जी हां, पानी का दूसरा नाम ’जीवन’ है। वास्तव में, पानी के बिना, जीवन का कोई अस्तित्व नहीं है। पर्यावरण और विकास के मुद्दे पर हुए रियो डी जनेरियो संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में 1992 में पहली बार जल संरक्षण के लिए ’विश्व जल दिवस’ का विचार रखा गया था। तब से हर वर्ष 22 मार्च को विश्व जल दिवस मनाया जाता है. मकसद : पानी के महत्व के बारे में जागरूकता बढ़ाना और स्थायी जल प्रबंधन को देखना है. आंकड़ों के मुताबिक विश्व के करीब 1.5 अरब लोगों को पीने का शुद्ध पानी नहीं मिल रहा है. बाथ टब में नहाते समय 300 से 500 लीटर पानी खर्च होता है, जबकि सामान्य रूप से नहाने में 100 से 150 पानी लीटर खर्च होता है. धरती पर एक अरब 40 घन किलो लीटर पानी है. 97.5 फीसदी पानी समुद्र में है, जो खारा है. बाकी 1.5 फीसदी पानी बर्फ के रूप में ध्रुव प्रदेशों में है. इसमें से बचा 1 फीसदी पानी नदी, सरोवर, कुओं, झरनों और झीलों में है, जो पीने के लायक है. इस 1 फीसदी पानी का 60वां हिस्सा खेती और उद्योग कारखानों में खपत होता है, बाकी का 40वां हिस्सा पीने, भोजन बनाने, नहाने, कपड़े धोने एवं साफ-सफाई में खर्च करते हैं. मतलब साफ है विश्व में प्रति 10 व्यक्तियों में से 2 व्यक्तियों को पीने का शुद्ध पानी नहीं मिल पाता है
जल संरक्षण के घरेलू उपाय
वॉशिंग मशीन पूरी क्षमता से चलाएं।
नल में अगर लीक है या नल में पानी का प्रवाह अधिक तेज हैं तो उसे ठीक करें।
सुबह ब्रश करते वक्त पानी बंद रखें।
जब शेविंग कर रहे हों तो नल से पानी बहते न रहने दें।
घरेलू स्तर पर सोख्ता गड्ढा बनाएं।
पानी बचाने के अन्य तरीके
ताजे पानी का उपयोग सोच-समझकर करें।
पीने के पानी को सुरक्षित रूप से संभालें और संग्रहित करें।
गंदे पानी का विवेकपूर्ण प्रबंधन करें।
सामुदायिक कार्रवाई मायने रखती है।
घर पर न्यूनतम गंदा पानी उत्पन्न करें।
विभिन्न प्रयोजनों के लिए गंदे पानी का पुनः उपयोग करें।
इस्तेमाल किया हुआ पानी बर्बाद नहीं होना चाहिए।
नहीं चेते तो धरती मइया चेता देंगी
अलग-अलग जलवायु, संस्थागत, सामाजिक और आर्थिक दशाओं के तहत बारिश के पानी को जमा करने के लिए अलग-अलग तरीकों को आजमाया जाना चाहिए जिससे राज्य यह जान सकें कि उनके लिए कौन सा संयोग मुफीद साबित होगा। लगता है कि हर जिले में रेन सेंटर बनाने की युक्ति करके भारत चीन के पदचिन्हों पर चलना चाहता है। चीन इसी संकल्पना के तहत पिछले बीस साल से रेन गार्डेन, स्पांज सिटीज और रिवर चीफ बनाता आ रहा है। इस प्रक्रियाओं से जुड़ी चुनौतियों और मौकों का गंभीर आकलन किया जाना अपरिहार्य है। इसके बाद भारत की विशिष्ट सामाजिक, आर्थिक और संस्थागत दशाओं के तहत इनमें उल्लेखनीय बदलाव की जरूरत है। बिना बजट और विशेषज्ञता के इन रेन सेंटरों का फलाफल निष्प्रभावी रहने के करीब है। 1987 में जल संसाधन मंत्रलय ने पहली राष्ट्रीय जल नीति बनाई। अब चौथी नीति तैयार की जा रही है। 34 साल में इन नीतियों का देश के जल प्रबंधन पर बहुत असर नहीं दिखा। ये अच्छे दस्तावेज जरूर दिखे, लेकिन देश की वास्तविक समस्या और उसके समाधान से इनका दूर-दूर तक नाता नहीं रहा। कैच द रेन एक और फील गुड दस्तावेज न साबित हो, इससे बचने की जरूरत है। यदि भारत अपनी जल सुरक्षा सुनिश्चित करना चाहता है तो नेशनल वाटर मिशन को समग्र रूप से व्यापक वर्षाजल प्रबंधन पर ध्यान देना होगा। सिर्फ वर्षा जल संग्रह प्रणाली से काम नहीं चलेगा। इसे हर जगह सभी रूपों में पानी को पकड़ना होगा।
“प्राकृतिक स्रोतो व मानवीय संसाधनों“ से मिलेगी “जल संकट“ से “मुक्ति“
जल संकट प्राकृतिक नहीं, मानवीय है। हमारे देश में बस्ती के आसपास तालाब, पोखर आदि बनाये जाते थे. यह काम प्रकृति के अनुकूल किया जाता था. इस काम के विशेषज्ञ थे, लेकिन वे जनसामान्य लोग ही थे. आज तालाबों को दोबारा जिंदा करने की जरूरत है. भूजल स्तर जिस तरह से नीचे जा रहा है, उसे रोकने का उपाय केवल जल संरक्षण ही है. मतलब साफ है ’पानी दुनिया की ऐसी नियामत है जिसे फिर भरा जा सकता है.’’ ’’जरूरी नहीं कि भारत पानी की कमी या जल युद्ध का सामना करेगा ही. लेकिन इसे लेकर सचेत तो रहना ही पड़ेगा। देश में आने वाली बारिश की हरेक बूंद को इकट्ठा करना ही पड़ेगा। या यूं कहे ’’भारत की हरेक छत पर पानी इकट्ठा करने की जगह बनानी होगी। हरेक नाले की पूजा करनी ही होगी। हरेक पोखर और तालाब को मंदिर बनाना ही होगा। 1955 में भारत में प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति 52 लाख लीटर मीठा पानी मौजूद था. साल 2000 तक यह घटकर 22 लाख लीटर पर आ गया था.’’ नतीजा यह हुआ है कि देश को अपनी जरूरतों के लिए भूमिगत जल का मुंह ताकना पड़ा, लेकिन फ्लूरॉइड और आर्सेनिक की मौजूदगी की वजह से भूमिगत पानी खतरनाक भी है.’’ बीते 10 सालों में बारिश में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है. लिहाजा, भारत की पानी की तकलीफों का उपाय बारिश के पानी के संग्रह और संरक्षण में ही है।
फिरहाल, पानी की संकट का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि देश के कई हिस्सों में पानी के लिए खूनी संघर्ष हो रहा है। भूमिगत जल का स्तर कम होने की वजह से कुएं, तालाब, नदी-नाले, गंगा सब के सब सूखते जा रहे हैं। खासकर इस संकट के बीच जिस तरीके से पानी के बेइंतहा दोहन के साथ खपत व फिजूलखर्ची बढ़ी है, उससे भविष्य में पानी की समस्या और गंभीर रूप लेगी, से इंकार नहीं किया जा सकता। मतलब साफ है जिस तरह पानी के सभी प्राकृतिक स्रोत लगातार सूख रहे हैं, ये देश के लिए एक बहुत बड़ी घटना भी है और चेतावनी भी। हाल यह है कि पिछले दस सालों की तुलना में हाल के दिनों में जलस्तर कहीं 167 तो कहीं 225 फीट पाताल की ओर सरक गया। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन के मुताबिक, भारत में लगभग 9 करोड़ से ज़्यादा लोगों को पीने का साफ पानी उपलब्ध नहीं है। देश के 13 राज्यों के 300 ज़िलों में पीने लायक पानी की कमी है। ये आंकड़ा सिर्फ शहरी आबादी का है। ग्रामीण इलाकों की बात करें, तो वहां 70 फीसदी लोग अब भी गंदा पानी पीने को मजबूर हैं। इससे लाखों लोगों की आजीविका खतरे में तो है ही, वर्तमान में 600 मिलियन भारतीयों को अत्यधिक पानी के तनाव का सामना करना पड़ रहा है। बात आंकड़ों की किया जाय तो लगभग 2 लाख लोग हर साल पीने योग्य पानी ना मिल पाने के कारण जान गवां देते हैं। केंद्रीय भूजल बोर्ड के आकलन रिपोर्ट के अनुसार देश के 6,584 ब्लॉक में सर्वे करने पर पता चला कि इनमें से 1,034 ब्लॉक में भूजल का जरूरत से ज्यादा दोहन हो चुका है। इन ब्लॉकों में सालाना जितने भूजल का खपत है, वह सालाना भूमिगत जल के पुनर्भरण से ज्यादा है। 934 ब्लाक की हालत बेहद संवेदनशील है। वहां जल का बस उपभोग हो रहा है, पुनर्भरण का कोई उपाय नहीं है।
भूजल दोहन रोकना होगा
जो परंपरागत साधन और तरीके थे, उन्हें हमने आधुनिकता की दौड़ में खत्म कर दिया है। नए विकल्प तैयार ही नहीं किए जा रहे। नतीजा यह है कि हम खेती-किसानी और उद्योगों से लेकर दैनिक जरूरतों तक के लिए पूरी तरह भूजल पर निर्भर होते जा रहे हैं। भूजल दोहन के मामले में हमने चीन व अमेरिका तक को पीछे छोड़ दिया है। हम चीन व अमेरिका से 124 प्रतिशत यानी दोगुने से भी अधिक 250 घन किलोमीटर भूजल का दोहन करते हैं। जबकि अमेरिका और चीन 112 घन किमी सालाना भूजल का दोहन करते हैं। इसी वर्ष अप्रैल में ’वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट’ के अध्ययन से यह बात सामने आयी है कि भारत में जलाशयों के कम होने के कारण लोगों के घरों तक पहुंचने वाले पानी के नलों के पूरी तरह सूख जाने की आशंका है। इस अध्ययन में भूजल स्तर के गिरते जाने पर भारत में कृषि पर निर्भर लोगों को लेकर भी चिंता जतायी गयी है। सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड द्वारा लोकसभा में दी गई जानकारी के अनुसार, बीते दस वर्षां में भूजल स्तर में 61 फीसदी की कमी आई है। इससे पारिस्थितिकी तंत्र के असंतुलन की स्थिति पैदा हो गई है। 2011 में समूची दुनिया के भूजल का 25 फीसदी अकेले हमारे देश में था। तमाम अनुमान बता रहे हैं कि 2020 तक दिल्ली, हैदराबाद सहित देश के 21 शहरों में भूजल समाप्त हो जाएगा और दस करोड़ आबादी के लिए मुसीबतें खड़ी हो जाएंगी। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, 2020 तक हमारा देश जल संकट वाला राष्ट्र बन जाएगा। एक आकलन यह भी है कि आने वाले 32 साल में जल संकट के कारण देश के सकल घरेलू उत्पाद को छह फीसदी का नुकसान उठाना पडे़गा। हमारे यहां पानी की मांग और उपलब्धता में काफी अंतर है। इसमें बढ़ती आबादी ने प्रमुख भूमिका निभाई है। देखा जाए, तो आज से 10 साल पहले यानी 2008 में देश में 634 अरब घन मीटर पानी की मांग के मुकाबले 650 अरब घन मीटर उपलब्धता थी। साल 2030 तक पानी की उपलब्धता केवल 744 अरब घन मीटर रह जाएगी। जबकि मांग होगी 498 अरब घन मीटर,यानी दुगने से भी ज्यादा।
अपशिष्ट पानी के शोधन के तौर- तरीकों में बदलाव लाना होगा
चुनौती शहरी भारत से निकलकर आ रही है क्योंकि शहर साफ पानी का इस्तेमाल करते हैं और गंदा पानी छोड़ देते हैं. यही नहीं, भारत जैसे-जैसे और ज्यादा औद्योगिकीकृत होता जाएगा, इस क्षेत्र के लिए और भी ज्यादा पानी की जरूरत होगी. इससे निपटने के लिए शहरी क्षेत्रों में पानी की आपूर्ति और खासकर शहरों से निकलने वाले गंदे और अपशिष्ट पानी के शोधन के तौर-तरीकों में बदलाव लाने की जरुरत हैं. ’’हालांकि मुझे यह देखकर खुशी होती है कि बीते कई सालों में केंद्र और राज्य दोनों स्तरों की सरकारें जल प्रबंधन की हमारी रणनीति में बदलाव लाने की जरूरत को पहचानने लगी हैं.’’ पानी की जरूरतों पर देश का नजरिया ’कॉमन सेंस’ पर आधारित होना चाहिए. ’’भारत में दुनिया का 4 फीसद मीठा पानी और दुनिया की 16 फीसद आबादी है. ऐसे आंकड़ों को देखते हुए पानी का इस्तेमाल समझदारी से करना होगा.’’ किसानों को कम पानी निगलने वाली फसलों का लाभकारी मूल्य देना बेहद लाभकारी है। लगातार गिरते जलस्तर से हैंडपंप हो, ट्यूबवेल हो या सबमर्सिबल, पानी कम देने के साथ ही छोड़ना भी शुरू कर दिया है। इसकी बड़ी वजह मई-जून में गंगा में पानी की कमी तो है ही लगातार भूजल दोहन एवं फिजूलखर्ची भी है। इसके चलते गर्मी के दिनों में न सिर्फ लोग पानी की एक-एक बूंद के लिए तरसते देखे गए, बल्कि पीने के साफ पानी के लिए बिसलरी पर ही निर्भर होना पड़ा। मतलब साफ है अगर समय रहते हम और आप नहीं चेते तो धरती मईया चेता देगी। ऐसे में बड़ा सवाल तो यही है पानी की त्रासदी के संकट का हल बाढ़ का रूप लेने वाले वर्षा के पानी के संरक्षण से क्यों नहीं निकल सकता? अगर लोगबाग बारिश की एक-एक बूंदें सहेजना या यू कहें घर-घर में रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम बैठाना शुरु किया तो इस गंभीर संकट से उबरा जा सकता है।
रेनवाटर हार्वेस्टिंग
गौरतलब है कि देश में सिंचाई जरूरत का 60 फीसदी, पेयजल जरूरत का 85 फीसदी और शहरी जल जरूरतों का करीब 50 फीसदी हिस्सा भूजल से आता है। बावजूद इसके हम शहरों में भूजल का रिचार्जिग नहीं कर पा रहे हैं। जबकि कालोनी हो या आमजनमानस के घर एवं सरकारी-गैरसरकारी कार्यालयों-आवासों में रेनवाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम के माध्यम से सामूहिक रूप से जल संचयन किया जा सकता है। या यूं कहें ’जल संकट से निपटने के लिए पब्लिक सपोर्ट जरूरी’ हैं। क्योंकि जब तक लोग जागरुक नहीं होंगे, संकट से उबरना संभव नहीं हैं। अगर हम हर वर्ष 120 करोड़ लोगों की पानी की खपत के 70 लीटर प्रतिदिन का हिसाब लगाएं तो 8400 करोड़ लीटर होगा यानी साल में करीब 30 लाख करोड़ लीटर। इससे कई गुना पानी हर वर्ष देश में वर्षा के माध्यम से उपलब्ध है। हर गांव में जितनी भी वर्षा होती है उसका 14-15 प्रतिशत जल संग्रहण गांव की जल संबंधी सभी आवश्कता को पूरा कर सकता है। पानी के बिगड़ते हालात देखते हुए वर्षा जल संग्रहण पर भरपूर जोर दिए जाने की आवश्यकता है। लेकिन अफसोस है ंकि पानी को लेकर हम कभी संजीदा रहे ही नहीं। हमेशा से पानी को हल्के में लिया है। जबकि पानी के बगैर जीवन संभव ही नहीं हैं। इसके बावजूद जाने अनजाने में पानी को हमने बर्बाद ही किया है, कर भी रहे हैं। रोजाना के दैनिक क्रियाओं में काफी पानी बाथरूम में नष्ट कर देते हैं। नल खोलकर ब्रश करना, दाढ़ी बनाते हुए नहाने-कपड़ा धोने व टायलेट में चौपट होता है। वहीं वाहनों को धोने का चलन लगातार बढ़ रहा है। इससे भी बहुत जल बर्बाद होता है। आए दिन जगह-जगह पाइप लाइन की लीकेज अलग से। अगर हम दिनचर्या में भी पानी के इस्तेमाल में बड़ा बदलाव कर लें तो जल को सहेजने में काफी मदद मिल सकती है। लेकिन इसके प्रति संजीदा न होने से ही गर्मी आते ही देशभर में पानी के लिए त्राहि-त्राहि मच जाती है। इस बार देश के 11 राज्यों के 33 करोड़ लोगों ने सीधे पानी की मार झेली है।
पानी के लड़ते-झगड़ते लोग
इसके पहले भी क्या केंद्र, क्या राज्य सबको पानी की हाय-हाय झेलनी पड़ी थी। जल-ट्रेन जल-ट्रक दूरदराज के क्षेत्रों में जलदूत बनकर पहुंचे। इससे पहले छोटे-मोटे रूप में या एक-दो राज्यों में ही गर्मियों में पानी का रोना रोया जाता था, लेकिन अब तो पानी के लिए न सिर्फ चौकीदारी हो रही है, बल्कि दिल्ली समेत कई राज्यों के शहरों में बंदूकें तड़तड़ाई तो गांव-गांव में लाठियां बजी। भारत के जल-संसाधन मंत्रालय के मुताबिक भारत में पानी के विश्वयुद्ध की शुरुआत हो चुकी है। या यूं कहें अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए होगा, अब इसकी शुरूवात हो चुकी है। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार 2030 तक भारत में पानी की मांग, आपूर्ति के मुकाबले दोगनी हो जाएगी। झारखंड, मध्यप्रदेश, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात, यूपी, बिहार, हरियाणा, राजस्थान, त्रिपुरा, हिमालयी राज्यों और महाराष्ट्र में इस बार पानी का सर्वाधिक संकट रहा। ’एव्रीथिंग एबाउट वॉटर’ नामक कंसल्टिंग फर्म की रिपोर्ट के मुताबिक भारत 2025 तक भयंकर जल संकट वाला देश बन जाएगा। इस रिपोर्ट के मुताबिक देश की सिंचाई का करीब 70 फीसदी और पानी की घरेलू खपत का 80 फीसदी हिस्सा भूमिगत जल से पूरा होता है, जिसका स्तर तेजी से घटता जा रहा है। पिछले एक दशक के अंदर भू-जल स्तर में आई गिरावट को अगर इस आंकड़े की मदद से समझने की कोशिश करें तो अब से दस वर्ष पहले तक, जहां 30 मीटर की खुदाई पर पानी मिल जाता था वहां अब पानी के लिए 60 से 70 मीटर तक की खुदाई करनी पड़ती है। सीधे शब्दों में कहें तो धरती जितना जल दे रही है, उसे इसके अनुपात में बहुत कम जल वापस मिल रहा है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि इस समस्या का हल नहीं हैं।
पानी का बचाव
अगर हम देश की आवश्यकता देख लें तो पानी के तीन बड़े उपयोग साफ और सामने हैं। खेतों के लिए पानी, पीने के लिए पानी उद्योगों के लिए पानी की खपत। और इस पानी के तीन ही बड़े रास्ते भी हो सकते हैं, वर्षा के पानी को पहाड़ों में चाल, ताल, खाल के अलावा मैदानों में छोटे-बड़े तालाबों के माध्यम से जोड़ा जा सकता है। इसी तरह पीने के पानी घरेलू उपयोग के पानी के लिए हर छत को चाहे गांव की हो या शहर की, जलागम के रूप में उपयोग में लाया जा सकता है। क्योंकि उद्योग जगत भूमिगत पानी का ही उपयोग करते हैं, इसलिए इसको सिंचित करने के लिए भी रास्ते तैयार करने होंगे। सच तो यह है कि यह उनका ही बड़ा दायित्व होना चाहिए। सबसे बड़ी बात है पानी का संरक्षण। पानी का उपयोग कुछ हद तक कानूनी दायरे में लाना होगा। मसलन पानी के उपयोग के साथ हर घर, परिवार, उद्योग इसके संरक्षण की भी पहल करे। अगर हम ऐसा करने में सफल हुए तो पानी के कारण होने वाली दोनों तरह की तबाही से उबर पाएंगे। कितनी अजीब बात है कि हम अब तक पानी की अति को अभाव से नहीं जोड़ पाएं। अब समय है कि हम इस मुद्दे पर गंभीर हो जाए वरना हर वर्ष दोनों तरह की पानी की मार हमें पूरी तरह तोड़ देगी। अति और आभाव दोनों ही जीवन के लिए संकट का कारण बन चुके हैं। जल संसाधन मंत्री नितिन गडकरी के मुताबिक, पानी की कमी नहीं है, पानी के नियोजन की कमी है। राज्यों के बीच जल विवाद सुलझाना, पानी की बचत करना और बेहतर जल प्रबंधन कुछ ऐसे काम हैं जिनसे कृषि आमदनी बढ़ सकती है और गांव छोड़कर शहर आये लोग वापस गांव की ओर लौट सकते हैं। हमें पानी के महत्व को समझना होगा और अपनी विशाल जनसंख्या की प्यास बुझाने का इंतज़ाम करना होगा। ये एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है। आपसे भी हमारी गुज़ारिश है कि आज से ही पानी को बचाने की पहल शुरू कर दीजिए। बूंद-बूंद पानी को बचाकर सागर बनाया जा सकता है और इस बचत में हर बूंद का महत्व है इसलिए अपने हिस्से का योगदान आप ज़रूर दीजिए।
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी
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