लगभग तीन दशकों के निर्वासन ने इस पढ़ी-लिखी कौम को बहुत-कुछ सिखाया है।स्वावलम्बी,मजबूत और व्यवहार-कुशल बनाया है।जो जहां भी है,अपनी मेहनत और मिलनसारिता से उसने अपने लिए एक जगह बनायी है।बस,खेद इस बात का है कि एक ही जगह पर केंद्रित न होकर यह छितराई कौम अपनी सांस्कृतिक-धरोहर शनै:-शनै: खोती जा रही है।समय का एक पड़ाव ऐसा भी आएगा जब विस्थापन की पीड़ा से आक्रान्त/बदहाल यह जाति धीरे-धीरे अपनी पहचान और अस्मिता खो देगी।नामों-उपनामों को छोड़ इस जाति की अपनी कोई पहचान बाकी नहीं रहेगी। हर सरकार का ध्यान अपने वोटों पर रहता है। उसी के आधार पर वह प्राथमिकता से कार्य-योजनाओं पर अमल करती है और बड़े-बड़े निर्णय लेती है। पंडित-समुदाय उसका वोट-बैंक नहीं अपितु वोट पैदा करने का असरदार और भावोत्तेजक माध्यम है।अतः तवज्जो देने लायक भी नहीं है।
डॉ० शिबन कृष्ण रैणा
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