डिस्पेन्सरी के इस सिरे पर दरवाजे के पास ही कम्पाउण्डर किसी बीमार के लिए दवाई तैयार कर रहा था। अभी तक वह चुप था। जब उसने देखा कि आइशा निकल रही है, वह दुलार भरी आवाज़ में बोला, "जो बात तुमने डाक्टर से कही, वही मुझे भी तो कह सकती थी। कभी कभी कम्पाउण्डर बीमारी को डॉक्टर से भी ज्यादा अच्छी तरह समझ लेता है।"
आइशा की उम्र यही कोई बीस-बाईस के आस-पास थी। भरी जवानी में उसे अगर क्षय-रोग ने घेर न लिया होता तो समूचे इस्लामाबाद में किसी भी दूसरी औरत को अपने सामने टिकने न देती, इतनी हसीन और मदभरी थी वह। मगर अब बेचारी के चेहरे पर बादामी आंखों के सिवा और कुछ भी बाकी नहीं रह गया था।
उभरी नसों वाले अपने कमज़ोर हाथों से ज़ीन को घोड़े पर कसते हुए साईस किसी बंगाली सैलानी को यह किस्सा भाव-विभोर होकर सुना रहा था । साईस खुद बहुत दुबला-पतला था-मरियल और बीमार । उसने दो-तीन बार खंखार कर गले में अटके थूक को बाहर फेंका और फिर आगे का किस्सा शुरू किया।
कम्पाउण्डर की बात आइशा को कम्पाउण्डर के करीब खींच लाई, "तुम सचमुच मेरा इलाज कर सकोगे ?" कम्पाउण्डर की बात में उसे अपने कष्ट से छुटकारा पाने की उम्मीद-भरी एक छोटी-सी किरण फूटती हुई नज़र आई।
मगर तुम तो अभी डॉक्टर से मरने की दवा मांग रही थी ?" कम्पाउण्डर किसी रोगी के लिए कांटे पर दवाई का कोई पाउडर तोल रहा था।
“वही सही, तुम मेरी मदद करोगे ना?" आइशा चहक उठी । इस रोग ने उसे बुरी तरह पसपा कर डाला था। ज़िन्दगी उसके लिए मुसीबत बन गई थी। सच भी यही है, इस दुनिया में ऐसे इन्सान की कीमत ही क्या है जिसकी तंदुरुस्ती छिन चुकी हो। रो-रोकर दिन काटने से तो अच्छा है कि एक बार में ही सब-कुछ खत्म हो जाए।
“अच्छा तो तुम्हारी अगर यही मर्जी है तो यही सही। मैं तुम्हें ऐसी दवा बनाकर दूंगा, जिससे तुम्हारे सारे दुख-दर्द दूर हो जाएंगे और इस दुनिया से छुटकारा पा जाओगी।" इस बार कम्पाउण्डर कुछ संजीदा हो उठा और एक शीशी में लाल रंग की कोई दवा तैयार करने लगा।
"इस सवाब के लिए खुदा-ताला तुम्हें लंबी उम्र बख्शेंगे। पैसे जो भी मांगोगे, दे दूंगी।" आइशा की बादामी आंखों में पीड़ा की छाया रह-रह कर तैर रही थी।
“पैसे!" कम्पाउण्डर हंस दिया, “पैसे तो ठीक होने के लगते हैं, मौत के कौन-से पैसे ? वह तो मुफ्त है। यह लो शीशी। मगर हां, किसी से कहना मत कि मैं ने तुम्हें।।।।" "क्यों कहने लगी किसी से। इतनी एहसान-फरामोश नहीं हूं, दस्तगीर साहब की कसम ।" उसने सचमुच दिल से कसम खाई थी।
कम्पाउण्डर ने उसकी बादामी आंखों व कलाबतूनी फिरन (चोले) पर एक दुलार-भरी नज़र डाली”:
"रात को सोते वक्त बिस्तर में चुपके-से पूरी शीशी गटक जाना, समझी।"शीशी थामते वक्त आइशा के बदन से कंपकंपी छूटी और दहशत का एक घना-सा भाव उसके चेहरे पर उभर आया। मौत अगर मुफ्त न होती तो बखुदा कोई भी मरने का नाम न लेता। पैसे लगने चाहिए थे मौत के, मगर लगते हैं ज़िन्दगी के, वह सोचने लगी।
“कितनी हसीन हैं तेरी ये आंखें । काश, यह रोग तुझे न लगा होता।" कम्पाउण्डर धीमे-से बुदबुदाया।
आइशा के कान जैसे खड़े हो गए। उसके चेहरे पर एक पल के लिए लाली छिटक आई । अगर उसे इस दुनिया से अब रुखसत न होना होता तो ऐसी बेहूदा बात करने पर वह कम्पाउण्डर की गत बना देती । मगर, हो सकता है तब शायद कम्पाउण्डर भी ऐसी बात कहने की जुर्रत न। करता।
वह डिस्पेन्सरी से निकल आई । कम्पाउण्डर उसे तब तक टकटकी लगा कर देखता रहा जब तक कि वह उसकी नजरों से ओझल न हुई। कम्पाउण्डर एक जिन्दादिल नौजवान था। जिन्दादिली उसने ज़माने की ठोकरों और कशमकशों से हासिल की थी। उसके न आगे कोई था और न पीछे ही। बचपन से ही कड़वाहट भरी ज़िन्दगी चखता-जीता आ रहा था। ऐसी जिंदगी जिसमें किसी की प्यार-भरी नज़र के लिए दिल तड़पता रहता है।
आइशा के चले जाने के बाद उसने एक गहरी-ठण्डी आह भरी और उस पैमाने को पानी से धोने लगा जिसमें आइशा के लिए उसने अभी-अभी दवा तैयार की थी।
बंगाली सैलानी इस किस्से को चुपचाप सुनता रहा। मगर, अब आइशा के अंजाम के बारे में जानने के लिए वह बेताब हो उठा, "आइशा मर गई या।।।?"
इस बार साईस थोड़ी देर के लिए खांस दिया । दम सम्भाल कर वह आगे कहने लगा,दूसरे दिन सुबह जब कम्पाउण्डर किसी रोगी के लिए दवाई तैयार कर रहा था और डाक्टर कहीं निकल गया था, आइशा डिस्पेन्सरी के अन्दर घुसी। उसके चेहरे पर मासूम हया की छाया आंख-मिचौनी खेल रही थी। कल तक उसे अपने रोग का दुख था, पर आज उसके अंग-अंग में अपनी हसीन आंखों का मदभरा एहसास हिलोरें ले रहा था। रोगी को निपटाकर कम्पाउण्डर ने हैरानी भरी नज़र आइशा पर डाली, "तो वह दवा तुमने पी नहीं ? दिल माना न होगा, क्यों ?"
कम्पाउण्डर के होठों पर हल्की मुस्कान बिखर आई, "दरअसल, जान सब को प्यारी होती है ना।"
"पी कैसे नहीं!" आइशा की पलकें बार-बार हद से ज्यादा झपक रही थीं।
"तो फिर उसने असर क्यों नहीं किया?" कम्पाउण्डर ने यह बात न आइशा से कही और न खुद से । उसका यह कथन उस खाली शीशी की तरफ था जो आइशा अपने साथ लाई थी।
"उसे पीकर तो पहले सारा बदन टूटने-सा लगा। फिर आंखों में एक अजीब तरह की खुमारी भर आई। मैंने सोचा हो गई खत्म । मगर, सुबह देखा कि मैं तो जिन्दा हूँ !" आइशा की पलकें अब भी तेजी के साथ झपक रही थीं।
कम्पाउण्डर के होठों पर अर्थपूर्ण मुस्कराहट उभरी। उसने आइशा की बादामी आंखों पर एक हसरत भरी नज़र डाली, "लगता है दवा ने असर नहीं किया। खैर, फिक्र करने की कोई बात नहीं । अब के उससे भी ज्यादा ताकतवर डोज़ बनाकर दूंगा।" कहते-कहते कम्पाउण्डर शीशे का पैमाना धोने लगा।
आइशा को अब अपनी ज़िन्दगी से मोह हो गया था। अब वह मरना नहीं चाहती थी। अपनी उन बादामी आंखों के लिए वह ज़िन्दा रहना जरूरी समझने लगी थी, जिनकी तारीफ कल कम्पाउण्डर ने उसके सामने छिप-छिप कर की थी। इस बीमारी से छुटकारा पा कर वह फिर से सेहतमंद हो जाना चाहती थी ताकि वह यह जान पाए कि उसकी आंखों की तारीफ करने में कम्पाउण्डर का क्या मतलब था।
"न-न, अब दवा मत बनाना," वह कुछ शर्माई, "देखें, खुदा क्या करता है। शायद ठीक ही हो जाऊं।" यह सुनकर हंसी में बदलती अपनी मुस्कराहट कम्पाउण्डर रोक न सका। दरअसल, कम्पाउण्डर ने उसे गहरी नींद लाने का मिक्सचर दिया था, और कुछ नहीं।
"अच्छा, तुम्हारी अगर यही मर्जी है तो यही सही। मैं भी नहीं चाहता कि तुम · · कम-से-कम तुम्हारी ये बादामी आंखें।"
एक-आध लमहे के लिए कम्पाउण्डर की नज़रें आइशा की नज़रों में घुल गईं। शर्म-हया से आइशा की पलकें झुक गई। बदन का सारा खून चेहरे की तरफ दौड़ा, तभी थोड़ी-सी लाली उसके गालों पर नमूदार हो गई। वह तेज कदमों से डिस्पेन्सरी के बाहर निकल आई। कम्पाउण्डर ने आवाज दी, "कहां रहती हो, यह तुमने नहीं बताया ?"
"कावज मुहल्ला में", आइशा ने पीछे मुड़कर जवाब दिया, “यों रहने वाली इस्लामाबाद की हूं, मगर दो-तीन महीनों से इलाज करवाने के लिए यहां शहर में अपनी मां के साथ रह रही हूं।"
यह सच था कि आइशा की बादामी आंखों के साथ कम्पाउण्डर की दिलचस्पी बहुत ज्यादा बढ़ गई थी। मगर, यह भी उतना ही सच था कि इस दिलचस्पी के पीछे कम्पाउण्डर का मुद्दा आइशा का ध्यान इस घातक रोग से हटाना था क्योंकि आइशा को अपने रोग की भयंकरता का एहसास हद से ज्यादा हो गया था। शायद वह जवान थी, इसलिए।
बंगाली सैलानी का चेहरा खुशी से चमक उठा, "तो क्या वह ठीक हो गई ?"
“बाबूजी” साईस पहले हंस दिया, फिर किन्हीं खयालों में खोकर कहने लगा,”उस दिन के बाद आइशा और कम्पाउण्डर का मेल-मिलाप बढ़ता ही गया। दोनों दुखी थे । एक को ज़माने ने दुत्कारा था, दूसरे को रोग ने। दोनों सहारा चाहते थे। निशात और शालीमार के बागों में, चांदनी रातों में, डलझील की रोमानी फिज़ाओं में दोनों अपनी ज़िन्दगी की हसीन घड़ियां बिताने लगे। इस दौरान दोनों एक-दूसरे के बहुत करीब आ गए। कम्पाउण्डर आइशा पर अपनी तनख्वाह का अच्छा-खासा हिस्सा भी खर्च करने लगा।
ज़िन्दगी के इस हसीन खेल को कम्पाउण्डर पूरे चार महीने तक खेलता रहा। इस बीच आइशा अपने रोग का गम भूल-सी गई और उसके बदले उसमें अपनी जवानी का एहसास उछलने लगा। उसके गालों पर अब हल्की-सी लाली हमेशा के लिए उभर आई थी और वज़न भी उसका कुछ बढ़ गया था। मगर, एक दिन वह अचानक अपनी मां के साथ इस्लामाबाद चली गई और फिर उसके बाद कभी लौटकर न आई।
"अजीब बात है! अच्छा तो उस कम्पाउण्डर का क्या हुआ ?" बंगाली सैलानी की मुद्रा कुछ गंभीर हो उठी।
साईस की खांसी फिर उठी। फरागत मिलते ही उसने आगे शुरू किया:
“कम्पाउण्डर ने सचमुच ही आइशा की बादामी आंखों में उस शराब को हिलोरते हुए देखा था जिसके नशे में खोकर वह अपनी कडुवाहट-भरी ज़िन्दगी को भुला देना चाहता था। मगर उन मदमस्त आंखों की शराब को लूटने के लिए उसे बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ी-इस लगाव में आइशा का यह छूत का रोग उसे लग गया था। आखिरी वाक्य ने सैलानी से कुछ देर के लिए बोलने की ताकत छीन ली। बड़ी मुश्किल से शब्दों को समेटते हुए वह बोला, "ओह, बड़ा ही अफसोसनाक वाकया हुआ है। कम्पाउण्डर फिर कहां गया, कुछ मालूम तुम्हें ?"
साईस कुछ संजीदा हो गया,”बाबूजी, मेहनत पेशा लोगों के लिए उनकी तन्दरुस्ती ही सब-कुछ होती है। खस्ताहालों को, बाबूजी, इस दुनिया में कौन पूछता है! सुनते हैं, बाद में उसकी नौकरी भी चली गई और उसे सड़क पर आना पड़ा। जिन्दा रहने के लिए तो उसे कुछ-नकुछ करना ही था। इसलिए 'सरकारी-टूरिस्ट-घुड़शाला' में साईस की नौकरी कर ली। हो सकता है इस वक्त वह बाहर से आए किसी सैलानी की खिदमत में लगा हो।
(मूल लेखक : अमीन कामिल)
अनुवादक : डॉ० शिबन कृष्ण रैणा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें