विचार : उम्मीदों के बोझ से ज़िंदगी की जंग हारते युवा - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 9 मार्च 2025

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विचार : उम्मीदों के बोझ से ज़िंदगी की जंग हारते युवा

देश भर में विज्ञान के विद्यार्थियों के आत्महत्या के बढ़ते मामले अब गंभीर चिंता का विषय बनते जा रहे हैं। मनोविश्लेषकों के अनुसार यह उन पर अभिभावकों और समाज की ऊंची उम्मीदों का बोझ है, जिन्हें वे बढ़ती प्रतिस्पर्धा के बीच झेल नहीं पा रहे।

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बहुत समय नहीं बीता। पंजाब में एक लोकप्रिय कवि थे - अवतारसिंह संधू। कविता लिखते थे पाश के नाम से। उनकी कविताओं की पंक्ति-पंक्ति में दहक थी,आग थी,ज्वाला थी। उनकी सबसे मशहूर कविता है - ‘सबसे ख़तरनाक’। इस कविता में उन्होंने जो कहा था, वो समूचे भारत मे युवाओं के लिए एक संदेश था, आह्वान था, चेतावनी थी- उन्होंने कहा- ‘सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना’। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि आज भारत में अनेक युवा जिस बात से सबसे ज़्यादा आहत हैं, जिस वजह से टूटते जा रहे हैं वो है उनके सपनों का मर जाना। अपने सपनों के टूटने, माता-पिता की उम्मीदों का बोझ उन पर इतना ज़्यादा बढ़ गया कि वे ज़िंदगी की जंग में हार कर मौत को गले लगाते जा रहे हैं। ये युवा हैं भविष्य में डॉक्टर, इंजीनियर,आईआईटियन बनने का सपना देखने वाले। बुधवार को ही कोटा में मेडिकल कॉलेज के एक छात्र ने फंड लगाकर आत्महत्या कर ली। आत्महत्या से पहले उसने अपने माता-पिता के नाम जो पत्र लिखा, उसकी सबसे मारक पंक्ति थी - “माफ़ करना, मैं आपका सपना पूरा नहीं कर पा रहा।” वर्ष 2025 के सौ दिन भी नहीं हुए हैं कि कोटा में किसी विद्यार्थी की आत्महत्या का यह आठवां मामला हुआ है।


देश में कोचिंग हब के रूप विख्यात कोटा में कई राज्यों से विद्यार्थी जेईई और नीट की तैयारी के लिए कोचिंग करने आते हैं ; लेकिन कुछ समय से  यहां छात्रों के आत्महत्या करने के अनेक मामले सामने आ रहे हैं। कोटा में पिछले 10 सालों में 127 विद्यार्थी अपनी जान दे चुके हैं। साल 2015 में 18 और 2016 में 17, 2017 में 7, 2018 में 20, 2019 में 18, 2022 में 15 और 2023 में 26 विद्यार्थियों के आत्महत्या के मामले हुए थे। हालांकि 2024 में 17 स्टूडेंट्स ने आत्महत्या की थी, लेकिन इस साल की शुरुआत में ही कोटा में मात्र 15 दिनों के अंदर ही विद्यार्थियों की आत्महत्या ने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया।  सबसे ज़्यादा चिंतित करने वाली बात यह कि विद्यार्थियों आत्महत्या के मामले राजस्थान ही नहीं है, बल्कि देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठित विज्ञान के केंद्रों में भी बढ़ रहे हैं। साल 2023 में राज्यसभा में केंद्रीय शिक्षा राज्य मंत्री सुभाष सरकार ने बताया कि पिछले सालों में 98 विद्यार्थियों ने आत्महत्या की। इनमें से 39 छात्र आईआईटी के, 25 एनआईटी के, 4 आईआईएम के, 5 आईआईएसईआर के, 2 आईआईआईटी के और बाकी के सेंट्रल यूनिवर्सिटी के थे। बीते 20 साल में आईआईटी के 127 छात्रों ने आत्महत्या की है। गत वर्ष दिल्ली-एनसीआर के कॉलेजों के 200 विद्यार्थियों पर भी अध्ययन किया गया। इनमें 100 विज्ञान के और 100 सोशल साइंस के विद्यार्थी थे। इन पर डिप्रेशन और आत्महत्या के विचारों को मापने के लिए कई टेस्ट किए गए। अध्ययन में पाया गया कि विज्ञान के छात्रों में अवसाद और कुंठा का स्तर काफी ज्यादा था। पिछले साल हुए इंटरनेशनल करियर एंड कॉलेज काउंसलिंग (आइसी-3) सम्मेलन में राष्ट्रीय अपराध रेकॉर्डर् ब्यूरो के आंकड़ों के आधार पर ‘छात्र आत्महत्या : भारत में फैलती महामारी’ शीर्षक से जारी रिपोर्ट में बताया गया कि विद्यार्थियों की आत्महत्या के मामलों में चार फीसदी यानी राष्ट्रीय औसत से दोगुनी वृद्धि हुई है। विद्यार्थियों की आत्महत्या के संदर्भ में मनोवैज्ञानिकों के अध्ययन का जो निष्कर्ष है, वो यह कि विद्यार्थी जब परीक्षा में फेल हो जाते हैं तो उन्हें करियर की प्रतिस्पर्धा में पिछड़ जाने से भी बढ़कर पारिवारिक और सामाजिक अपमान का भय होता है। इससे उनमें मानसिक अवसाद और तनाव बढ़ जाता है। बच्चों पर पढ़ाई का दबाव डालने और उनकी क्षमता से ज्यादा उम्मीदें रखने के कारण यह स्थिति बन रही है। परिवार और समाज की उम्मीदों का बोझ जब विद्यार्थियों पर हद से ज़्यादा बढ़ जाता है तो वो ज़िंदगी की जंग हारने लगते हैं। मनोचिकित्सक कहते हैं कि आईआईटी या दूसरे किसी भी बड़े संस्थान में अच्छे संस्थान में प्रवेश पा जाना समस्याओं को खत्म नहीं कर देता बल्कि नई की चुनौतियों को सामने लाता है। वहां वे समाज और अभिभावकों की महत्त्वाकांक्षाओं, उम्मीदों और अपेक्षाओं के बोझ के नीचे दब कर पिसने लगते हैं। वस्तुतः यह शिक्षा के समूचे ढांचे और हमारे समाज की सोच की एक ऐसी त्रासदी है, जिस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। यह स्थिति सामाजिक स्तर पर शिक्षा में कामयाबी को लेकर भ्रामक धारणा की ओर भी इशारा करती है। केंद्र सरकार भले ही दो साल पहले कोचिंग संस्थाओं को लेकर नियम-कायदों को लेकर गाइडलाइन जारी कर चुकी हो या शनिवार को राजस्थान सरकार ने कुछ कानूनों को मंजूरी दी हो लेकिन समस्या का पहलू दूसरा है। यहाँ पारिवारिक माहौल और माता-पिता की भूमिका महत्वपूर्ण है। माता-पिता के साथ ही शिक्षक और संस्थान के संचालक भी माहौल को भारी न बनने दें। विद्यार्थियों से हमेशा संवाद की गुंजाइश रखें। बच्चों पर अनुचित या अधिक अकादमिक दबाव न डालें। उनकी क्षमता और रुचि को समझें और उसी के अनुसार उन्हें मार्गदर्शन दें। सच्चाई यह है कि अधिकांश माता-पिता अपनी इच्छाओं, उम्मीदों को पूरा करने या समाज में प्रतिष्ठा हासिल करने के लिए बच्चों पर भारी भरकम, बोझिल शैक्षणिक लक्ष्य थोप देते हैं,लेकिन यह बच्चों की क्षमता से अधिक होता है जिससे वे तनाव और अवसाद का शिकार हो जाते हैं नतीजा होता है कि वे ज़िंदगी की जंग में पस्त हो जाते हैं।





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हरीश शिवनानी

(वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार)

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