आलेख : ऋषि अगस्त्य ने विन्ध्याचल के अहंकार का दमन कर उत्तर-दक्षिण किया एक - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शनिवार, 22 फ़रवरी 2025

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आलेख : ऋषि अगस्त्य ने विन्ध्याचल के अहंकार का दमन कर उत्तर-दक्षिण किया एक

कहते हैं, उस दौर में जब उत्तर-दक्षिण के बीच खाई बढ़ती जा रही थी तब ऋषि अगस्त्य ने ही दोनों को एक किया था। हुआ यूं कि शिव-पार्वती के विवाह में शामिल होने के लिए सभी लोकों और दिशाओं के देवता जब हिमालय पर इकट्ठा होने लगे तो उत्तर-दक्षिण का संतुलन बिगड़ने लगा. तब सिर्फ अगस्त्य ऋषि की तपस्या में ही इतना बल था कि वह संतुलन बना सकते थे. इसलिए भगवान भोलेनाथ ने उन्हें दक्षिण जाने को कहा, रास्ते में उन्हें विन्ध्य पर्वत की ऊंचाईयां सिर्फ इस वजह से खटकने लगा कि इससे उत्तर-दक्षिण का संपर्क टूट रहा था. वह अहंकार में इतना ऊंचा उठता जा रहा था कि ऋषि अगस्त्य का रास्ता भी रोक लिया, लेकिन उन्होंने बड़े ही चतुराई से विन्ध्य के अहंकार का दमन करते हुए झुका दिया और धरती के संतुलन को बराबर किया। कुछ इसी तर्ज पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पिछले दो सालों से काशी तमिल संगमम के जरिए उत्तर-दक्षिण को एक करने में जुटे हुए है 


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फिरहाल, अगस्त्य ऋषि की गिनती प्राचीन सप्तऋषियों और विज्ञानवेत्ताओं में होती है. वह न सिर्फ शस्त्र निर्माण विद्या के ज्ञाता थे, बल्कि उन्हें मित्रावरुण शक्ति (यानि बिजली) उत्पादन का जनक माना जाता है. प्राचीन सूर्य की प्रतिमाओं में अक्सर ये देखने को मिलता है कि प्रतिमा के हाथ में एक घुमावदार तारनुमा कोई यंत्र है. दरअसल वह आज के कुंडलीयुक्त तंतु (फिलामेंट) का ही प्रतीक है. इसे अग्स्त्य ऋषि ने ही बनाया था. प्राचीन काल में मित्र और वरुण की संधि भी इसी बात का प्रतीक है. उनकी शक्ति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वनवास के दौरान श्रीराम खुद अगस्त्य मुनि के आश्रम में उनके दर्शन के लिए पहुंचे थे और उनसे सहायता मांगी थी। इसका जिक्र संत शिरोमणि तुलसीदास जी ने रामायण में भी की है

एवमस्तु करि रमानिवासा। हरषि चले कुंभज रिषि पासा।।

बहुत दिवस गुर दरसनु पाएं।। भए मोहि एहिं आश्रम आएं।।

है प्रभु परम मनोहर ठाऊं। पावन पंचबटी तेहि नाऊं।।

दंडक बन पुनीत प्रभु करहू। उग्र साप मुनिबर कर हरहू।ं


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मतलब साफ है अगस्त्य ऋषि ने ही श्रीराम को पंचवटी में रहने का सुझाव दिया था। इस दौरान उन्होंने रावण पर विजय पाने के लिए श्रीराम को कई प्रकार के अस्त्र-शस्त्र भी प्रदान किए थे। उसमें आदित्य हृदय मंत्र का पाठ भी शामिल था। श्रीराम के प्रभाव से ही गौतम ऋषि का मिला हुआ श्राप भी खत्म हो गया था। ऋषि अगस्त्य को कुंभज के नाम से भी जाना जाता है। दरअसल, कुंभ शब्द का अर्थ घड़ा होता है. कुंभज यानी जिसका जन्म घड़े स ेहुआ हो. ऋषि अगस्त्य का जन्म एक घड़े से हुआ था, इसलिए उन्हें कुंभज या घटज नाम से भी जाना जाता है. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, भगवान सूर्य का एक नाम मित्र है. उन्हें मित्रदेव कहा गया है. वह 12 आदित्यों में से एक हैं. कहते जल के देवता वरुण और मित्र दोनों एक ही अप्सरा पर आसक्त हो गए. इस आसक्ति में उनका वीर्यपात हो गया, जिसे उन्होने घड़े में संरक्षित कर लिया. इसी घड़े से अगस्त्य ऋषि का जन्म हुआ. घड़े से जन्म लेने के कारण ही उन्हें कुंभज कहा गया और मित्र-वरुण का अंश होने के कारण उन्हें मित्रावरुण कहा गया है. महर्षि अगस्त्य वेदों के मंत्रदृष्टा ऋषि कहे गए हैं. ये भगवान राम के गुरु वशिष्ठ के पुत्र थे. कहते है उन्होंने देवताओं व ऋषियों के हित के लिए समुद्र का पानी पी लिया था. इससे समुद्र में छिपे राक्षसों का विनाश हो गया था।


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खास यह है कि ऋषि अगस्त्य भगवान भोलेनाथ के भक्त थे और काशी में रहकर श्रीकाशी विश्वनाथ की उपासना की थी। कहते है उस वक्त भगवान सूर्य की किरणें विंध्याचल पर्वत की ऊंचाईयों के चलते काशी पर नहीं पड़े रहे थे, तब अगस्त्य ऋषि ने ही अपने आराध्य शिवजी की इच्छानुसार, विन्ध्य पर्वत के अहंकार को अपने प्रताप से दमन कर उसे झुकने के लिए विवश किया था। एक अन्यकथानुसार, भगवान भोलेनाथ के कहने पर ही दक्षिण की ओर जाते हुए, उन्हें राह में विन्ध्य पर्वत मिला. वह अहंकार में ऊंचा उठता जा रहा था. इससे उत्तर-दक्षिण का संपर्क भी कट रहा था. पहले तो ऋषि अगस्त्य ने उससे राह देने के लिए कहा, लेकिन वह नहीं माना. फिर उन्होंने चतुराई से काम लिया. कहा- क्या लाभ इतनी ऊंचाई का, जो तुम एक छोटे ब्राह्मण को न तो देख सकते हो और न कुछ दे सकते हो. विन्ध्याचल ने अहंकार में ही कहा, क्यों नहीं दे सकता, आप मांग कर देखिए. तब उन्होंने उससे कहा कि नीचे झुककर आओ और रास्ता दो. विन्ध्याचल ने ऐसा ही किया. उन्होंने कहा, मुझे वापस भी जाना है. जबतक लौट कर न आऊं तुम इसी अवस्था में रहना. फिर अगस्त्य मुनि लौटकर नहीं आए. इस तरह उत्तर-दक्षिण का संपर्क फिर जुड़ गया. इसके अलावा उन्होंने उत्तर दक्षिण की भाषा, चिकित्सा और अध्यात्म को भी एकसूत्र में पिरोने का काम किया। श्रीकाशी विश्वनाथ की प्रेरणा से ही उन्होंने तमिल व्याकरण की रचना की। जो यह बताने के लिए काफी है कि ऋषि अगस्त्य ने उत्तर और दक्षिण भारत के बीच आध्यात्मिक और सांस्कृतिक संबंध स्थापित किए है। लेकिन कुछ वजहों से विरोधाभाषों के चलते उत्तर दक्षिण में फर्क होने लगा था, लेकिन एक भारत सर्वश्रेष्ठ भारत के आह्वान के तहत एक बार फिर काशी-तमिल संगमम के जरिए खाई को पाटा जा रहा है। इस साल इसका तीसरा संस्करण 15 फरवरी से शुरू हो रहा है। इसके पीछे सरकार की मंशा है कि उत्तर और दक्षिण की शिक्षा और संस्कृति का मेल हो सके। जिससे जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में लोगों के बीच परस्पर संपर्क-संवाद बढ़े। आईआईटी मद्रास ने 15 से 24 फरवरी 2025 तक आयोजित होने वाले ’काशी तमिल संगमम’ की पूरी तैयारी की है। यह भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय का अहम आयोजन है। वाराणसी में इस आयोजन की मेजबानी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय कर रहा है। काशी तमिल संगमम 3.0 की मुख्य थीम ऋषि अगस्त्य के महत्वपूर्ण योगदान को उजागर करना है जो उन्होंने सिद्धा चिकित्सा पद्धति (भारतीय चिकित्सा), शास्त्रीय तमिल साहित्य और राष्ट्र की सांस्कृतिक एकता में दिया है। इस अवसर पर एक विशिष्ट प्रदर्शनी ऋषि अगस्त्य के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं के बारे में और स्वास्थ्य, दर्शन, विज्ञान, भाषा विज्ञान, साहित्य, राजनीतिक, संस्कृति, कला, विशेष रूप से तमिल और तमिलनाडु के लिए उनके योगदान पर आयोजित की जाएगी। इसके अलावा प्रासंगिक विषयों पर सेमिनार और कार्यशाला भी होंगी।


दरअसल, ऋषि अगस्त्य को तमिल भाषा के पहले तमिल व्याकरण के रूप में जाना जाता है। कहते हैभगवान मुरुगन ने उन्हें स्वयं तमिल व्याकरण की शिक्षा दी थी। उनकी रचनाओं ने तमिल भाषा और साहित्य को समृद्ध बनाया। उन्होंने संस्कृत और तमिल दोनों भाषाओं में ग्रंथों की रचना की, जिससे वे दोनों ही भाषायी परंपराओं के सेतु बने। ऋषि अगस्त्य केवल भाषा और साहित्य तक ही सीमित नहीं थे, बल्कि उन्होंने चिकित्सा के क्षेत्र में भी अतुलनीय योगदान दिया। वे सिद्ध चिकित्सा प्रणाली के जनक माने जाते हैं, जो तमिलनाडु की पारंपरिक चिकित्सा प्रणाली है। उनकी जयंती को हर वर्ष ’राष्ट्रीय सिद्ध दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। उनकी यह विरासत आज भी तमिलनाडु और भारत के अन्य भागों में चिकित्सा पद्धति के रूप में जीवित है। ऋषि अगस्त्य को कावेरी और ताम्रपर्णी नदियों को पृथ्वी पर लाने का श्रेय दिया जाता है। इन नदियों ने दक्षिण भारत में कृषि और जल आपूर्ति को समृद्ध किया, जिससे वहां की सभ्यता फली-फूली। उनके इस योगदान ने भारतीय समाज के प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ऋषि अगस्त्य की ख्याति केवल भारत तक ही सीमित नहीं है, बल्कि श्रीलंका, इंडोनेशिया, जावा, कंबोडिया, वियतनाम सहित दक्षिण-पूर्व एशिया के कई देशों में भी उन्हें पूजा जाता है। यह उनकी शिक्षाओं और योगदान की वैश्विक स्वीकृति को दर्शाता है। ऋषि अगस्त्य का जीवन और उनका योगदान हमें यह सिखाता है कि भारत की विविधता ही उसकी सबसे बड़ी शक्ति है। वे हमें यह प्रेरणा देते हैं कि विभिन्न संस्कृतियों, भाषाओं और परंपराओं के बीच सेतु बनाकर ही हम एक सशक्त और समृद्ध भारत की परिकल्पना को साकार कर सकते हैं। उनकी स्मृति और शिक्षाएँ हमें सदैव एकता, ज्ञान और आत्मनिर्भरता की राह दिखाती रहेंगी। काशी तमिल संगमम 3.0 में काशी, महाकुंभ और श्री अयोध्या धाम इसकी पृष्ठभूमि होंगे। यह आयोजन एक दिव्य अनुभव प्रदान करेगा और तमिलनाडु तथा काशी - हमारी सभ्यता और संस्कृति के दो शाश्वत केंद्रों को और करीब लाएगा। काशी में ऋषि अगस्त्य के विभिन्न पहलुओं, विशेष रूप से स्वास्थ्य, दर्शन, विज्ञान, भाषा विज्ञान, साहित्य, राजनीति, संस्कृति, कला और तमिलनाडु के लिए उनके योगदान पर प्रदर्शनी, सेमिनार, कार्यशालाएं और पुस्तक विमोचन जैसे कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। इस वर्ष, सरकार ने तमिलनाडु से छह समूहों के अंतर्गत लगभग 1000 प्रतिनिधियों को लाने का निर्णय लिया है। इसमें छात्र, शिक्षक और लेखक, किसान और कारीगर, पेशेवर और छोटे उद्यमी, महिलाएं आदि शामिल है। काशी तमिल संगमम का उद्देश्य देश के दो सबसे महत्वपूर्ण और प्राचीन शिक्षण केंद्र - तमिलनाडु और काशी के बीच सदियों पुराने संबंधों को फिर से खोजना, पुष्टि करना और उनका जश्न मनाना है।


पेड़ों में भी है अगस्त्य ऋषि की शक्तियां

जैसा नाम वैसा काम. अगस्त्य का पेड़ ऐसा ही है. आज भी अगस्त्य ऋषि की शक्तियों हमें पेड़ों में देखने को मिलती है। अगस्त्य पेड़ का हर हिस्सा औषधि है. जिससे विटामिन, प्रोटीन, कैल्शियम, आयरन और कार्बोहाइड्रेट जैसे तमाम पोषक तत्त्वों से भरपूर मात्रा में पाया जाता है। इसका प्रयोग कई बीमारियों को दूर करने के लिए किया जाता है. सर्दी, खांसी-जुकाम और बुखार के लिए रामबाण है. इसकी जड़, छाल, तना, फल-फूल, पत्तियां और बीज सभी का उपयोग है. इसके अलावा, ये आंख की समस्या, औरतों के श्वेत प्रदर की समस्या, अर्थराइटिस और पेट के रोगों में भी लाभकारी है. अगस्त्य का पेड़ याददाश्त के लिए भी मशहूर है. इसके बीजों से तेल भी निकाला जाता है. इसकी पत्तियों का रस नाक में डालने से माइग्रेन की समस्या दूर होती है. गठिया, चर्म रोग, इम्यूनिटी बूस्टर, किडनी, लीवर और सिर दर्द में भी काफी लाभकारी है. इसके फूल बड़े सुंदर होते हैं जिसकी स्वादिष्ट पकौड़ी भी बनाई जाती है. इसके फूल का काढ़ा बनाकर सेवन करना चाहिए. इसके जड़, छाल या तना का पाउडर बनाकर इस्तेमाल किया जा सकता है. इसकी पत्तियां बेहद लाभकारी और गुणकारी हैं.


पौराणिक कथाएं

एक समय राक्षस वृत्तासुर ने जब देवताओं को आतंकित कर दिया तब देवराज इंद्र ने भगवान ब्रह्म से सहायता मांगी थी. तब ब्रह्मजी ने महर्षि दधीचि की हड्डियों से बने वज्र से वृत्तासुर के वध का उपाय बताया. इसके बाद देवराज इंद्र ने ऋषि दधीचि से हड्डियां दान लेकर उनसे बने वज्र से वृत्तासुर का वध किया था. वृत्तासुर के मारे जाने पर अन्य राक्षस अपनी जान बचाकर समुद्र में छिप गए. जहां रहकर भी उन्होंने देवताओं व ऋषि-मुनियों को परेशान करना जारी रखा. तप को ही देवताओं का बल समझते हुए राक्षसों ने ऋषि मुनियों का वध करना शुरू कर दिया. इससे चिंतित देवता भगवान विष्णु के पास गए. जिन्होंने राक्षसों के वध के लिए ऋषि अगस्त्य के पास जाने की सलाह दी. भगवान विष्णु की बात मानकर जब सभी देवता ऋषि अगस्त्य से मिले तो राक्षसों के वध के लिए उन्होंने समुद्र का सारा पानी सोख लिया। जिसके बाद देवताओं ने उसमें छिपे सारे राक्षसों को मारकर उनका आतंक खत्म किया.


करंट के जनक

प्राचीन सूर्य की प्रतिमाओं में अक्सर ये देखने को मिलता है कि प्रतिमा के हाथ में एक घुमावदार तारनुमा कोई यंत्र है. दरअसल वह आज के कुंडलीयुक्त तंतु (फिलामेंट) का ही प्रतीक है. रामायण के अनुसार जब श्रीराम के वनवास के 10 वर्ष बीत गए और वनवास की अवधि पूरी ही होने वाली थी। तब भगवान श्रीराम ने अनुज लक्ष्मण और माता सीता के साथ विचार-विमर्श कर निर्णय लिया कि हमें अगस्त्य मुनि के दर्शन करना चाहिए। श्रीराम, रास्ते में चलते समय माता सीता और अनुज लक्ष्मण को अगस्त्य मुनि के बारे में बताते जा रहे थे। वह कहते है कि, ’मुनि अगस्त्य तीनों लोकों में प्रसिद्ध हैं। माना जाता है तराजू के एक पलड़े में हिमालय से लेकर विंध्याचल तक का तमाम ज्ञान एक ओर रखा जाए, और पलड़े के दूसरी ओर ऋषि अगस्त्य को बैठा दिया जाए तो उनका पलड़ा भारी होकर नीचे आ जाएगा। इसके बाद उन्होंने दूसरी कथा सुनाई, कथा कुछ इस तरह थी कि, ’जब भगवान शिव-पार्वती विवाह के शुभ अवसर पर सभी ऋषि कैलाश पर्वत पर उपस्थित हुए, तो उनके भार से पृथ्वी उत्तर की ओर झुक गई। पृथ्वी का संतुलन ठीक करने के लिए ऋषि अगस्त्य दक्षिण भाग की ओर चले गए और वहीं रहने लगे। अगस्त्य ऋषि ने भाषा, समाज, धर्म, विज्ञान, दर्शन एवं संस्कृति को नई दिशाएं दी। हमारे ग्रंथों में वे समाज सुधारक, भाषा प्रवर्तक, वैज्ञानिक, दार्शनिक, कृषिवेत्ता, चिकित्सक एवं संस्कृति के उपासक के रूप में वर्णिल है। कथानुसार एक दिव्य कलश से अगस्त्य ऋषि का जन्म हुआ था। इसीलिए इन्हें ’कुंभज भी कहते है। उनकी पत्नी लोपामुद्रा विदुषी एवं वेदमर्मज थीं। देश की एकता और अखंडता को पुनः परिभाषित करने में ऋषि अगस्त्य ने अतुलनीय योगदान दिया। संभवतः वे पहले ऋषि थे जिन्होंने उत्तर भारत से दक्षिण भारत का भ्रमण किया और वहाँ वेद, संस्कृत और संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया।







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सुरेश गांधी

वरिष्ठ पत्रकार 

वाराणसी

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