कविता : छूट रहे हैं गांव अपने - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शनिवार, 11 जनवरी 2025

कविता : छूट रहे हैं गांव अपने

छूट रहे हैं गांव अपने,

जा रहे लोग शहरों को,

चलो न फिर से गांव को,

देखो, खेतों में लहराते इन,

धान की सुनहरी बालियों को,

अब न जाने कहां गई वो?

जो खेत हरे-भरे लगते थे,

न जाने उनकी फसल कहां गई?

जहां चिड़ियों के मेले लगते थे,

देखो अब ज़रा गांव की हालत,

जो घर थे पत्थर और मिट्टी के,

न जाने वो कहां खो गए?

हर घर से बच्चों के शोर-शराबे,

अब बच्चे ही न जाने कहां गए?

लौट आओ फिर से उसी छांव को

चले आओ न फिर से गांव को।।




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शिवानी पाठक

उम्र- 17

उत्तरौड़ा, कपकोट

बागेश्वर, उत्तराखंड  

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