कुछ कहना था, पर चुप ही रहती हूँ,
कुछ दबी सी ख्वाहिशें, दबे ही रहने देती हूँ,
कुछ बेताबी हैं आज फिर कहीं इस दिल में,
आज इस बेताबी को फिर से जीने देती हूँ,
चलो आज भी मैं अपनी ज़रूरतें पूरी कर लूँ,
और ख्वाहिशें फिर अधूरी ही रहने देती हूँ,
मैं औरों की तरह बन नहीं सकती कभी,
चलो, खुद को आज मैं ही रहने देती हूँ,
सपनों की रंगीनियों में, जो छुपी है यादें,
उन महक से ही बुनती हूँ, सारे फसाने,
आसमान की ऊँचाइयों से सीखा है उड़ना,
हर नयी सुबह को मुस्कुरा कर गले लगाना,
मैंने सीखा है अपने मन की सुनना,
हर ख्वाब को अपने हाथों से गढ़ना,
चलो, आज फिर से जी लेती हूँ,
ख्वाहिशें कुछ अधूरी ही सही,
मगर ज़िंदगी को गुनगुना लेती हूँ।
मनीषा छिम्पा
लूणकरणसर, राजस्थान
चरखा फीचर्स
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