छूट रहे हैं गांव अपने,
जा रहे लोग शहरों को,
चलो न फिर से गांव को,
देखो, खेतों में लहराते इन,
धान की सुनहरी बालियों को,
अब न जाने कहां गई वो?
जो खेत हरे-भरे लगते थे,
न जाने उनकी फसल कहां गई?
जहां चिड़ियों के मेले लगते थे,
देखो अब ज़रा गांव की हालत,
जो घर थे पत्थर और मिट्टी के,
न जाने वो कहां खो गए?
हर घर से बच्चों के शोर-शराबे,
अब बच्चे ही न जाने कहां गए?
लौट आओ फिर से उसी छांव को
चले आओ न फिर से गांव को।।
शिवानी पाठक
उम्र- 17
उत्तरौड़ा, कपकोट
बागेश्वर, उत्तराखंड
चरखा फीचर्स
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें