आलेख : जानलेवा बनता ध्वनि-प्रदूषण, कब जागेगी संसद ? - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 27 मार्च 2025

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आलेख : जानलेवा बनता ध्वनि-प्रदूषण, कब जागेगी संसद ?

भारतीय समाज की दिक्कत यह है कि यहाँ धार्मिक स्थलों, सामाजिक-धार्मिक कार्यक्रमों, जलसों, राजनीतिक सभाओं, रैलियों, धरनों- प्रदर्शनों और वैवाहिक-सामाजिक समारोहों में लाउड-स्पीकरों के अलावा सभी तरह के ध्वनि-विस्तारक उपकरणों का विवेकहीन तरीकों से इस्तेमाल किया जाता है।

 

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पहली नज़र में यह बात निश्चित रूप से हैरान करने वाली लग सकती है कि ध्वनि-प्रदूषण कैसे जानलेवा हो सकता है, लेकिन यह सच है। पिछले एक साल में ही ध्वनि-प्रदूषण की वजह से चार मौतें हो चुकी हैं। ताज़ी घटना अजमेर की है। दो मार्च की आधी रात को अजमेर के पुष्कर रोड पर कुछ युवक गाड़ी में तेज आवाज़ में डी जी बजाकर नाच रहे थे। लगातार हो रहे शोर-शराबे से परेशान होकर पास ही रहने वाले एक वकील पुरुषोत्तम जखेटिया ने उनका विरोध करते हुए म्यूज़िक सिस्टम बंद करने को कहा, इस पर नशे में धुत्त उन युवकों ने उनको लाठियों से पीट-पीट कर बुरी तरह घायल कर दिया। लाठियों से सिर में लगी गम्भीर चोट के कारण वकील ने सात मार्च को अस्पताल में दम तोड़ दिया। पिछले वर्ष सितंबर में छत्तीसगढ़ के भिलाई के हथखोज के एक धार्मिक पांडाल में तेज वोल्यूम में बज रहे डीजे से दिल के मरीज पचपन वर्षीय धन्नूलाल साहू ने परेशान होकर डीजे बंद करने या वोल्यूम कम करने को कहा लेकिन आयोजक उससे उलझ पड़े और डीजे बजाने की अनुमति मिलने का पत्र उसके मुँह पर फेंक दिया। कानफाड़ू शोर-शराबे और बेहद अपमान से व्यथित होकर हार्ट-पेशेंट साहू ने फंदा लगाकर आत्महत्या कर ली। सितंबर में ही छत्तीसगढ़ के बलरामपुर में साउंड सिस्टम के भारी शोर के कारण एक व्यक्ति के दिमाग की नस फट गई । अक्टूबर में भोपाल में दुर्गापूजा विसर्जन के दौरान डीजे की तेज आवाज से तेरह वर्षीय किशोर समर बिल्लोरे की मौत हो गई। इस लिहाज से पिछले दिनों राजस्थान विधान सभा में जब लाउड स्पीकरों पर रोक लगाने या उनकी आवाज को नियंत्रित करने की जो मांग उठाई गई है, उसे समूचे परिवेश की सुरक्षा के लिए सकारात्मक रूप से लेना चाहिए। वस्तुतः हम इतिहास जिस जिस कालखंड में जी रहे हैं, उस दौर में धनि-प्रदूषण सिर्फ़ मनुष्यों को ही नहीं, बल्कि नभचर और जलचर प्राणियों तक को अपनी चपेट में ले चुका है। दिलचस्प यह भी है कि ध्वनि-प्रदूषण आधुनिक काल की ही देन नहीं है, ऐसी भी किंवदंती है कि जूलियस सीज़र ने रात के समय रोम की पक्की सड़कों पर रथ चलाने पर रोक लगा थी थी,क्यों उनके शोर की वजह से वो रात को सो नहीं पाता था। ध्वनि दबाव स्तर को डेसिबल (डीबी ) में मापा जाता है। फुसफुसाहट लगभग 30 डीबी औरसामान्य बातचीत लगभग 60 डीबी की होती है। एक लाउड स्पीकर का डेसिबल स्तर आमतौर पर 100-120 डेसिबल के बीच होता है, लेकिन जब चारों दिशाओं में लाउड स्पीकर लगाए जाते हैं और वे फुल वोल्यूम में बज रहे होते हैं, तो ध्वनि का डेसिबल स्तर 140 डेसिबल या अधिक हो सकता है। यही बात किसी समारोह में बज रहे म्यूज़िक सिस्टम के लिए भी कही जा सकती है। भारतीय समाज की दिक्कत यह है कि यहाँ धार्मिक स्थलों, धार्मिक कार्यक्रमों, जलसों, राजनीतिक सभाओं, रैलियों, धरनों- प्रदर्शनों और वैवाहिक-सामाजिक समारोहों में लाउड-स्पीकरों के अलावा सभी तरह के ध्वनि-विस्तारक उपकरणों का विवेकहीन तरीकों से इस्तेमाल किया जाता है। इनके बेतहाशा इस्तेमाल की स्थिति अब अराजकता के सीमा तक पहुंच गई है। वातावरण में भयानक शोर-शराबा और कोलाहल मनुष्य के व्यवहार और आचरण भी नकारात्मक असर डालता है। ध्वनि-प्रदूषण अब तो  सामाजिक और कानून-व्यवस्था के लिए भी चुनौती बनता जा रहा है, इसका उदाहरण उपरोक्त चार मौतों के ज़िक्र में समझा जा सकता है। अंधाधुंध लाउड स्पीकरों, म्यूज़िक सिस्टम या किसी भी ध्वनि-विस्तारक उपकरणों का उपयोग मनुष्य के व्यवहार में चिड़चिड़ापन, झुंझलाहट ही नहीं लाता बल्कि उसे हिंसक भी बना सकता है। ध्वनि प्रदूषण का प्रभाव पशु-पक्षियों और समुद्री जीवों पर गहरा होता है। कई पक्षी और जंगली जानवर संचार के लिए ध्वनि पर निर्भर होते हैं, जैसे जोड़ी बनाने, क्षेत्र चिह्नित करने या खतरे की चेतावनी देने या प्रजनन के लिए। लगातार शोर से जानवरों में तनाव हार्मोन (जैसे कॉर्टिसोल) बढ़ते हैं। अत्यधिक शोर के कारण कई प्रजातियां अपने प्राकृतिक आवास को छोड़ने पर मजबूर हो जाती हैं। पारिस्थितिकी तंत्र पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।  समुद्री जीव जैसे व्हेल, डॉल्फिन और अन्य मछलियां दिशा-निर्धारण और संचार के लिए ध्वनि तरंगों पर निर्भर करती हैं। जहाज़ों, सोनार सिस्टम, और पानी के नीचे ड्रिलिंग से उत्पन्न ध्वनि प्रदूषण उनकी इस प्रणाली को बाधित करता है। ज़ाहिर है,ध्वनि प्रदूषण समूचे पारिस्थितिक तंत्र  को खतरे में डाल रहा है। 


ऐसा नहीं कि भारत या उसके विभिन्न राज्यों में ध्वनि-प्रदूषण पर अंकुश के लिए कानून नहीं बने हुए हैं, इस बारे में तो उच्चतम न्यायालय के निर्णय और दिशा-निर्देश भी आ चुके हैं। बुनियादी समस्या यह है कि केंद्र और राज्य सरकारें उन कानूनों और दिशा-निर्देशों की पालना करवाने में बेहद उदासीन हैं। यही वजह है कि ध्वनि-विस्तारक उपकरणों का इस्तेमाल करने वाले स्कूलों-कॉलेजों, प्रतियोगी परीक्षाओं के केन्द्रों, गंभीर बीमारियों के मरीजों वाले अस्पतालों और रहवासी कॉलोनियों के लोगों की असुविधाओं, परेशानियों के बारे में सोचे-समझे बगैर शोर-शराबा फैलाते रहते हैं। भारत के शायद ही किसी समाचार-पत्र या टीवी न्यूज़ चैनल पर किसी ने ऐसी कोई ख़बर पढ़ी-सुनी हो कि ध्वनि-प्रदूषण फैलाने के मामले में किसी व्यक्ति या समूह को गिरफ़्तार किया गया हो। यह समय का तकाजा है,वक़्त की सख्त जरूरत है कि अब संसद ही कोई कानून पारित करे और सभी ध्वनि-विस्तारक उपकरणों के निर्माण में आवाज की सीमा (डेसिबल) अधिकतम उस मानक तक तय कर दे जो वैज्ञानिकों ने प्राणियों के लिए सुरक्षित मानी है। संसद के साथ-साथ  न्यायपालिका को भी सजग रहना होगा कि कार्यपालिका इन कानूनों की सख़्ती से पालन करे, तभी प्राणी-जगत को इस ख़तरे से बचाया जा सकता है।






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हरीश शिवनानी

ईमेल : shivnaniharish@gmail.com

संपर्क : 982921036

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