनके भक्त जनों ने श्रीनगर लाया। यहां चोटा-बाजार के शिवालय मन्दिर में उनके शव को बड़े आदर से लोगों ने आखिरी दर्शन के लिए रखा। सारे शहर तथा गांव में समाचार फैल गया। हिन्दू-मुस्लमान अपनी छातियां पीटते हाथों में फूल/आखिरी नजराना लेकर बबजी के दर्शन करके इधर-उधर खड़े होकर रोते-विलखते थे।पूरा शहर लोगों से उमड़ पड़ा। बबजी का आखिरी श्राद्ध तथा क्रिया-कर्म इसी मन्दिर में हुआ। इसके बाद एक मिलिट्री गाड़ी, जिसे फूलों से सजाया गया था, में नन्द बब के शव को रखा गया। यहां से शव-यात्रा शुरू हुई जिसमें हजारों लोग (हिन्दू-मुस्लमान) शामिल हुए।श्मशान घाट पहुंचकर जब इनके शव को चिता पर रखा गया और मुखाग्नि दी गई तो उपस्थित जन समुदाय जोर-जोर से रोने लगा।रोती आवाजें चारो ओर से गूंजने लगी.’स्वामी नन्द बब की जय’, ‘स्वामी नन्द वव की जय’. ,’नन्द बब अमर हैं’, ‘नन्द बब अमर है.!’
नन्द बब की दिव्यता, उनकी रूहानियत, उनकी सिद्ध-शक्ति उनकी करामातों आदि का विवरण सर्वविदित है। वे असहायों के सहायक, दीन-दुखियों के दु:ख-भंजक,अनाथों के नाथ तथा मानव-वन्धुता के उपासक थे। कहते है कि उनकी भविष्य-वाणियां अटल एवं अचूक होती थीं।जो भी उनके पास सच्चे मन से फरियाद लेकर जाता था, नन्द बब उसकी मुराद पूरी कर देते थे। ऐसी अनेक घटनाएं/कथाएं/करामातें आदि इस मस्त-मौला के जीवनचरित के साथ जुड़ी हुई है जिन सब का वर्णन करना यहां पर संभव नहीं है। केवल दो का उल्लेख कर नन्द बब की महानता का अन्दाज लगाया जा सकता है। एक दिन एक नौजवान बब के पास साइकिल पर आया। बब की नजरें ज्यों ही इस नौजवान पर पड़ी उस ने इस को कमरे में बंद कर दिया और बाहर से ताला लगा दिया और बबजी कही चले गए। बब के जाने के वाद नौजवान ने घर वालों से खूव मिन्नत की कि उसे छुड़ाया जाए और आखिर काफी अनुनय-विनय के बाद घर वालों का हृदय पसीजा और उन्होंने उस नौजवान को छोड़ दिया। उधर कुछ देर बाद ही नन्द बब लौट आए और नौजवान को कमरे में न देखकर चिंतित हो उठे। उनके मुंह से अचानक निकल पड़ा: 'विचोर मूद गव जान मरग!'अर्थात् वेचारा मारा गया,भरी जवानी में मारा गया! ये शब्द वे बार-बार दोहराने लगे । तभी बाहर से आकर किसी शख्स ने यह समाचार बब जी को दिया कि जो नौजवान उनके यहां से कुछ देर पहले निकला था, उसका ‘मगरमल बाग’ के निकट एक द्रक के साथ एक्सीडेण्ट हो गया और घटना-स्थल पर ही उस नौजवान की मौत हो गई। समाचार सुनकर सारे घर में सन्नाटा छा गया। ‘काश! नौजवान ने मेरी वात मानी होती और वह बाहर न गया होता’-बब जी मन में साचे रहे थे।
एक दूसरी घटना इस प्रकार से है। एक व्यक्ति स्वामी जी के पास आशीर्वाद के लिए आया। उसकी पत्नी एक असाध्य रोग से पीडित थी। शायद कैसर था उसे। सारे डाक्टरों ने उसे जवाब दे दिया था। अब आखिरी सहारा नन्द बब का था। बब के सामने उस व्यक्ति ने अपनी व्यथा-कथा अश्रुपूरित नेत्रों से कही जिसे सुनकर स्वामीजी का हृदय पसीजा और उन्होंने उस व्यक्ति की मुसीबत को दूर करने का मन बनाया। स्वामीजी ने कागज के टुकड़े पर कुछ लिखा और कहा कि वह जाकर कश्मीर के ही एक अन्य (परम संत) भगवान् गोपीनाथजी से तुरन्त मिले। स्वामी नन्द बब भगवान गोपी नाथ जी को वहुत मानते थे।वह व्यक्ति भगवान गोपीनाथ जी के पास गया जो उस समय साधना में लीन थे। थोड़ी दर वाद जव उस व्यक्ति ने नन्द बब द्वारा दिये गए उस कागज़ को गोपीनाथ जी महाराज को दिखाया तो वे झट-से बोले कि यह काम तो वे खुद भी कर सकते थे,तुम्हें यहां किस लिए भेजा?उस व्यक्ति की चिन्ता वढ़ गई।भगवान गोपी नाथ जी उस व्यक्ति से कुछ नहीं बोले अपितु दमादम हुक्का पीते रहे। वह व्यक्ति भी वही पर जमा रहा। थोड़ी देर वाद भगवान गोपी नाथ उठ खड़े हुए और अपने फिरन/चोले की जेब में से थोड़ी-सी राख को निकालकर कागज में लपटेकर उस व्यक्ति से कहा कि इसे वह अपनी पत्नी को खिला दे,ईश्वर ने चाहा तो सब ठीक हो जाएगा।प्रभु की लीला देखिए कि उस भभूत/राख-रूपी प्रसाद को ग्रहण कर कुछ ही दिनों में उस व्यक्ति की पत्नी स्वस्थ हो गई। उस व्यक्ति की पत्नी का इलाज कश्मीर के सुप्रसिद्ध डाक्टर अली मुहम्मद जान कर रहे थे। जब उन्होंने देखा कि उनका रोगी जो एक असाध्य और भयंकर रोग से जूझ रहा था, एक मस्त-मौला फकीर की करामात से ठीक हुआ तो डाक्टर साहव के मन में भी स्वामी नन्द बब एवं भगवान गोपीनाथ जी से मिलने की इच्छा जागृत हुई। खुदा-दोस्त फकीरों की करामातों को देख डाक्टर साहव मन ही मन खूब चकित हुए और उनकी प्रशंसा करने लगे।
नन्द बब का स्मारक अपनी पूरी दिव्यता के साथ ‘लाले का बाग़’ मुठी (जम्मू) में अवस्थित है तथा कश्मीरी समाज की समूची सांस्कृृितिक धरोहर का साक्षी वनकर उसकी अतीतकालीन आध्यात्मिक समृद्धि की पताका को बड़े ठाठ से फहरा रहा है। यहां पर स्व० स्वामी श्री चमनलाल जी वामजई का नामोल्लेख करना अनुचित न होगा जिनकी सतत प्रेरणा एवं सहयेग से उक्त स्मारक की स्थापना संभव हो सकी है।आज उन्हीं की बदौलत मंदिरों वाले इस जम्मू शहर में एक और 'मन्दिर' अपनी पूरी भव्यता,गरिमा तथा शुचिता के साथ कश्मीर मण्डल की रूहानियत को साकार कर रहा है।सच में, नन्द बब जैसे खुदा-दोस्तों का आविर्भाव मानव-जाति के लिए वरदान-स्वरूप होता है और शारदापीठ कश्मीर को इस बात का गर्व प्राप्त है कि उसकी धरती पर नन्द बब जैसे योगीश्वर अवतरित हुए हैं। चित्र में स्वामीजी हुक्का पी रहे हैं। मेरे विचार से हुक्का गुड्गुडाने या चिलम पीने की यह परम्परा मस्त-मलंगों अथवा साधू-फकीरों के लिए आम बात रही है। वैसे ही जैसे शिवरात्रि के अवसर पर शिवभक्तों के लिए भांग-धतूरे का सेवन कोई गलत बात नहीं मानी जाती।तरंग में आ कर भक्त-योगी ऐहिक बन्धनों से ऊपर उठकर एक अलग ही संसार में विचरण करने लगता है। आज के इस संकटकाल में जब विश्व में चहुँ ओर अशांति व्याप्त है,स्वामी नन्दबब हम सब का और समूची मानवजाति का कष्ट दूर करें और जड़-चेतन का कल्याण करें, यही कामना है।
—डॉ० शिबन कृष्ण रैणा—
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