महिलाओं को सांस्कृतिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक समानता समय की मांग है। या यूं कहे महिलाओं को सामाज में समानता का अधिकार मिलना ही चाहिए। यह तभी संभव है जब महिला सशक्तिकरण की आवाज सड़क से संसद तक उठे। खासतौर इसकी जरुरत तब और बढ़ जाती है तब महिला आरक्षण बिल के बाद भी महिलाओं के लिए एक तिहाई रिजर्वेशन अधर में लटका हुआ है। डिलिमिटेशन यानी परिसीमन के के नाम पर लागू नहीं हो पा रहा है। हाल यह है कि आज भी ’प्रधानपति’ वाले कल्चर से महिलाओं को आजादी नहीं मिल पाई है। हालांकि हर साल की तरह इस बार महिला दिवस पर एक विशेष थीम “एक्सीलरेट एक्शन” यानी “तेजी से कार्य करना” है, की सोच के साथ 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की तैयारी जोर-शोर से चल रही है। लेकिन सच तो यह है कि महिला दिवस की सार्थकता तब है जब राजनीति और समाज की धारणा बदलें। नारी को उसका खोया सम्मान, अधिकार मिलें। क्योंकि अपनी मातृशक्ति के अशिक्षित, अस्वस्थ, असंतुलित, अपमानित, असमान रहते कोई भी समाज न तो विकास कर सकता है और न ही विश्व में सम्मान प्राप्त कर सकता है
देखा जाएं तो मोदी सरकार द्वारा आज हर स्तर पर महिलाओं को सहयोग व समर्थन दिया जा रहा है। उनकी मुश्किलों को दूर किया जा रहा है। आज महिलाओं में एक विश्वास जगा है और भारत की नारी शक्ति अपनी मेधा एवं मेहनत से स्वर्णिम गाथा लिख रही है। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में अभी उन्हें वैसा प्रोत्साहन नहीं मिल रहा है जैसा अपेक्षित और आवश्यक है। यह ठीक है कि सरकार प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए हर संभव प्रयास कर रही है। सांस्कृतिक आयोजनों तक सीमित रहने वाली बेटियां जल, थल, नभ और अंतरिक्ष में अपनी क्षमता का लोहा मनवा रही हैं। सेनाओं, अर्द्ध सैनिक बलों और पुलिस में अपनी क्षमता का प्रदर्शन कर रही हैं। जीवन के हर क्षेत्र में उनकी भागीदारी बढ़ रही है। शासन-प्रशासन के साथ उद्योग-व्यापार जगत और तकनीक एवं विज्ञान के क्षेत्र में भारत की महिलाएं अपने कदम आगे बढ़ा रही हैं। वे खेल जगत में भी अपनी छाप छोड़ रही हैं। अपनी उत्कृष्टता भी साबित कर रही हैं। इसरो के चंद्र और सूर्य अभियानों में महिला विज्ञानियों की महती भूमिका किसी से छिपी नहीं। लेकिन इसी के साथ समाज को भी यह देखना होगा कि बेटियों को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। हाल के एक आंकड़े के अनुसार वर्तमान में देश में महिला श्रम बल की भागीदारी 37 प्रतिशत है। इसे और बढ़ाने की आवश्यकता है, क्योंकि जब महिलाएं पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर कार्य करेंगी, तो इससे केवल वही सशक्त नहीं होंगी, बल्कि घर-परिवार और समाज भी सक्षम बनेगा। जब ऐसा होगा, तब देश की भी सामर्थ्य बढ़ेगी। स्पष्ट है कि नीति-नियंताओं के साथ समाज को यह समझना होगा कि कार्य बल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाकर ही विकसित भारत के लक्ष्य की प्राप्ति आसान होगी। विभिन्न क्षेत्रों में उनके कौशल को महत्व दिया जाना चाहिए, न कि महिला-पुरुष
सुरक्षा घेरा करना होगा मजबूत
भारतीय महिलाएं अपने घरों, पड़ोस, कॉलेजों, कार्यस्थलों और अपने सामाजिक परिवेश में कितनी सुरक्षित महसूस करती हैं? मौजूदा कानूनी ढांचों और प्रौद्योगिकी के बावजूद, सुरक्षा संबंधी चिंताएं महिलाओं की शिक्षा, गतिशीलता, आर्थिक भागीदारी और समग्र नागरिक अधिकारों को प्रभावित करती रहती हैं, जिससे उन्हें अपने व्यवहार को संशोधित करने और सार्वजनिक जीवन में उनकी भागीदारी को सीमित करने के लिए मजबूर होना पड़ता है. मतलब साफ है महिलाओं के सम्मान मे एक दिन का दिवस मनाने के बजाय उनके अधिकार, उनके श्रम के मूल्य और उनके सम्मान खातिर तत्काल आमू-चूल परिवर्तन करने की जरुरत है। घरेलू काम, महंगाई का चक्रव्यूह, सिसायत का मैदान, रोजगार और कृषि में सरकारों और समाज ने क्या महिलाओं के हक की आवाज सुनी है? क्या महिलाओं को अपनी जिंदगी, घर संभालने में गुजार देने वाले श्रम का वेतन देने का मुद्दा कभी उठेगा? क्या चुनाव में टिकट देने से लेकर असेंबली-संसद तक महिलाओं की भागीदारी पूर्ण हक के साथ सुनिश्चित की जाएगी? या फिर अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस बस एक दिन के सम्मान वाला वन डे मातरम रह जाएगा. जबकि घर का आंगन महिला के बिना अधूरा है. मां बहन बेटियां हम सभी के जीवन में अहम भूमिका निभाती है. स्त्री है तो सांर है. यह दिन हर महिलाओं को उनके काम, अधिकार और समान्न के लिए बढ़ावा देता है. साथ ही यह उनके अधिकारों को लेकर सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक में उनके सफलता को लेकर उनके हिम्मत को दिखाता हैं. यह थीम हमें बताती है कि हमें अपने ऊपर बहुत मेहनत और तेजी से काम करने की जरूरत हैं. साथ ही महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा को रोकने के लिए सख्त कानून बनाने, लोगों को जागरूक करने और पीड़ितों को मदद देने वाली सुविधाओं को मजबूत करने की जरूरत पर बड़ा कदम उठाना. साथ ही आज भी दुनियाभर में महिलाएं वेतन असमानता, लैंगिक भेदभाव, घरेलू हिंसा और कार्यस्थल पर असमान अवसरों का सामना कर रही हैं. इस थीम का मकसद है कि इन सभी समस्याओं पर जल्द से जल्द कोई तेजी से कदम उठाए जाए.
महिलाओं को दिए जाते हैं कम मौके
राजनीतिक जानकारों की मानें तो महिलाओं को राजनीतिक दलों में प्रायः कम प्रतिनिधित्व दिया जाता है, जिससे उनके लिए अपने दलों में विभिन्न पदों से गुजरते हुए आगे बढ़ना और चुनाव के लिए दल का नामांकन प्राप्त करना कठिन हो जाता है। प्रतिनिधित्व की इस कमी को राजनीतिक दलों के भीतर मौजूद लैंगिक पूर्वाग्रह और इस धारणा का परिणाम माना जा सकता कि महिलाएं पुरुषों की तरह चुनाव जीतने योग्य नहीं होतीं। एक समस्या यह भी है कि भारत एक गहन पितृसत्तात्मक समाज है और महिलाओं को प्रायः पुरुषों से हीन माना जाता है। यह मानसिकता समाज में गहराई तक समाई हुई है और महिलाओं की राजनीति में नेतृत्व एवं भागीदारी की क्षमता के संबंध में लोगों की सोच को प्रभावित करती है। यह एक अच्छी शुरुआत है कि अब इस दिशा में गंभीरता से सोचा जाने लगा है। भारतीय राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को लेकर हम समग्र बात करें तो भारत के इतिहास में आधुनिक काल ही अधिक महत्त्वपूर्ण है। महिलाएं भारत की जनसंख्या का करीब आधी आबादी हैं, लेकिन उन्हें अपेक्षाकृत देश की आर्थिक संपन्नता का कम लाभ मिला है। अधिकांश महिलाओं के अनौपचारिक क्षेत्र में कार्यरत होने के कारण उन पर महामारी का प्रभाव ज्यादा देखने को मिला, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी है। देश भर से ऐसी कई मजबूत औरतों की कहानियां सामने आईं, जिन्होंने अपने घरों से बाहर निकालकर साहस और हिम्मत दिखाते हुए अपने समुदाय की सहायता की। राजनीति में अपना मुकाम हासिल किया है। नारी को परिवार का हृदय और प्राण कहा जाता है तो समाज का सेतुबंध भी नारी ही है। उदारचेत्ता और सुव्यवस्था की अभ्यस्त सुसंस्कारी देवी अपनी कोमलता, संवेदना, करुणा, स्नेह और ममता के स्वाभाविक गुणों से परिवार की जिम्मेवारी निभाते हुए सामाजिक रिश्तों को भी निभाती है। इतिहास साक्षी है, मातृशक्ति ने सदैव अपनी संतान में मातृभूमि के प्रति श्रद्धा के संस्कार विकसित किये। माता जीजाबाई को कौन नहीं जानता जिसने वीर शिवा को छत्रपति बनाया था। हाड़ा रानी ने अपने नवविवाहित पति को मातृभूमि के प्रति कर्तव्य याद दिलाने के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान प्रस्तुत किया। पद्मीनी संग हजारों देवियों ने जौहर कर धर्म रक्षा का स्वर्णिम अध्याय लिखा। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने इतिहास पर ऐसी छाप छोड़ी कि हर नारी में उनकी छवि तलाशी जाती है क्योंकि कोमल हृदय देवी आवश्यकता पड़ने पर चंडी का रूप भी धारण कर सकती है। स्वतंत्रता संग्राम में कित्तूर कर्नाटक की रानी चेनम्मा से लखनऊ की बेगम हजरत महल, मध्यप्रदेश के रामगढ़ की रानी अवन्तीबाई, मुंडभर की महावीरी देवी सहित असंख्य वीरांगनाओं ने अपने युद्ध कौशल से दुश्मन के छक्के छुड़ाये। इतिहास साक्षी है, 1857 की क्रान्ति के दौरान दिल्ली के आस-पास के गाँवों की 255 महिलाओं ने क्रांति की मशाल को अपने प्राण देकर भी बुझने न दिया। इन्हें अंग्रेजों ने मुजफ्फरनगर में गोली से उड़ा दिया गया था। इतना ही नहीं ,स्वामी श्रद्धानन्द की पुत्री वेद कुमारी और आज्ञावती ने महिलाओं को संगठित कर अंग्रेजी वस्तुओं के बहिष्कार और उनकी होली जलाने का अभियान शुरु किया। नागा रानी गुइंदाल्यू, दुर्गा भाभी, सरोजिनी नायडू सहित अनेक वीरांगनाओं के अनन्य राष्ट्रप्रेम, अदम्य साहस, अटूट प्रतिबद्धता की गौरवशाली दास्तान हमारी मातृशक्ति के इस रूप से भी साक्षात्कार कराती है।
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी
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