कथा का विस्तारीकरण करते हुए डा.रमेशाचार्य महाराज ने कहा-जब रामचन्द्र जी लखनलाल जी सहित नगर से गुजरते हैं तो सम्पूर्ण नर-नारी,बाल-वृद्ध उनके अनुपम अलौकिक दर्शनकर अपने को धन्य-धन्य समझते हैं।सभी भगवान् की एक झलक देखने के लिये ललायित हैं।शायद भक्त की यही पराकाष्ठा होती है।अतएव नारायण की भक्ति हर जीवमात्र को करनी चाहिए।वास्तविक शक्ति तो भक्ति से ही मिलती है। भक्ति में अनुपम शक्ति होती है। भगवान् महाराज जनक जी की विलक्षण पुष्पवाटिका में प्रवेश करने हेतु माली से प्रार्थना करते हैं। यही तो मर्यादा पुरुषोत्तम की मर्यादा है।जो सबमें श्रेष्ठता का आभास करता हो वही तो महान् है।राम जी पुष्पवाटिका में प्रवेश कर आदर व प्रेम के साथ गुरु विश्वामित्र के पूजा हेतु फूल लोढ़ते हैं।ठीक उसी क्षण माता सीता गौरि -पूजन के उद्देश्य से वहाँ पधारती हैं।एक तरफ भक्ति की देवी सीता और दूसरी ओर भक्ति-पति राम जी।दोनों एक दूसरे को अपलक निहारते हैं।उस समय दोनों विलक्षण मौन प्रेम की सरिता में ऐसे डुबकी लगा पड़ते हैं कि अपना सुध-बुध खो डालते हैं।वास्तव में प्रेम निर्मल एवं नि:स्वार्थ होना ही श्रेयस्कर प्रेम माना जाता है।प्रेम असीम होता है।राम और सीता का प्रेम गंगाजल के समान है। राम और सीता की तरह प्रेम सात्विक होता है।कल धनुष-यज्ञ सह सीता-राम विवाह का प्रसंग प्रस्तुत किया जायेगा।
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