मनोरंजन ही न केवल कवि का कर्म होना चाहिए।
उसमे उचित उपदेशों का भी मर्म होना चाहिए।।
कला सौंदर्य को जन्म देती है, और सौंदर्यबोध कला को अर्थ प्रदान करता है। उदाहरणत:, लियोनार्डो दा विंची की 'मोनालिसा' केवल एक चित्रकृति नहीं है, बल्कि उसकी रहस्यमयी मुस्कान और आंखों की गहराई दर्शक के सौंदर्यबोध को चुनौती देती है। आज के डिजिटल युग में कला और सौंदर्यबोध नए रूपों में सामने आ रहे हैं। डिजिटल आर्ट, वर्चुअल रियलिटी, और कृत्रिम बौद्धिकता- जनित चित्रकला ने सौंदर्य की परिभाषा को विस्तार दिया है। लेकिन क्या यह तकनीक मानव संवेदना को पूरी तरह प्रतिबिंबित कर सकती है? यह प्रश्न विचारणीय है। फिर भी, यह स्पष्ट है कि कला का मूल उद्देश्य—सौंदर्य और भाव को उजागर करना लगभग अपरिवर्तित रहता है। कला हमें सृजन करने की शक्ति देती है, तो सौंदर्यबोध उस सृजन को अनुभव करने का मार्ग प्रशस्त करता है। यह दोनों मिलकर मानव को केवल जीवित रहने से आगे ले जाते हैं— एक ऐसे संसार की ओर, जहां हर रंग, हर ध्वनि और हर भाव में जीवन का उत्सव छिपा होता है। इस तरह, कला और सौंदर्यबोध न केवल एक-दूसरे के पूरक हैं, बल्कि मानव अस्तित्व के आधार भी हैं। पाश्चात्य दार्शनिक प्लेटो ने कला को "वास्तविकता की नकल" माना, जो सत्य से दूर ले जाती है, जबकि अरस्तू ने इसे "प्रकृति की पूर्णता" के रूप में देखा, जो मानव अनुभव को संवर्धित करती है। दूसरी ओर, भारतीय परंपरा में कला को "रस" की सृष्टि माना गया है। भरत मुनि के नाट्यशास्त्र के अनुसार, कला का उद्देश्य रसानुभूति—भावनाओं का वह शुद्ध आनंद—है जो दर्शक को आत्मिक स्तर पर प्रभावित करता है। अस्तु, सौंदर्यबोध वह संवेदनशीलता है जो हमें सुंदरता को पहचानने और उसमें आनंद लेने की क्षमता देती है। पाश्चात्य विचारक इमैनुएल कांट ने सौंदर्य को "उद्देश्यहीन प्रयोजनशीलता" कहा है। कला 'हिया रो उजास' हैं। कलाकृति कलाकार के अंतस के सौंदर्य का रहस्योद्घाटन हैं। व्यक्तित्व की फूटी भीत को कला लीपती हैं। कला का आलोक काल से परे हैं। कला का सत्य अजर हैं, अमर हैं। कला की परिमिति असीम है। कला का सौंदर्य बाड़ाबंदी से पार, आर-पार हैं। माध्यम एवम तकनीक कला की देह हैं तो विचार प्राण हैं। यह विचार तत्व ही कला की चेतना हैं। इसके अभाव में कलाकृति कोरी जड़ हैं। कला में सिकने से ही एक विचार कलाकृति स्वरूप में पकता हैं। पकने के चरम में वही विचार कालजयी हो जाता हैं। कला; काल से परे हैं। तीनों काल; कला के आलोक से ही प्रकाशित हैं। कला के पाथेय से एक गवांर मिनख बन जाता हैं। सुसंस्कृत हो जाता हैं।
कला संयोजन लोक में सहयोग, सामंजस्य व सन्तुलन बुनता हैं। फिर जीवन को लय आबद्ध कर, प्रमाण भरके जीवन की प्रभावित को द्विगुणित करता हैं। चित्रण के तत्व दृश्य कलाओं के सारभूत है। रेखाएं शून्य का अबाध विस्तार है। रूप आकारों का सीमांकन है। वर्ण हाजिर-नाजिर प्रकाश का अनुभव है। तान छाया-प्रकाश का अहसास है। पोत चराचर की सतह का कहन है। अंतराल अभिव्यक्ति का धरातल है। चित्र षडंग का कामसूत्र उद्गम स्रोत है। षडंग में रूपभेद साकार-निराकार के सम-असम की समझ है। प्रमाण रूपाकारों की आपसी संबद्धता है। भाव अंतस की रोशनी है। लावण्य लवण सा है। सादृश्य यथार्थ का भान है। वर्णिका भंग वर्णों का गणित व तूलिका संचलन का विज्ञान है। सृजनात्मक प्रक्रिया चार हैं। यह नया गढ़ने का, सिरजने का बेतरतीब चरण हैं। निरीक्षण विषय की परख है। प्रत्यक्षीकरण विषय का हूबहू बोध है। कल्पना यथार्थ के पार जाना है। अभिव्यक्ति अंतस का मौलिक कहन है। कला में कलाकार, कलाकृति एवम सहृदय दृष्टा तीनों ही महत्वपूर्ण इकाई हैं। एक कलाकृति; कलाकार से सहृदय दृष्टा को जोड़ती हैं। सहृदय की दीठ कलाकृति को विलोकते हुए कलाकार के मन को टटोलती हैं। इस टटोलने में सहृदय जो रस चखता हैं वह अमर है। कला का व्याकरण लोक चेतना से बुनता हैं। अस्तु कला अवबोध कमती-बत्ती समष्टि को सुकर हैं। मांडणा सृजन में गेरू से अंगुलियों में, पाषाण को तराशकर मूर्ति गढ़ते हाथों में, ढ़ोल की थाप में, गवैया के कंठ से ध्वनि,ताल, नाद व लय से आबद्ध स्वर के आरोह-अवरोह में, कविताओं के कवित्व में, वास्तु के तिलिस्म में कला सौंदर्य हाजिर हैं। कला अक्षय है। कला सतत व समग्र रूप में समाज को पोषती हैं। कला काल के ललाट पर अमिट तिलक सी है। कला समाज का दर्पण है। सच्ची कला देश, काल व वातावरण परक है। कला का सौंदर्य लोकतांत्रिक है। कला का सौंदर्य अलौकिक है। वह स्पर्श में नही है। वह दृष्टि व कर्णों से ही पेय है। कामायनी में जयशंकर प्रसाद ने कहा है कि –
दृष्टि का जो पेय है वह रक्त का भोजन नही,
रूप की आराधना का मार्ग आलिंगन नही।।
कलाकार अतीत से सीखकर, वर्तमान को जीवंत कर, भविष्य की बुनावट भी करता है। कला व समाज अन्योन्याश्रित हैं। कला लोक के आचार-व्यवहार के आलोक को पसारता है। कला भेदों को भेदती है। समता परोसती है। कलाओं की चटकता से समाज चटकता हैं। कलाओं के माधुर्य से समाज मे मधुरता आती है। कला अच्छी भी हैं बुरी भी। अच्छी कला सकारात्मक हैं व बुरी नकारात्मक। लोक, कलाओं को बरतता है। कलाएं भावों का शोधन करती हैं। फलतः लोक परिमार्जित होता हैं। कवि, कलाकार मौलिक सौंदर्य के खोजी हैं। यथा:-
सुबरन को ढूंढत फिरत कवि कामी और चोर।।
सम्प्रति, कृत्रिम बौद्धिकता की आबोहवा हैं। फलतः कला सिरजने की प्राकृतिकता सततता जरूरी हैं। व हाल के दिन-मानों में कला की बूझ और आवश्यक हैं। कला अभ्यास बौद्धिक प्राकृतिकता व कृत्रिमता का संतुलन लाता हैं। आज जब डिजिटल माध्यमों पर दृश्य-प्रदर्शनों की भरमार है, तब कला-अवबोधन (Art Appreciation) की आवश्यकता और भी अधिक है। किसी चित्र, मूर्ति या नृत्य को केवल देखने से वह संप्रेषित नहीं होती; उसकी संवेदना को समझने, उसके इतिहास, शैली, उद्देश्य और कलाकार की चेतना से जुड़ने की प्रक्रिया से गुजरना होता है। कला, आज की कठिनता में सरलता पिरोती हैं। आज कठिन होना सरल हो गया तो सरल होना उतना ही कठिन। यह सरलता ही जीवन सौंदर्य हैं। यही मानव को मानव बनाती हैं। यह सरलता कलागत हैं। कलागत सरलता के अभाव में जीवन का फैलाव बौना हैं। सरलता की शून्यता मानव भविष्य को सीमित करती हैं। वस्तुतः कला ही जीवन हैं। कलाएं बची हैं तब तक ही जीवन बचा हैं। कला जीवन की निर्जीवता में सजीवता का आव्हान हैं। कला जीवन की कुरूपता में सौंदर्य का जीवंत हस्ताक्षर हैं। कला-अवबोधन हमें संवेदनशील दर्शक बनाता है— जो कलाकृति को न केवल देखता है, बल्कि उसमें स्वयं को भी खोजता है। यह अभ्यास संस्कृति के संरक्षण, कला की आलोचना और रचनात्मक संवाद को जन्म देता है। विश्व कला दिवस पर हमें केवल कला का उत्सव नहीं मनाना है, बल्कि उसे समझना, सराहना और संरक्षित करना है—ताकि आने वाली पीढ़ियाँ भी इस सौंदर्य, संवेदना और चेतना की विरासत से समृद्ध हो सकें।
डॉ. रमेश चंद मीणा
कलाकार व समीक्षक
सहायक आचार्य-चित्रकला
राजकीय कला महाविद्यालय,कोटा
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