रेणु-स्मृति यात्रा: साहित्य से साक्षात्कार
समापन दिवस पर साहित्य अकादमी के अध्यक्ष डॉ. माधव कौशिक, सचिव डॉ. के. एस. राव, वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. राम वचन राय, डॉ. रत्नेश्वर मिश्र, श्री रामदेव सिंह, श्री राजेश चंद्र मिश्र, श्री राहुल शांडिल्य, श्री चंद्रकांत नागमणि, श्री विशाल कुमार, श्री तुषार कुमार, श्री शिवम कुमार, श्री संदीप कुमार समेत देशभर से पधारे प्रमुख लेखक, अध्येता और संस्कृति-कर्मी फणीश्वरनाथ रेणु जी के पैतृक गांव औराही हिंगना पहुँचे। गांववासियों द्वारा सभी अतिथियों का आत्मीय स्वागत किया गया। रेणु जी के परिजनों – विशेष रूप से श्री पद्म पराग राय 'वेणु' (रेणु जी के मँझले पुत्र), उनकी बड़ी बहन और परिवार के अन्य सदस्यों ने आगंतुकों से संवाद किया और रेणु जी के जीवन से जुड़े अनेक संस्मरण साझा किए।
'मैला आँचल' का कमरा: जहाँ शब्दों ने क्रांति की थी
यात्रा का सबसे भावुक क्षण तब आया जब अतिथियों ने उस ऐतिहासिक कक्ष का अवलोकन किया, जहाँ "मैला आँचल", "परती परिकथा", "ठुमरी", "आखिरी छलाँग" जैसी कालजयी रचनाओं की रचना हुई थी। मिट्टी की दीवारों और पुराने फर्श वाले उस कक्ष की हर ईंट जैसे रेणु जी की संवेदना और साहित्यिक ऊर्जा से ओतप्रोत प्रतीत हो रही थी। इस कक्ष ने सभी को उस दौर में लौटा दिया जहाँ साहित्य एक आंदोलन था, और लेखक एक जननायक।
जनपद की आत्मा से संवाद
ग्रामवासियों के साथ अतिथियों का संवाद अत्यंत आत्मीय रहा। चर्चा का केंद्र रहा – रेणु जी का जीवन, उनका संघर्ष, उनकी लेखकीय प्रतिबद्धता और साहित्य में लोक की उपस्थिति। कई बुजुर्गों ने रेणु जी के बचपन, उनके जनांदोलन में योगदान और उनकी लेखन यात्रा से जुड़े अनुभव साझा किए। यह संवाद केवल स्मरण का नहीं, बल्कि विचार और भाव का जीवंत आदान-प्रदान था।
आत्मीयता की पराकाष्ठा: एक यात्रा, जो पर्व से आगे गई
यह यात्रा एक साहित्यिक आयोजन से आगे बढ़कर स्मृति, अनुभूति और आत्मीयता का महासंगम बन गई। यह अनुभव बताता है कि साहित्य केवल पठन का विषय नहीं, बल्कि जीवन का सजीव दस्तावेज होता है – जिसे स्पर्श किया जा सकता है, महसूस किया जा सकता है।
यात्रा का समापन: लेकिन स्मृति अनंत
इस सांस्कृतिक यात्रा के पश्चात् कुछ अतिथिगण बागडोगरा एयरपोर्ट के लिए प्रस्थान कर गए, जबकि अन्य पूर्णिया लौटे। विदाई के क्षणों में भी, सबके हृदय में औराही हिंगना की मिट्टी की सौंधी गंध और रेणु जी की स्मृति की गूंज बनी रही।
निष्कर्ष: एक पर्व, जो जनपदीय चेतना का दीपक बन गया
"रेणु-स्मृति-पर्व 2025" अपने दो दिवसीय कालखंड में केवल एक साहित्यिक कार्यक्रम नहीं रहा – यह जनमानस और साहित्य के बीच पुल बन गया। यह पर्व सिद्ध करता है कि रेणु आज भी जीवित हैं – अपने गाँव की गलियों में, अपने शब्दों में, और उस आत्मा में जो ग्रामीण भारत की सच्चाई को गर्व से उकेरती है। इस आयोजन ने भविष्य के लिए यह संदेश स्पष्ट कर दिया कि साहित्य जब लोक से जुड़ता है, तब वह शाश्वत बनता है। रेणु की यही विरासत हमें नई दृष्टि, नई ऊर्जा और नई प्रतिबद्धता देती है। यह आयोजन पूर्णिया विश्वविद्यालय एवं विद्या विहार रेजिडेंशियल स्कूल, परोरा, पूर्णिया के सौजन्य से सफलता पूर्वक संपन्न हुआ, जो आने वाले वर्षों में जनपदीय चेतना, सांस्कृतिक संरक्षण एवं साहित्यिक संवाद की प्रेरणा बना रहेगा।
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