आज जब कुछ महिलाएं उन्हीं संगठनों और विचारों को समर्थन देती दिखती हैं, जिन्होंने उस समय उनके अधिकारों का विरोध किया था, तो एक टीस सी उठती है। क्या उन्होंने कभी जानने की कोशिश की कि उनके अधिकार किसने दिए और किसने रोकने की कोशिश की? डॉ. अंबेडकर ने सिर्फ संविधान नहीं लिखा। उन्होंने भारत की आधी आबादी को समाज में खड़े होने की कानूनी जमीन दी। आज हमें जरूरत है उस संघर्ष को समझने की, याद रखने की और आगे बढ़ाने की। 14 अप्रैल को देश जब डॉ. भीमराव अंबेडकर की जयंती मना रहा होता है, तो यह महज़ एक श्रद्धांजलि नहीं, बल्कि एक अवसर होता है। यह समझने का कि उन्होंने भारत को क्या दिया और किन संघर्षों के बाद दिया। डॉ. अंबेडकर को आमतौर पर संविधान निर्माता के रूप में याद किया जाता है, लेकिन एक और बड़ा योगदान जो अक्सर भुला दिया जाता है।
राजद जिला संगठन प्रभारी कुमर राय ने कहा कि आज़ादी के बाद, जब भारत को एक नए संविधान की ज़रूरत थी, तब डॉ. अंबेडकर को देश का पहला कानून मंत्री नियुक्त किया गया। अंबेडकर न केवल दलितों और शोषितों की आवाज़ थे, बल्कि वे महिलाओं के अधिकारों के भी मजबूत पक्षधर थे। उन्होंने महसूस किया कि भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति बेहद दयनीय है खासकर हिंदू महिलाओं की, जिन्हें अपने ही घर में ना तो संपत्ति में अधिकार था, ना ही विवाह या तलाक़ में कोई कानूनी संरक्षण। 1948 में जैसे ही अंबेडकर ने संसद में हिंदू कोड बिल का ड्राफ्ट पेश किया, विरोध की आंधी उठ खड़ी हुई। संघ, हिंदू महासभा और कई रूढ़िवादी संगठन सड़कों पर उतर आए। उन्होंने इसे "हिंदू धर्म पर हमला" बताया। जगह-जगह नारे लगे – "हिंदू धर्म खतरे में है", "भारतीय संस्कृति पर पश्चिमी हमला हो रहा है"। यह विरोध इतना तीव्र था कि बिल को पास ही नहीं होने दिया गया। संसद में बहसें लंबी खिंचती रहीं, पर नतीजा शून्य रहा। इस लगातार टाले जाने और विरोध से आहत होकर, डॉ. अंबेडकर ने 1951 में कानून मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।
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