कोलकाता/नई दिल्ली। भारत में गठबंधन की सरकार की बात करना कोई नई नहीं है। लेकिन भाजपा के खिलाफ खासकर मोदी सरकार के खिलाफ जिस तरह से गठबंधन की नाव बन रही है। नाव के नदी में जाने से छेद होती दिख रही है। बहरहाल पहले दिल्ली विधानसभा चुनाव में आप और कांग्रेस के बीच फूट और अब उद्धव ठाकरे द्वारा अकेले बीएमसी चुनाव लड़ने की घोषणा ने इंडिया गठबंधन में बड़ी दरार पैदा कर दी है। गठबंधन से जुड़े चार प्रमुख नेताओं के क्रियाकलापों ने या तो इसके टूटने के या इसे पूरी तरह खत्म हो जाने के संकेत दिए हैं। वैसे राजनीति के बारे में तय कुछ भी करना कठिन हो सकता है। कांग्रेस के मीडिया प्रभारी पवन खेड़ा ने कहा कि इंडिया गठबंधन सिर्फ़ लोकसभा चुनाव के लिए बनाया गया था। वहीं आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने भी कुछ ऐसी ही बात कही। हालांकि, कुछ पार्टियों को अभी भी गठबंधन के भविष्य को लेकर आधिकारिक घोषणा का इंतज़ार है। जुलाई 2023 में बेंगलुरु में उक्त गठबंधन की नींव रखी गई थी, जिसमें 26 पार्टियां गठबंधन में शामिल हुई थीं। लोकसभा चुनाव के दौरान, गठबंधन ने महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखंड और बिहार जैसे राज्यों में एनडीए को चुनौती दी गई थी। नतीजतन, भाजपा अपने दम पर बहुमत हासिल करने में कामयाब नहीं रही। चुनाव में एनडीए ने 296 सीटें जीतीं, जबकि इंडिया गठबंधन ने 230 सीटें हासिल कीं। गठबंधन ने इसे अपनी जीत माना। हालांकि, लोकसभा चुनाव के ठीक आठ महीने बाद, गठबंधन टूटने की कगार पर पहुंच गया है, बस आधिकारिक घोषणा बाकी है। इस विभाजन के लिए राजनीति के जानकार चार प्रमुख कारण बताए जा रहे हैं। आरजेडी के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी के मुताबिक, हरियाणा विधानसभा चुनाव के बाद गठबंधन में दरार दिखने लगी थी। कांग्रेस ने अपने अड़ियल रवैये के कारण हरियाणा में एक जीतने लायक चुनाव गंवा दिया, जो गठबंधन के प्रति उसके रवैये तक फैल गया। इससे सहयोगी दल सतर्क हो गए और गठबंधन के भीतर नए नेतृत्व की मांग उठने लगी। हरियाणा चुनाव नतीजों के एक दिन बाद अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश में उपचुनाव के लिए उम्मीदवारों की घोषणा की। प्रस्तावित 10 सीटों में से दो सीटें कांग्रेस को देने पर सहमति बनी। हालांकि, अखिलेश ने कांग्रेस को सीटें देने से इनकार कर दिया। जबकि, गठबंधन के एक नेता ने दावा किया कि लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद कांग्रेस अति आत्मविश्वास में आ गई है। लचीला रुख अपनाने के बजाय वह और सख्त होती गई। यह व्यवहार महाराष्ट्र में भी देखने को मिला। पहले कांग्रेस संसद में मुद्दे उठाने से पहले सहयोगी दलों से सलाह लेती थी। लेकिन शीतकालीन सत्र के दौरान यह प्रथा खत्म हो गई और कांग्रेस के नेता स्वतंत्र रूप से काम करने लगे। सपा, तृणमूल और एनसीपी ने उद्योगपति गौतम अडानी जैसे मुद्दों पर कांग्रेस का खुलकर विरोध किया और पार्टी के रुख का समर्थन करने से इनकार कर दिया। देका जाए तो कांग्रेस कथित तौर पर अडानी मुद्दे पर अपने सहयोगियों के समर्थन की कमी से परेशान है, जिसे वह एक बड़ी चिंता मानती है। कांग्रेस को लगता है कि एकता की कमी से उसकी छवि खराब हो रही है और बदले में उसने ऐसे सहयोगियों को प्राथमिकता देना बंद कर दिया है जो ऐसे मुद्दों पर मुखर नहीं हैं।
कांग्रेस की अपने आधार को बढ़ाने की महत्वाकांक्षा ने भी तनाव को बढ़ावा दिया है। पार्टी ने हरियाणा में अकेले चुनाव लड़ा और महाराष्ट्र में अधिक सीटों के लिए दबाव बनाया, लेकिन दोनों राज्यों में विफल रही। बिहार में आरजेडी और पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस को डर है कि 2025 और 2026 में उनके अपने राज्यों में भी इसी तरह की दबाव वाली रणनीति अपनाई जाएगी। छोटी पार्टियों का तर्क है कि उन्हें उन राज्यों में गठबंधन का नेतृत्व करना चाहिए जहां उनके पास महत्वपूर्ण जन समर्थन है, वे एनडीए का उदाहरण देते हैं, जहां आंध्र प्रदेश में टीडीपी और बिहार में नीतीश कुमार की जेडी(यू) आगे है। खैर जो भी हो जुलाई 2023 में अपने गठन के बाद से, इंडिया गठबंधन ने न तो कोई नेता नियुक्त किया है और न ही कोई संयोजक। ममता बनर्जी ने गठबंधन का नेता बनने में रुचि दिखाई, लेकिन कांग्रेस ने कोई भाव ही नहीं दी।
जगदीश यादव
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